सुनो! मौका देकर तो देखो… जज साहब, मैं तुम्हें भी बम बनाना सिखा सकता हूं…

महान क्रांतिकारी खुदीराम बोस को उनकी शहादत पर शब्द श्रद्धांजलि

Khudiram Bose, Indian revolutionary from Bengal Presidency,  British rule of India, Muzaffarpur Conspiracy Case, Prafulla Chaki,  Indian Independence Movement, British judge Magistrate Douglas Kingsford,  Medinipur district Bengal, TIS Media
खुदीराम बोस।

13 जून, 1908… मुजफ्फरपुर कोर्ट…! कटघरे में खड़ा खूबसूरत नौजवान अचानक मुस्कुरा उठा। फैसला सुना रहा जज कॉर्न डफ भौंचक्का रह गया। उसे लगा कि शायद धोती कुर्ता पहने हिंदुस्तानी को अंग्रेजी समझ नहीं आई, इसीलिए फांसी का फैसला सुनकर मारे खौफ के गश खाकर गिरने के बजाय इसे हसी-ठिठोली सूझ रही है।
जज कॉर्न डफः सजा का मतलब समझते हो?
नौजवान धीरे से मुस्कुराया और बोलाः हां, मुझे सब समझ में आता है। आपने मुझे मौत की सजा सुनाई है। मेरे वकील ने भी दलील दी थी कि मैं बहुत छोटा हूं, इसलिए बम नहीं बना सकता। लेकिन, मेरे वकील गलत हैं। मैं तो बस उनकी गलती सही करने की कोशिश कर रहा हूं।
जज कॉर्न डफः वो कैसे ठीक करोगे?
नौजवानः अगर आप मुझे थोड़ा समय दें तो मैं आपको भी बम बनाना सिखा सकता हूं…!!!

इतना सुनते ही पूरी अदालत में सन्नाटा पसर गया… हैरत में पड़ा जज उस नौजवान को कई मिनटों तक एक टक देखता रह गया… आखिर में उसने लिखा… वो एक शेर थे… जो निर्भीक होकर फांसी के फंदे की ओर बढ़ा…। हां, वो शेर कोई और नहीं खुदीराम बोस थे… आजादी के इतिहास में पहला बम फोड़ने वाले जांबाज क्रांतिकारी… जिनके बम की गूंज से सिर्फ बिहार और बंगाल ही नहीं लन्दन तक कांप उठे थे। मां भारती को अंग्रेजों की गुलामी से आजाद कराने के लिए खुदीराम बोस महज 18 साल की उम्र में मुस्कुराते हुए फांसी के फंदे पर झूल गए थे।

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शेर-ए-हिंदुस्तान खुदीराम
3 दिसम्बर 1889… बंगाल के मेदिनीपुर जिले में त्रैलोक्यनाथ बोस और लक्ष्मी प्रिया देवी के घर एक बेटे का जन्म हुआ। बेटा पैदा होने से घर में ख़ुशी से ज्यादा खौफ मौत का खौफ तैर उठा था… दरअसल बात यह थी कि प्रिया देवी ने इससे पहले भी दो बेटों को जन्म दिया था, लेकिन दोनों को ही बीमारी निगल गई। प्रिया देवी को लगा कि कहीं यह बच्चा भी काल के गाल में न समा जाए। त्रैलोक्यनाथ बोस को इस डर से बाहर निकलने की एक तरकीब सूझी… उन्होंने अपनी बड़ी बेटी को आवाज दी और सिर्फ तीन मुट्ठी चावल के बदले नवजात को उसे बेच दिया। बंगाल के गांवों में चावल को खुदी कहते थे… इसीलिए तीन मुट्ठी चावल के बदले मिले इस नवजात का नाम उसकी बड़ी बहन ने खुदी राम रखा…। त्रैलोक्यनाथ बोस का टोटका काम कर गया और खुदीराम बोस जीवित बच गए।

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बम बनाने की पढ़ाई 
त्रैलोक्यनाथ बोस ने बचपन से ही बेटे की पढ़ाई पर खासा जोर दिया, लेकिन बेटा था कि उसका मन शास्त्रों की बजाय शस्त्रों की पढ़ाई में रमने लगा। खुदीराम अभी 9वीं कक्षा तक पहुंचे ही थे कि पूरा बंगाल अंग्रेजों की विभाजनकारी साजिश को नाकाम करने के लिए सुलग उठा। खुदीराम के भीतर भी मां भारती को अंग्रेजों के अत्याचार से मुक्त कराने की आग धधक उठी और देखते ही देखते वह महान क्रांतिकारी सत्येन्द्रनाथ सान्याल के संपर्क में आ गए। जहां उन्होंने बम बनाना सीखा। एक दिन ऐसा भी आया कि नौंवी कक्षा के बाद उनका मन स्कूल में बिल्कुल भी नहीं रमा तो पढ़ाई छोड़ खुदीराम रिवोल्यूशनरी पार्टी के सदस्य बन गए और 1905 में बंगाल के विभाजन (बंग-भंग) के विरोध में चलाये गये आन्दोलन में उन्होंने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया।

बचने में माहिर थे खुदीराम 
इतिहासवेत्ता मालती मलिक के अनुसार फरवरी 1906 में मिदनापुर में एक औद्योगिक एवं कृषि प्रदर्शनी का आयोजन किया गया। यह आयोजन इतना बड़ा था कि आसपास के प्रांतों के लोग भी इसे देखने आ रहे थे। मौके का फायदा उठा खुदीराम बोस ने क्रान्तिकारी सत्येन्द्रनाथ का लिखे पत्रक ‘सोनार बांगला’ इस प्रदर्शनी में बांटना शुरू कर दिया। ब्रितानिया हुकूमत के खिलाफ आग उलगता एक पत्रक अंग्रेज पुलिस अफसर तक जा पहुंचा तो वह खुदीराम को पकड़ने के लिए भागा, लेकिन खुदीराम उसके मुंह पर घूसा मारकर भाग निकले। मामला अदालत तक पहुंचा और उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया, लेकिन खुदीराम के खिलाफ किसी ने गवाही न। नतीजन, वह बरी हो गए। 28 फरवरी 1906 को खुदीराम बोस फिर गिरफ्तार कर लिये गए, लेकिन इस बार तो वह कैद से ही भाग निकले। लगभग दो महीने बाद अप्रैल में उन्हें अंग्रेजों ने फिर से धर दबोचा, लेकिन इस बार भी कोई गवाही न मिलने पर 16 मई 1906 को उन्हें रिहा करना पड़ा।

बम के धमाके और “युगान्तर”
खुदीराम का हौसला अब खासा बढ़ चुका था। मिदनापुर में ‘युगान्तर’ नाम की क्रान्तिकारियों की गुप्त संस्था का हिस्सा बनते ही खुदीराम क्रांतिकारियों से जुड़ गए। जिन हाथों में अभी तक पत्रक हुआ करते थे उन्होंने अब बम थाम लिए थे। खुदीराम ने 6 दिसंबर 1907 को पहला बम नारायणगढ़ रेलवे स्टेशन पर बंगाल के गवर्नर की स्पेशल ट्रेन पर फेंका, लेकिन इस हमले में गवर्नर बच निकला। साल 1908 में उन्होंने दो अंग्रेज अधिकारियों वाट्सन और पैम्फायल्ट फुलर पर भी बम से हमला किया लेकिन वे भी बच निकले। उन दिनों जिला सेशन जज हुआ करता था डग्लस किंग्सफोर्ड, जिसको भारतीय फूटी आंख नहीं सुहाते थे। छोटे से छोटे मामले में भी डग्लस 15 कोड़ों से कम की सजा न देता। क्रांतिकारियों ने अगला लक्ष्य बनाया किंग्सफोर्ड को, जिसे मारकर भारतीयों पर होने वाले जुल्म का बदला लेने का फैसला किया गया। पहली कोशिश में किताब में छुपाकर एक बम किंग्सफोर्ड के पास भेजा गया, लेकिन किंग्सफोर्ड ने किताब नहीं खोली और वह साफ बच निकला।

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अंग्रेज जज डगलस किंग्सफोर्ड।

किंग्जफोर्ड को मारने मुजफ्फरपुर तक जा पहुंचे 
1905 में लॉर्ड कर्जन ने जब बंगाल का विभाजन किया तो उसके विरोध में सड़कों पर उतरे अनेकों भारतीयों को उस समय के कलकत्ता के मॅजिस्ट्रेट किंग्जफोर्ड ने क्रूर दण्ड दिया। अन्य मामलों में भी उसने क्रान्तिकारियों को बहुत कष्ट दिया था। इसके परिणामस्वरूप किंग्जफोर्ड को पदोन्नति देकर मुजफ्फरपुर में सत्र न्यायाधीश के पद पर भेजा। ‘युगान्तर’ समिति कि एक गुप्त बैठक में किंग्जफोर्ड को मारने का फैसला हुआ। इस काम के लिए चुना गया खुदीराम और उनके साथ प्रफुल्ल चाकी को। दोनों लोग एक बम और दो पिस्तौल लेकर जा पहुंचे मुजफ्फरपुर। वहां पहुंचकर उन दोनों ने मोतीझील इलाके में एक धर्मशाला में किराए पर कमरा लिया, जिसका मालिक एक बंगाली ज़मींदार था। उन्हें लगा कि दो बंगाली अगर एक बंगाली धर्मशाला में रहेंगे तो किसी को शक नहीं होगा।

एक बम, दो मौत
दोनों ने पहले बंगले की निगरानी की, किंग्सफोर्ड के आने जाने का समय, बग्घी तथा उसके घोडे का रंग और कार्यालय तक की छानबीन की। 30 अप्रैल 1908 को दोनों किंग्जफोर्ड के बंगले के बाहर आ जमे। वहां मौजूद पुलिस के गुप्तचरों ने उन्हें हटाना भी चाहा लेकिन बड़ी चतुराई से वह दोनों वहीं जमे रहे। रात में साढ़े आठ बजे के आसपास क्लब से किंग्जफोर्ड जैसी बग्घी देख खुदीराम गाडी के पीछे भागने लगे। रास्ते में बहुत ही अंधेरा था। गाडी किंग्जफोर्ड के बंगले के सामने आते ही खुदीराम ने अंधेरे में ही आगे वाली बग्घी पर निशाना लगाकर जोर से बम फेंका। हिन्दुस्तान में इस पहले बम विस्फोट की आवाज उस रात तीन मील तक सुनाई दी और कुछ दिनों बाद तो उसकी आवाज इंग्लैंड में भी सुनी गयी जब वहां इस घटना की खबर ने तहलका मचा दिया, लेकिन किंग्सफोर्ड बच निकला। दरअसल हुआ यह कि उस दिन किंग्सफ़ोर्ड के अलावा वहां के लोकल बैरिस्टर प्रिंगल केनेडी का परिवार भी मौजूद था। रात आठ बजे तक उन लोगों ने ब्रिज, ताश का गेम खेला और उसके बाद सब लोग बाहर आ गए। केनेडी की पत्नी और बेटी जाकर सबसे आगे वाली बग्गी में बैठ गए। अंधेके के कारण इसी बग्गी को खुदीराम किंग्सफोर्ड की बग्गी समझ बैठे। उनके फेंके बम से बग्गी में बैठी केनेडी की पत्नी और बेटी की मौत हो गई।

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अमर सेनानी प्रफुल चाकी की अंतिम तस्वीर।

प्रफुल्ल चाकी का सिर काट ले गए अंग्रेज 
बम फटते ही खुदीराम और प्रफुल्ल चाकी वहां से भाग निकले। भागते समय उनके जूते और चादर रास्ते में छूट गई। जिससे अंग्रेजों ने उनका ठिकाना पता कर लिया। दोनों की पहचान होते ही अगले दिन मुनादी करवा दी गई कि दो बंगाली लड़के हत्या के आरोप में फरार हैं। खबर देने वाले को 5000 रुपए का इनाम मिलेगा। 1 मई 1908 को प्रफुल्ल समस्तीपुर स्टेशन पहुंचे और एक ट्रेन में जाकर बैठ गए।  पहचान छुपाने के मकसद से उन्होंने नए जूते और कपड़े भी खरीद लिए, लेकिन ट्रेन में प्रफुल्ल के साथ एक बंगाली दरोगा नंदलाल बैनर्जी भी यात्रा कर रहा था। प्रफुल को देखकर उसे शक हुआ और पूछताछ करने लगा। प्रफुल्ल ने नंदलाल बैनर्जी को अपना नाम दिनेश चंद्र रे बताया था, लेकिन उसका शक गहराया तो अगले स्टेशन पर उसने पुलिस को सूचना दी। पुलिस ने प्रफुल को जैसे ही पकड़ा उन्होंने अपनी पिस्टल से गोलियां चलाना शुरू कर दिया। आखिर में प्रफुल ने अपनी ही पिस्टल से सीने में गोली मार शहादत दे दी। अंग्रेजों के अत्याचार का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि शिनाख्त करने के लिए पुलिस ने प्रफुल्ल का सिर काटकर कलकत्ता भिजवाया ताकि ये पक्का हो सके कि ये वही प्रफुल्ल कुमार चाकी है।

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16 साल के खुदीराम बोस।

30 किमी पैदल चले और पकड़े गए खुदीराम 
उधर, खुदीराम रेलवे ट्रैक पर पैदल ही चल निकले। करीब 30 किमी चलने के बाद वह पूसा के पास वैनी रेलवे स्टेशन पहुंच गए। भूख और प्यास से बेहाल खुदीराम पानी पीने के लिए नल के पास गए तो वहां पुलिस का अच्छा खासा जाप्ता देख लोगों से इसकी वजह पूछने लगे। तभी अचानक उनके मुंह से निकल पड़ा कि क्या किंग्सफोर्ड नहीं मरा…!!! जैसे ही पुलिस वालों के कानों में यह शब्द पड़े उन्हें शक हो गया और खुदीराम को धर दबोचा। उन्होंने मुकाबले के लिए अपनी पिस्टल निकाली, लेकिन वह इतना थक चुके थे कि पुलिस वाले उन पर भारी पड़ गए। पुलिस उन्हें पकड़कर मुज़फ़्फ़रपुर स्टेशन ले आई, लेकिन तब तक उनकी गिरफ़्तारी की खबर चारों तरफ आग की तरह फैल चुकी थी। किसी को यकीन ही नहीं हो रहा था कि 18 साल के लड़के ने किसी अंग्रेज को मार गिराया है। पुलिस स्टेशन पहुंचकर जैसे ही खुदीराम वैन से उतरे, तो जोर से चिल्लाए- वन्दे मातरम !

7 दिन, 55 सवाल और फांसी की सजा 
13 जून 1908… को सिर्फ सात दिन चली सुनवाई और 55 सवाल पूछने के बाद आखिरकार इस रोज जज कॉर्न डफ ने खुदीराम को फांसी की सजा सुनाई। खुदीराम के वकील कालीदास ने जमकर जिरह की। उन्होंने तो यहां तक कह दिया कि इतना छोटा लड़का बम नहीं बना सकता, लेकिन इस पर खुदीराम हसने लगे और फैसला सुनाने के बाद जब जज ने उससे पूछा, कि  ‘क्या तुम फ़ैसला समझ गए हो?’ उन्होंने कहा कि ‘हां लेकिन मैं कुछ कहना चाहता हूं’। जज ने कहा, मेरे पास इसके लिए वक्त नहीं है। जिसके बाद खुदीराम बोले अगर मुझे मौक़ा दिया जाए, तो मैं ये बता सकता हूं कि बम कैसे बनाया गया था। फांसी के तख्ते पर झूलने की चिंता से ज्यादा खुदीराम को इस बात की फ़िक्र थी कि बम बनाने का फ़ॉर्म्युला ज्यादा से ज्यादा लोगों तक कैसे पहुंचाया जा सकता है। खुदीराम ने अपने वकील से कहा कि चिंता मत करो, पुराने समय में राजपूत औरतें आग में जौहर कर लेती थीं। मैं भी बिना किसी डर के अपनी मौत स्वीकार कर लूंगा।

और हंसते-हंसते झूल गए फांसी पर 
खुदीराम को मौत से इस कदर बेतकल्लुफ़ी थी कि जेलर आखिरी इच्छा पूछने आया तो खुदीराम उससे भी मसखरी करने लगे। खुदीराम ने जेलर से कहा कि क्या खाने को आम मिल सकते हैं? जेलर ने उन्हें आम भिजवा दिए और कुछ देर बाद उसने देखा कि आम तो ऐसे ही पड़े हुए हैं। जेलर ने पूछा कि आम क्यों नहीं खाए तो खुदीराम ने जवाब दिया कि आम तो वो खा चुका है, जेलर ने जाकर गौर से आम की तरफ देखा तो पता चला कि आम की गुठलियां इस तरह निकाली गई थीं कि आम साबुत ही दिखाई पड़ रहा था। जेलर का हाल देखकर खुदीराम खिलखिलाकर हंस पड़े। 11 अगस्त की सुबह 6 बजे खुदीराम को फांसी दे दी गई। वहां मौजूद लोगों के अनुसार फांसी मिलने तक एक बार भी ना वो घबराए, ना उनके चेहरे पर कोई शिकन आई। हाथ में गीता थामे जब उनका आखिरी फोटो खींचा गया तो चेहरे का तेज अंग्रेज हुकूमत की आंखों को चौंधिया रहा था। फांसी के बाद जब उनका अंतिम संस्कार किया गया तो उनकी चिता पर अस्थि चूर्ण और भस्म के लिए परस्पर छीना-झपटी होने लगी। कोई सोने की डिब्बी में, कोई चांदी के और कोई हाथी दांत के छोटे-छोटे डिब्बों में वह पुनीत भस्म भरकर ले गया। एक मुट्ठी भस्म के लिए हज़ारों स्त्री-पुरुष बावले हो उठे थे। कहते हैं कि बंगाल के सारे युवक उन दिनों जो धोती पहनते थे, उसकी बॉर्डर पर खुदीराम बुना होता था। फरवरी 1910 में एक ऐसी ही धोती सरकारी अधिकारियों के सामने लाई गई। उसके बॉर्डर पर एक कविता लिखी हुई थी:-

एक बार बिदाय दे मां, घूरे आसी !
हंसी हंसी पोरबो फांसी देखबे भारतबासी !

हिंदी में जिसका अर्थ है,

एक बार मुझे विदा दो मां, मैं जल्दी लौटूंगा.
पूरे भारत के लोग मुझे देखेंगे और मैं हंसते-हंसते फांसी पर झूल जाऊंगा.

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