कामचोर… आज की कहानी

~इस्मत चुग़ताई

बड़ी देर के वाद – विवाद के बाद यह तय हुआ कि सचमुच नौकरों को निकाल दिया जाए। आखिर, ये मोटे-मोटे किस काम के हैं! हिलकर पानी नहीं पीते। इन्हें अपना काम खुद करने की आदत होनी चाहिए। कामचोर कहीं के ।
“तुम लोग कुछ नहीं! इतने सारे हो और सारा दिन ऊधम मचाने के सिवा कुछ नहीं करते ।”

और सचमुच हमें खयाल आया कि हम आखिर काम क्यों नहीं करते? हिलकर पानी पीने में अपना क्या खर्च होता है? इसलिए हमने तुरंत हिल-हिलाकर पानी पीना शुरु किया।
हिलाने में धक्के भी लग जाते हैं और हम किसी के दबैल तो थे नहीं कि कोई धक्का दे, तो सह जाएँ। लीजिए, पानी के मटकों के पास ही घमासान युद्ध हो गया। सुराहियाँ उधर लुढ़कीं। मटके इधर गये। कपड़े भीगे, सो अलग।
‘यह भला काम करेंगे।’ अम्मा ने निश्चय किया।
“करेंगे कैसे नहीं! देखो जी! जो काम नहीं करेगा, उसे रात का खाना हरगिज़ नहीं मिलेगा। समझे।”
यह लीजिए, बिलकुल शाही फरमान जारी हो रहे हैं।
“हम काम करने को तैयार हैं। काम बताए जाएँ।” हमने दुहाई दी।

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“बहुत से काम हैं, जो तुम कर सकते हो। मिसाल के लिए, यह दरी कितनी मैली हो रही है। आँगन में कितना कूड़ा पड़ा है। पेड़ों में पानी देना है और भाई मुफ्त तो यह काम करवाए नहीं जाएँगे। तुम सबको तनख्वाह भी मिलेगी। ” अब्बा मियाँ ने कुछ काम बताए और दूसरे कामों का हवाला भी दिया-माली को तनख्वाह मिलती है। अगर सब बच्चे मिलकर पानी डालें, तो।।।।
“ऐ हे! खुदा के लिए नहीं। घर में बाढ़ आ जाएगी।” अम्मां ने याचना की। फिर भी तनख्वाह के सपने देखते हुए हम लोग काम पर तुल गए।

एक दिन फर्शी दरी पर बहुत-से बच्चे जुट गए और चारों ओर से कोने पकड़कर झटकना शुरु कर दिया। दो – चार ने लकड़ियाँ लेकर धुआँधार पिटाई शुरु कर दी।

सारा घर धूल से अट गया। खाँसते – खाँसते सब बेदम हो गए। सारी धूल जो दरी पर थी, जो फर्श पर थी, सबके सिरों पर जम गई। नाकों और आँखों में घुस गई। बुरा हाल हो गया सबका। हम लोगों को तुरंत आँगन में निकाला गया। वहाँ हम लोगों ने फौरन झाड़ू देने का फैसला किया।

झाड़ू क्योंकि एक थी और तनख्वाह लेनेवाले उम्मीदवार बहुत, इसलिए क्षण-भर में झाड़ू के पुर्जे उड़ गए। जितनी सींकें जिसके हाथ पड़ीं, वह उनसे ही उल्टे – सीधे हाथ मारने लगा। अम्मा ने सिर पीट लिया। भई, ये बुजुर्ग काम करने दें, तो इंसान काम करे। जब ज़रा-ज़रा सी बात पर टोकने लगे तो बस, हो चुका काम!

असल में झाड़ू देने से पहले ज़रा-सा पानी छिड़क लेना चाहिए। बस, यह खयाल आते ही तुरंत दरी पर पानी छिड़का गया। एक तो वैसे ही धूल से अटी हुई थी। पानी पड़ते ही सारी धूल कीचड़ बन गई।

अब सब आँगन से भी निकाले गए। तय हुआ कि पेड़ों को पानी दिया जाए। बस, सारे घर की बाल्टियाँ, लोटे, तसले, भगोने, पतीलियाँ लूट ली गईं। जिन्हें ये चीजें भी न मिलीं, वे डोंगे – कटोरे और गिलास ही ले भागे।

अब सब लोग नल पर टूट पड़े। यहाँ भी वह घमासान मची कि क्या मजाल जो एक बूँद पानी भी किसी के बर्तन में आ सके। ठूसम-ठास! किसी बाल्टी पर पतीला और पतीले पर लोटा और भगोने और डोंगे। पहले तो धक्के चले। फिर कुहनियाँ और उसके बाद बर्तन। फौरन बड़े भाइयों, बहनों, मामुओं और दमदार मौसियों, फूफियों की कुमुक भेजी गई, फौज मैदान में हथियार फेंक कर पीठ दिखा गई।

इस धींगामुश्ती में कुछ बच्चे कीचड़ में लथपथ हो गए जिन्हें नहलाकर कपड़े बदलवाने के लिए नौकरों की वर्त्तमान संख्या काफी नहीं थी। पास के बंगलों से नौकर आए और चार आना प्रति बच्चा के हिसाब से नहलवाए गए।

हम लोग कायल हो गए कि सचमुच यह सफाई का काम अपने बस की बात नहीं और न पेड़ों की देखभाल हमसे हो सकती है। कम से कम मुर्गियाँ ही बंद कर दें।
बस, शाम ही से जो बाँस, छड़ी हाथ पड़ी, लेकर मुर्गियाँ हाँकने लगे। ‘चल दड़बे, दड़बे।’

पर साहब, मुर्गियों को भी किसी ने हमारे विरुद्ध भड़का रखा था। ऊट-पटाँग इधर-उधर कूदने लगीं। दो मुर्गियाँ खीर के प्यालों से जिन पर आया चाँदी के वर्क लगा रही थी, दौड़ती – फड़फड़ाती हुई निकल गईं।

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तूफ़ान गुजरने के बाद पता चला कि प्याले खाली हैं और सारी खीर दीदी के कामदानी के दुपट्टे और ताजे धुले सिर पर लगी हुई है। एक बड़ा सा मुर्गा अम्मा के खुले हुए पानदान में कूद पड़ा और कत्थे – चूने में लुथड़े हुए पंजे लेकर नानी की सफ़ेद दूध जैसी चादर पर छापे मारता हुआ निकल गया।

एक मुर्गी दाल की पतीली में छपाक मारकर भागी और सीधी जाकर मोरी में इस तेजी से फिसली कि सारी कीचड़ मौसी जी के मुँह पर पड़ी, जो बैठी हुई हाथ – मुँह धो रही थीं। इधर सारी मुर्गियाँ बेनकेल का ऊँट बनीं चारों तरफ दौड़ रही थीं।
एक भी दड़बे में जाने को राजी न थी।
इधर, किसी को सूझी कि जो भेड़ें आई हुई हैं, लगे हाथों उन्हें भी दाना खिला दिया जाए।

दिन-भर की भूखी भेड़ें दाने का सूप देखकर जो सबकी सब झपटीं तो भागकर जाना कठिन हो गया। लश्टम – पश्टम तख़्तों पर चढ़ गईं। पर भेड़ चाल मशहूर है। उनकी नज़र तो बस दाने के सूप पर जमी हुई थी। पलँगों को फलाँगती, बरतन लुढ़काती साथ – साथ चढ़ गईं।

तख़्त पर बानी दीदी का दुपट्टा फैला हुआ था,जिस पर गोखरी, चंपा और सलमा-सितारे रखकर बड़ी दीदी मुल्तानी बुआ को कुछ बता रही थी। भेड़ें बहुत नि:संकोच सबको रौंदती, मेंगने का छिड़काव करती हुई दौड़ गईं।

जब तूफान गुजर चुका तो ऐसा लगा जैसे जर्मनी की सेना टैंकों और बमबारों सहित उधर से छापा मारकर गुजर गई हो। जहाँ-जहाँ से सूप गुजरा, भेड़ें शिकारी कुत्तों की तरह गंध सूंघती हुई हमला करती गईं।
हज्जन माँ एक पलंग पर दुपट्टे से मुँह ढांके सो रही थीं। उन पर से जो भेड़ें दौड़ीं तो न जाने वह सपने में किन महलों की सैर कर रही थीं, दुपट्टे में उलझी हुई मारो-मारो चीखने लगीं।
इतने में भेड़ें सूप को भूलकर तरकारीवाली की टोकरी पर टूट पड़ीं। वह दालान में बैठी मटर की फलियाँ तोल-तोल कर रसोइये को दे रही थी। वह अपनी तरकारी का बचाव करने के लिए सीना तान कर उठ गई। आपने कभी भेड़ों को मारा होगा, तो अच्छी तरह देखा होगा कि बस, ऐसा लगता है जैसे रुई के तकिये को कूट रहे हों। भेड़ को चोट नहीं लगती। बिलकुल यह समझकर कि आप उससे मजाक कर रहे हैं, वह आप ही पर चढ़ बैठेगी। जरा-सी देर में भेड़ों ने तरकारी छिलकों समेत अपने पेट की कड़ाही में झोंक दी।

इधर यह प्रलय मची थी, उधर दूसरे बच्चे भी लापरवाह नहीं थे। इतनी बड़ी फौज़ थी- जिसे रात का खाना न मिलने की धमकी मिल चुकी थी। वे चार भैंसों का दूध दुहने में जुट गए। धुली-बेधुली बाल्टी लेकर आठ हाथ चार थनों पर पिल पड़े। भैंस एकदम जैसे चारों पैर जोड़कर उठी और बाल्टी को लात मारकर दूर जा खड़ी हुई।

तय हुआ कि भैंस की भैंस की अगाड़ी-पिछाड़ी बाँध दी जाए और फिर काबू में लाकर दूध दुह लिया जाय। बस, झूले की रस्सी उतारकर भैंस के पैर बाँध दिए गए। पिछले दो पैर चाचाजी की चारपाई के पायो से बाँध, अगले दो पैरों को बाँधने की कोशिश जारी थी कि भैंस चौकन्नी हो गई। छूटकर जो भागी तो पहले चाचाजी समझे कि शायद कोई सपना देख रहे हैं। फिर जब चारपाई पानी के ड्रम से टकराई और पानी छलककर गिरा तो समझे कि आँधी-तूफ़ान में फँसे हैं। साथ में भूचाल भी आया हुआ है। फिर जल्दी ही उन्हें असली बात का पता चल गया और वह पलंग की दोनों पाटियाँ पकड़े, बच्चों को छोड़ देनेवालों को बुरा-भला सुनाने लगे।
यहाँ बड़ा मज़ा आ रहा था। भैंस भागी जा रही थी और पीछे-पीछे चारपाई और उस पर बैठे चाचाजी।
ओहो! एक भूल ही हो गई यानी बछड़ा तो खोला ही नहीं, इसलिए तत्काल बछड़ा भी खोल दिया गया।

तीर निशाने पर बैठा और बछड़े की ममता में व्याकुल होकर भैंस ने अपने खुरों को ब्रेक लगा दिए। बछड़ा तत्काल जुट गया। दुहने वाले गिलास-कटोरे लेकर लपके क्योंकि बाल्टी तो छपाक से गोबर में जा गिरी थी। बछड़ा फिर बागी हो गया।

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कुछ दूध जमीन पर और कपड़ों पर गिरा। दो-चार धारें गिलास-कटोरों पर भी पड़ गईं। बाकी बछड़ा पी गया। यह सब कुछ, कुछ मिनट के तीन-चौथाई में हो गया।

घर में तूफ़ान उठ खड़ा हुआ। ऐसा लगता था , जैसे सारे घर में मुर्गियाँ, भेड़ें, टूटे हुए तसले, बाल्टियाँ ,लोटे, कटोरे और बच्चे थे। बच्चे बाहर किये गए। मुर्गियाँ बाग में हँकाई गईं। मातम-सा मनाती तरकारीवाली के आँसू पोछे गए और अम्मा आगरा जाने के लिए सामान बाँधने लगीं।
“या तो बच्चा-राज कायम कर लो या मुझे ही रख लो। नहीं तो मैं चली मायके,” अम्मा ने चुनौती दे दी।

और अब्बा ने सबको कतार में खड़ा करके पूरी बटालियन का कोर्ट मार्शल कर दिया। “अगर किसी बच्चे ने घर की किसी चीज़ को हाथ लगाया तो बस, रात का खाना बंद हो जाएगा।”

ये लीजिये ! इन्हें किसी करवट शान्ति नहीं। हम लोगों ने भी निश्चय कर लिया कि अब चाहे कुछ भी हो जाए, हिलकर पानी भी नहीं पिएँगे।

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