1857 की क्रांति का अनोखा नायक, जिसे भारत ने भुला दिया और अंग्रेजों ने सहेजा
इसके बाद पकड़े जाने पर फांसी का हुक्म। जिस सुबह उसे मौत की सजा दी जानी थी उससे पूर्व की रात्रि में सार्जेंट विलियम फोरबेस मिचेल जैमिग्रीन से अपनी कैफियत बयां करने को कहते हैं और वह है कि काली रात के उस भयावह सन्नाटे में हिम्मत के साथ लफ्ज़-लफ्ज़ बयान करता जाता अपना सफरनामा जब मृत्यु उससे कुछ कदम दूर ठिठकी खड़ी उसकी आवाज पर कान धरने की कोशिश कर रही थी।
यह एक जीवंत रोजनामचा है क्रांति के उस कठिन दौर का जिसे कराची पाकिस्तान से प्रकाशित पत्रिका ’अल इल्म’ ने 1957 के मई अंक में छापा और मेसर्स मैकमिलन एंड कंपनी ने इसे पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया। आज बरेली कालेज में जैमिग्रीन के नाम पर ना कोई सभागार है, न स्मारक-पटल। वे प्रतिवर्ष ’जैमिग्रीन दिवस’ भी नहीं मनाते।
जैमिग्रीन ने फांसी के फंदे में लटकने से पहले फारबेस मिचेल से जो बयान किया था उसे जानना बहुत जरूरी है। अंग्रेजों की रेजीमेंट 93 बरतानिया से मई 1857 में लार्ड एलगिन (तत्कालीन वायसराय के पिता) के नेतृत्व में रवाना हुई। अफ्रीका पहुंचने पर हिन्दुस्तान के गदर से निपटने के लिए वह यहां भेज दी गई। 27 अक्टूबर 1857 को कानपुर-लखनऊ की लड़ाई और फतेहगढ़ के बागियों को कुचलने के बाद वह दोबारा लखनऊ जा रही थी। 10 फरवरी को अंग्रेजी फौज ने उन्नाव में कैम्प किया था, और आठ-दस दिन उसे यहीं ठहरना था।
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मिचेल साहब एक दिन टेंट में लेटे हुए थे कि सामने से एक खोमचे वाले को आवाज लगाकर केक, मिठाई इत्यादि बेचते हुए देखा। फौजी मैस का खाना खाते-खाते तबीयत उकता चुकी थी इसलिए मिठाई वाले को फौरन अंदर बुलाया। यह एक अत्यंत सुदर्शन नौजवान था। साफ-सुथरे, सफेद झक कपड़े पहने था। दाढ़ी मू्ंछें खूब बढ़ी हुईं, चौड़ा माथा, नाक जरा झुकी हुई थी। आंखों से बुद्धिमता टपकती थी, और बातों से फौजी भी नहीं मालूम होता था।
लेकिन उसके साथ जो नौकर था वह बहुत अक्खड़ और उजड्ड लगता था। मैंने उससे पूछा–’तुम्हारे पास यहां आने का पास है?’ खोमचे वाले ने मुस्करा कर कहा–’हां-हां, क्यों नहीं। लीजिए, देखिए। ब्रिगेडियर मेजर नहीं, बल्कि खुद ब्रिगेडियर साहब ने दिया है। मैं जैमिग्रीन के नाम से मशहूर हूं। दूसरी रेजीमेंट के खानसामा का लड़का हूं। शेरर साहब, मजिस्ट्रेट कानपुर की सिफारिशी चिट्ठी, जनरल होप साहब के नाम लाया हूं।’ मैंने चिट्ठी लिखकर देखी तो वास्तव में शेरर साहब की लिखी हुई थी। मुझे खोमचे वाले की जिस बात ने सर्वाधिक प्रभावित किया, वह था उसका धारा प्रवाह और अधिकारपूर्वक अंग्रेजी में बातचीत करने का ढंग। वह मुझसे अंग्रेजी अखबार लेकर पढ़ने लगा, और फौज के बारे में हर तरह की बातचीत करने लगा, कि ’आज कल कितने जवान हैं? यहां से कहां जाने का इरादा है? लखनऊ की घेराबंदी के लिए आपने क्या-क्या प्रबंध किए हैं? आप लोग तो विलायत से सीधे ही यहां आ रहे हैं होंगे, यहां की गर्मी कैसे गुजारेंगे?’ बगैरह-बगैरह।
मैंने उससे उसकी धारा प्रवाह अंग्रेजी के बारे में पूछा तो कहने लगा, ’मैंने रेजीमेंट स्कूल में अंग्रेजी शिक्षा पाई है, और काफी समय तक मस्कोट में क्लर्क भी रहा हूं। वहां सारा हिसाब-किताब अंग्रेजी में ही करता था।’ हम लोग बातचीत कर ही रहे थे कि उसके नौकर और एक गोरे सिपाही में पैसों के लेन-देन पर झगड़ा हो गया। मैंने कहा, ’मिस्टर! तुम्हारा यह नौकर बड़ा झगड़ालू है?’ तो कहने लगा, ’साहब यह बड़ा उजड्ड और मूर्ख आदमी है। आप इसकी बातों पर न जाएं। यह आयरलैंड का रहने वाला है। इसकी मां आठवीं आइरिश रेजीमेंट में रहती है। कानपुर की फौज के कमिश्नर ने इसे निकाल दिया क्योंकि उसकी नवयोवना मेम इसकी तीखी चितवन पर रीझ गई थी।’
उसकी लच्छेदार बातों ने हम सबका मन इतना मोह लिया था कि मिठाई छीन लेने वाले गोरे से हमने उसके पैसे दिलवा दिए और वह आगे बढ़ गया। उसी शाम मालूम हुआ कि जैमिग्रीन जो अपने आपको मस्कोट के खानसामा का बेटा बताता था, लखनऊ का जासूस निकला और वह तथा उसका साथी, पकड़ लिए गए हैं। चूंकि शाम हो गई थी इसलिए उसे फांसी नहीं दी गई और मेरी हिरासत में भेज दिया गया। मुझे यह जानकर दुख हुआ क्योंकि इतनी देर से मुझे उससे दिली लगाव-सा हो गया था। इसी के साथ मेरा यह संशय भी जाता रहा कि इतना पढ़ा-लिखा आदमी आखिर खोमचा उठाए क्यों फिरता था।
उसके नौकर को भी, जिसे वह मैकी कह कर पुकारता था, पहचान लिया गया था। यह आदमी था जिसने जुलाई 1857 में अंग्रेजों के खून की नदियां बहाई थीं। मिस्टर फिस्चेट ने जो उसका हुलिया अपनी किताब में लिखा था वह हू-ब-हू उसी का था, क्योंकि वह लंबा-चौड़ा-काला बदसूरत और चेचक-रू आदमी था। जब यह दोनों मेरे पहरे में दिए गए तो अंग्रेज सिपाहियों ने कहा कि इन्हें जबरदस्ती सुअर का गोष्त खिलाना चाहिए। लेकिन मैंने उन लोगों को सख्ती से डांट दिया और चेतावनी दे दी कि यदि ऐसी हरकत किसी ने की, तो मैं उसे हुक्म उदूली के जुर्म में हवालात में करवा दूंगा।
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यह सुनकर जैमिग्रीन के चेहरे पर सच्चे शुक्रिए के आसार पैदा हो गए। मैंने उसे नमाज पढ़ने की इजाजत दे दी और कहा कि, ’मैं भरसक प्रयत्न करूंगा कि तुम्हें रिहाई मिल सके।’ यह सुनकर उसका उजड्ड नौकर बोला, कि मैं हरगिज गोरे काफिरों का यह एहसान नहीं लूंगा। इस पर जैमिग्रीन ने कहा, ’अरे नालायक! हमें सार्जेंट साहब का आभारी होना चाहिए कि इन्होंने हमें सुअर की चर्बी से बचाया है।’
मैंने यह सोचकर, कि अगर यह लोग फरार हो गए तो मुफ्त में बदनामी होगी, रात भर जागने का इरादा किया और एक मुसलमान दुकानदार को बुलाकर उससे कहा कि जो भी खाने को यह मांगे इन्हें ला दो। पैसे मैं अदा कर दूंगा। दुकानदार कहने लगा कि लानत है उस मुसलमान पर जो एक पैसा भी ले। अगर आप ईसाई होकर इतना एहसान कर सकते हैं, तो मैं मुसलमान होकर अपने ही हमवतन और भाई से पैसा लूंगा?
मैंने जैमिग्रीन से कहा, ’सुनो भाई जैमिग्रीन! यह तुम भी खूब अच्छी तरह से जानते हो कि आज की रात तुम्हारी जिंदगी की आखिरी रात है, और सुबह तुम्हें जरूर फांसी पर लटका दिया जाएगा। इसलिए मैं चाहता हूं कि तुम अपने सारे हालात मुझसे बयान कर दो क्योंकि मैं यह सब हालात लिखकर अपने दोस्तों को स्कॉटलैंड और लंदन भेजना चाहता हूं।’
यह सुनकर मुहम्मद अली खां बरेलवी उर्फ जैमिग्रीन कहने लगे कि साहब आपने मेरे ऊपर बड़ा एहसान किया है। इस नेकी का बदला आपको मेरे खुदा और रसूले-पाक की तरफ से जरूर मिलेगा। आप मेरे हालात लिखकर स्कॉटलैंड, और लंदन भेजना चाहते हैं। वहां मेरे भी कई दोस्त हैं, और वैसे भी वहां के लोग इंसाफ पसंद होते हैं। मेरी कहानी पढ़कर वे जरूर दुखी होंगे और ईमानदारी से कुछ सोचेंगे। इसलिए मैं आपको अपनी कहानी जरूर सुनाऊंगा, जरा ध्यान लगाकर सुनिए।
….यह बात वाकई सही है कि मैं एक जासूस हूं। अगर इस शब्द का सीधा मतलब निकाला जाए कि मैं कोई जासूस हूं तो इस इल्जाम से मैं साफ इनकार करता हूं। मैं कोई जासूस नहीं हूं बल्कि बेगम हजरत महल की फौज का एक अफसर हूं और लखनऊ से यहां इस बात की पुख्ता जानकारी हासिल करने आया हूं कि फौज की तादाद कितनी है और हमारे खिलाफ युद्ध करने के लिए कितने तोपखाने और वाहन जुटाए गए हैं।
मैं लखनऊ की फौज का चीफ इंजीनियर हूं और दुश्मन के इलाके की टोह लेने की मुहिम पर आया हूं। लेकिन अल्लाह को शायद यह मंजूर नहीं था। आज शाम मेरी योजना लखनऊ लौटने की थी। अगर किस्मत ने मेरा साथ दिया होता तो मैं कल सूरज निकलने से पहले वहां पहुंच चुका होता क्योंकि जो जानकारियां मुझे चाहिए थीं, मैंने वे सभी हासिल कर ली थीं। लेकिन मैं लखनऊ जाने वाली सड़क से होकर एक बार और उन्नाव जाना चाहता था क्योंकि मैं यह सब देखने के लिए बहुत बेताब था कि लाव-लश्कर से भरी रेलगाड़ियां और गोला-बारूद के दस्ते चलने की तैयारी कर चुके हैं या नहीं। इसे मेरा दुर्भाग्य ही कहिए कि मेरी मुलाकात एक नापाक मां के उस नालायक बेटे से हो गई जिसने मुझे जासूस करार दिलवा दिया है। वह जघन्य काम करने वाला एक नीच आदमी है जिसने फांसी के फंदे से अपनी गर्दन बचाने के लिए खुद को अंग्रेजों के हाथों बेच दिया। अब वह अपने हमवतन और सहधर्मियों की जिंदगी का सौदा करके अपनी नीचता से ध्यान हटाना चाहता है, लेकिन अल्लाह गवाह है कि वह जरूर इसे गद्दारी के बदले जहन्नुम की आग में भेजेगा।
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खैर! हां, मेरा नाम मुहम्मद अली खां है। मैं रोहेलखंड के एक बहुत बड़े और सम्मानित परिवार से हूं। मैंने बरेली कालिज बरेली में शिक्षा पाई है और खास तौर पर अंग्रेजी भाषा में बड़ा नाम पैदा किया है। बरेली कालिज से शिक्षा पूरी करके मैं इंजीनियरिंग कालिज रूड़की गया। वहां भी परीक्षा में फर्स्ट क्लास फर्स्ट पास होने के अलावा अंग्रेजी में बहुत ज्यादा नंबर पाए। मगर नतीजा यह हुआ कि कंपनी के इंजीनियरों में सिर्फ जमादार की पदवी पर नियुक्त किया गया, और वह भी एक गोरे की मातहती में जो सिवाय बेवकूफी और उजड्डपन के हर बात में मुझसे कहीं कम था और कालिज के दिनों से ही मुझे नापसंद था। अपने अंग्रेज होने के अभिमान में वह मुझे बात-बात पर झिड़कता था। जब यह हालात खत में लिखकर मैंने अपने वालिद साहब से इस्तीफा देने की इजाजत मांगी तो उन्होंने शाबाशी देते हुए जवाब में लिखा कि ’तुम शहंशाहों की नस्ल से हो। इन हालात में गोरे काफिरों की नौकरी मत करो।’ मैंने फौरन नौकरी छोड़ दी। घर चला गया और इरादा किया कि नसीरूद्दीन हैदर शाहे अवध की नौकरी करूं। लखनऊ पहुंचने पर पता चला कि नेपाल के महाराजा जंग बहादुर आजकल गोरखपुर में लखनऊ के खिलाफ तैयारी कर रहे हैं और विलायत जाना चाहते हैं। इस वजह से उन्हें एक धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलने वाले सेक्रेटरी की आवश्यकता है। मैंने दरख्वास्त दी जो मंजूर कर ली गई और मैं महाराजा के साथ पहली बार लंदन गया। वहां से हम लोग एडिनबर्ग भी गए जहां आपकी यही रेजीमेंट महाराजा के स्वागत को आई थी। उस समय मुझे न जाने क्यों ख्याल आया था कि एक दिन यही फौज मुझे गिरफ्तार करेगी। और देख लीजिए वही हुआ।
मिचेल साहब! वहां से लौटकर मैं कई राज-रजवाड़ों के यहां बड़े-बड़े सम्मानित पदों पर नियुक्त रहा हूं। अजीमुल्ला खां, जिसका नाम आपने गदर के संबंध में बहुत सुना होगा, ने मुझसे विलायत चलने को कहा। माधवराव पेशवा के बाद नाना साहब फड़नवीस ने उसे अपना मुख्य अधिकारी और राजदूत मनोनीत किया था। अजीमुल्ला मेरा सहपाठी था। उसने कानपुर के गवर्नमेंट स्कूल में मेरे साथ मास्टर गंगादीन जी से अंग्रेजी की शिक्षा खूब पाई थी। उसे पूरा विश्वास था कि मैं विलायत पहुंचकर लार्ड डलहौजी द्वारा लगाए गए इल्जाम नाना साहब के ऊपर से निरस्त करा लूंगा। लेकिन जैसा कि आप जानते हैं कि हम लोगों की मशक्कत तो बहुत हुई लेकिन अपने मकसद में हम पूरी तरह से असफल रहे, और पांच लाख रूपया बरबाद करके हम लोग 1885 में कुस्तुनतुनिया होते हुए हिंदुस्तान को रवाना हुए। कुस्तुनतुनिया से हम क्रीमिया गए जहां हमने देखा कि 18 जून 1855 को अंग्रेजी फौज ने हमला किया और बुरी तरह से पराजित हुई। सवास्टपोल के सामने दोनों फौजों की जर्जर हालत को देखकर हम बहुत प्रभावित हुए। युद्धस्थल से लौटकर जब हम लोग कुस्तुनतुनिया लौटे तो वहां हमसे कई रूसी अफसर मिले जिन्होंने कहा कि तुम हिंदुस्तान में आजादी के लिए अंग्रेजों से जंग करो। हम हर तरह से तुम्हारी सहायता करेंगे और इसी में तुम्हारी भलाई है।
मिचेल साहब! सच पूछो तो यहीं से मैंने और अजीमुल्ला खां ने पक्का इरादा बना लिया कि सरज़मीने हिंदुस्तान से कम्पनी का राज खत्म कर देंगे और मादरे-वतन के माथे से गुलामी का दाग धोकर रहेंगे, चाहे इसके लिए हमें अपनी जान ही क्यों न देनी पड़ जाए। और खुदा का लाख-लाख शुक्र व एहसान है कि हमें इसमें किसी हद तक कामयाबी भी मिली है क्योंकि उन हालात से, जो आपने बताए हैं, स्पष्ट हो गया है कि कंपनी का राज अब लगभग समाप्त होने को है। लेकिन अगर हम अंग्रेजों को अपने वतन से न भी निकाल सके तो भी हम समझते हैं कि हमने देश को काफी फायदा पहुंचाया है, और हमारी कुर्बानी बेफायदा नहीं गई है। क्योंकि मैं समझता हूं कि पार्लियामेंट की सरकार, अंग्रेजी शासकों से कहीं ज्यादा न्यायप्रिय होगी। हालांकि मैं उस समय जीवित नहीं होऊंगा, लेकिन मेरे दलित और संकटग्रस्त देशवासी आने वाले समय में ज्यादा अमन चैन, ज्यादा सम्मान से रह सकेंगे। सुनहरा भविष्य हर हाल में मेरे देशवासियों का स्वागत करेगा।
मिचेल साहब! आपने इस वक्त जो एहसान मेरे ऊपर किया, उसने मुझे आपके आगे झुका दिया है। वरना सच कहता हूं कि मुझे आपकी इस अंग्रेज जाति से हद से ज्यादा नफरत है। लेकिन आपकी हमदर्दी ने मुझे बहुत प्रभावित किया है। यह बात मैं आपकी खुशामद के लिए नहीं कह रहा हूं क्योंकि कल मेरी मौत निश्चित है, और आप चाह कर भी मेरी मदद नहीं कर सकते। वैसे भी हम हिंदुस्तानी मौत से नहीं डरते। मैं आपको बताना चाहता हूं कि अंग्रेजों से मुझे घृणा क्यों है।
अभी हाल ही में मैंने देखा कि आपके ही कर्नल नेपियर साहब इंजीनियर, कानपुर घाट पर हिदुओं के मंदिर गिरवा रहे थे। कुछ हिंदू पुजारी उनके पास मंदिर न तुड़वाने की प्रार्थना करने डरते-फिरते पहुंचे, लेकिन कर्नल नेपियर ने उनकी विनम्र प्रार्थना का जवाब उन्हें गालियां देते हुए दिया। उसने कहा कि सुनो हिंदुस्तानी कुत्तो! जब हमारी मेमो और बच्चों की सरेआम हत्याएं की गई थीं तो तुम लोग यहीं थे। क्या तुमने उन्हें बचाने की कोशिश की थी।
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अगर तुममें से कोई भी व्यक्ति यह साबित कर दे कि उस समय तुममें से किसी ने हमदर्दी का एक शब्द भी कहा था तो मैं मंदिरों को तुड़वाना रोक सकता हूं। अगर नहीं, तो अभी मेरी नजरों से दूर हो जाओ, वरना…….। बेचारे निरीह और असहाय पुजारी अपने दिल पर पत्थर रखकर वहां से हट गए। यह दृश्य देखकर मैं अपना कलेजा मसोस कर रह गया, और वहां से चला आया। जिस समय कानपुर में गदर हुआ, मैं रोहेलखंड में था। मैं जानता था कि तूफान बस अब आने ही वाला है, इसलिए अपने घर और अपने गांव और बाल-बच्चों की रक्षा के विचार से अपने गांव चला गया था। मैं अभी गांव में ही था कि मेरठ और बरेली में गदर की खबर आई। मैं फौरन बरेली पहुंचकर रोहेला सरदार खान बहादुर खान की फौज में भर्ती हो गया। पहले इंजीनियर और फिर चीफ इंजीनियर के पद पर नियुक्त हुआ और कम्पनी के बागी हिंदुस्तानी इंजीनियरों की सहायता से, जिन्होंने रूड़की से मेरठ जाते समय बगावत की थी, किलों और पुलों इत्यादि को मजबूत करने लगा। फिर मैंने इधर-उधर बिखरे हुए अपने आदमी समेटे और लखनऊ की ओर कूच किया। जमुना का पुल टूटा होने की वजह से हमें मथुरा में रूकना पड़ा। जब मैंने दोबारा पुल बना दिया तो फौज फिर लखनऊ की तरफ बढ़ी। उस समय भी फीरोजशाह और जनरल बख्त खां के पास लगभग तीस हजार फौज थी। नवंबर में जब आपकी फौज ने लखनऊ की रेजीडेंसी को बचाया तो मैं वहीं था।
सिकंदरा बाग, लखनऊ का मोर्चा मेरी ही कमान में था और मैंने वहां तीन हजार से अधिक आदमी लगाए थे। बड़ा घमासान युद्ध हुआ। हमारा एक भी आदमी नहीं बचा। मेरी फौज के जवान एक-एक करके शहीद होते रहे, लेकिन क्या मजाल कि किसी ने भी कदम पीछे हटाया हो। इतनी कुर्बानियों के बाद भी जब मैंने देखा कि जहां मैंने अपनी फौज का हरा झंडा लगवाया था, वहां अब घाघरा पलटन का झंडा (यूनियन जैक) लहरा रहा है तो मेरा जिगर पानी-पानी हो गया। जब मुझे विश्वास हो गया कि अब बचने का कोई रास्ता नहीं तो मैंने तोपों को सर करने का आदेश दे दिया।
इसके बाद मैं बराबर लखनऊ और आसपास के किलों बुर्जों की मरम्मत और मजबूती करवाता रहा। आप जाकर देखेंगे कि अगर सिपाही और गोलन्दाजों को उनके पीछे कदम जमाने का मौका मिल जाए तो अंग्रेजों की बहुत-सी फौज काम आ जाएगी तब कहीं जाकर लखनऊ हाथ आएगा।
इतना कह कर मुहम्मद अली खां बैठ गया। थोड़ा खाना खाकर पानी पिया। मैंने (मिचेल ने) पूछा, ’यह तुम्हारा साथी वही है जिसने नाना साहब के आदेश पर मेमो और बच्चों की नृशंस हत्याएं की थीं?
मुहम्मद अली खां ने जवाब दिया, हां, यही है।
मैंने पूछा, यह अफवाह कहां तक सही है कि पहले मेमो के साथ बलात्कार किया गया फिर उन्हें तड़पा-तड़पा कर मारा गया? इस पर मुहम्मद अली खां के चेहरे पर बेबसी और गुस्से के मिले-जुले भाव उभरे, और वह एक तरह से जोशीले स्वर में कहने लगा:
हम हिंदुस्तानी और आप एक दूसरे के लिए अजनबी हैं साहब! वरना ऐसी बात आप जुबान पर भी नहीं लाते। जो आदमी हमारी संस्कृति, हमारे नैतिक मूल्यों और रस्मो-रिवाज के बारे में थोड़ा-सा भी जानता है वह ऐसी बातों पर कभी विश्वास नहीं करेगा। यह सब मनगढ़ंत कहानियां हैं जो हमारे खिलाफ नफरत भड़काने के लिए फैलाई गई हैं। हां, यह सही है कि औरतें और बच्चे भी इस गदर में मारे गए हैं लेकिन किसी के साथ ऐसा कुकर्म नहीं किया गया है। इस तरह की जितनी भी खबरें हिंदुस्तान और इंग्लैण्ड के अखबारों में लिखी गई हैं, सब झूठी हैं। क्रांतिकारियों को बदनाम करने के लिए यहां तक प्रपंच रचा गया कि बंगलों की दीवारों पर यह जो लिखा हुआ मिलता है कि ’हम वहषियों के हाथ में हैं, इन्होंने बूढ़ी जवान औरतों और बच्चों तक को अपमानित किया है–सब एक सुनियोजित शड्यंत्र है। ये सारे वाक्य जनरल सर हेनरी हैवलाक और जनरल सर जेम्स ओट्राम के कानपुर फतह करने के बाद लिखाए गए हैं। हालांकि मैं वहां नहीं था लेकिन जो लोग वहां मौजूद थे उन्होंने मुझे यह बातें बताई हैं और मैं जानता हूं कि सच्चाई यही है।
फिर मैंने एक और सवाल किया कि नाना साहब ने इतना रक्तपात क्यों कराया? उसने बड़े शांत भाव से जवाब दिया:
हम हिंदुस्तानी बुनियादी तौर पर अपनी मुहब्बत और अपनी नफरत दोनों में ही बहुत खरे होते हैं। दूसरे शब्दों में चाहे तो कहें कि अतिवादी होते हैं। या तो सिर्फ मुहब्बत, या सिर्फ नफरत। इन दोनों के बीच की स्थिति हमारे यहां दोगलापन कहलाती है, और यह शब्द हमारे यहां एक मोटी गाली के रूप में ही किसी को दिया जाता है। और फिर यह कांटे जो आपके उस कहर की, जो बरसों से आप हम पर ढाते चले आ रहे हैं। और नाना राव भी आखिर एक हिंदुस्तानी हैं। फिर इसके अलावा एक कारण और भी तो था, और वह भी एक औरत, जिसे वह अंग्रेजों की गुलामी से आजाद करा कर अपने निवास में ले आया था, वह अंग्रेजों से इतनी नफरत करती थी कि उनकी सूरत तक नहीं देखती थी। आप समझ सकते हैं कि अंग्रेजों ने उसके साथ क्या-क्या नहीं किया होगा जिसे वह कभी भुला नहीं पाई। इस औरत का जिक्र उन गवाहों ने भी किया है जो कानपुर हत्याकांड केस के संबंध में सुने गए हैं। नाना साहब के साथ एक आदमी और है, मेरा दोस्त अजीमुल्ला खां। उसे भी अंग्रेजों से खुदा वास्ते का बैर है। हालांकि एक बार मेरे सामने ही हमारे जनरल तात्यां टोपे और नाना साहब में इस मामले को लेकर कहा-सुनी भी हो गई थी।
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इसके बाद मैंने पूछा, इस अफवाह की क्या हकीकत है कि जनरल व्हीलर की बेटी अपने रिवाल्वर से चार-पांच आदमियों को मार कानपुर के प्रसिद्ध कुएं में कूद गई?
उसने हंस कर जवाब दिया: यह सब कोरी गप्पें हैं। इनकी कोई बुनियाद नहीं। जनरल व्हीलर की बेटी आज भी जिंदा है और मुसलमान होकर उस नौजवान से शादी कर चुकी है जिसने उसकी जान बचाई थी। आजकल वे दोनों पति-पत्नी के रूप में लखनऊ में रह रहे हैं।
इस तरह की बातों में रात बीत गई। सुबह को मैंने मुहम्मद अली को नमाज पढ़ने की इजाजत दे दी। नमाज पढ़ने के बाद उसने मेरे लिए दुआ मांगी, या अल्लाह, इस शख्स को जिसने तेरे मजलूम बंदे पर एहसान किए हैं उसे जजाए खैर दे।
नमाज पढ़ने के बाद मैंने मुहम्मद अली खां को कुछ उदास देखा तो पूछा, क्या बात है? बाल-बच्चों की याद आ रही है?
वह कहने लगा: हां, घर के अलावा मेरी उदासी का एक बहुत बड़ा कारण यह भी है कि मैं अपने मकसद में कामयाब न हो सका। एक पाकीजा तमन्ना मेरे सीने में ही घुट कर रह गई कि एक नजर ही सही आजादी की सुबह का दीदार मैं भी कर पाता तो कितना अच्छा होता। लेकिन नहीं। आप मुझे कमजोर न समझें। मैंने इंग्लिस्तान और फ्रांस का इतिहास पढ़ा है, और अच्छी तरह से जानता हूं कि आजादी के मतवालों की आखिरी मंजिल शहादत ही होती है।
यह कहकर उसने सोने की एक अंगूठी, जो अपने बालों में छिपा रखी थी, निकालकर मुझे देते हुए कहा: मेरे पास तोहफे में देने के लिए कुछ भी नहीं। जो था वह सब बिक चला। हालांकि वैसे इस अंगूठी की कोई कीमत आपको नजर नहीं आएगी लेकिन जब आप इसे पहनेंगे तो आपको इसके अनमोल होने का एहसास होगा। यह अंगूठी मुझे कुस्तुनतुनिया के एक फकीर ने दी थी और इसे मैं अपनी जान से ज्यादा संभाल कर रखता था। आप मेरी तरफ से एक मामूली भेंट समझकर स्वीकार कर लीजिए। मेरी दुआ है कि किसी भी लड़ाई में आपको कोई तकलीफ नहीं पहुंचेगी।
थोड़ी देर बाद गार्ड उन दोनों को लेने आ गए और मैंने न चाहते हुए भी उन्हें विदा किया……
सबेरे ही फौज की कूच का आदेश मिल गया। मेरी कंपनी को सबसे बाद में आने का आदेश था। कानपुर से लखनऊ जाने वाली सड़क पर हमने देखा कि जैमिग्रीन और उसके साथी की लाशें एक बड़े पेड़ पर लटकी हुई थीं। मैं कांप कर रह गया और मेरे आंसू टपक पड़े।
जैमिग्रीन की अंगूठी आज भी मेरे पास है और जब से आज तक बड़ी-बड़ी लड़ाइयों में मेरा बाल-बांका नहीं हुआ है। मैं सोचता हूं कि मरते वक्त जब यह अंगूठी अपने बच्चों को दूंगा तो उन्हें जैमिग्रीन की शौर्य गाथा भी जरूर बताऊंगा।
फोरबेस मिचेल का यह रोजनामचा पढ़कर मेरे भीतर बहुत खामोशी है। एक सन्नाटे ने जैसे पूरी चेतना को अपनी गिरफ्त में ले लिया है और उससे निकल पाना मेरे लिए कठिन हो रहा है। क्या मैं मिचेल के परिवार का पता करके जैमिग्रीन की अंतिम निशानी वह अंगूठी अपने देश वापस ला सकता हूं।
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मेरे सामने मार्च 1858 का जैमिग्रीन की फांसी के पंद्रह-बीस दिनों के बाद का लखनऊ का एक चित्र है। बेहद उदास कुछ इमारतों के मध्य दूर तक दिखाई पड़ती सूनी सड़क जिस पर चार-पांच खामोश आदमियों की आकृतियां नजर आ रही हैं। इसमें क्रांतिकारियों के पतन के बाद का नजारा है जिसे देख पाना नितांत कठिन है मेरे लिए। दुख है कि मौत के मुहाने से इस युवा जैमिग्रीन का दिया गया पैगाम देशवासियों ने पढ़ने की जहमत नहीं की जिसमें उसने साहस के साथ अपने क्रांतिकारी चरित्र को अभिव्यक्ति दी थी।
उसने बार-बार भारतीय संस्कृति के उच्च आदर्शों को स्मरण करने के साथ ही दलितों और संकटग्रस्त देशवासियों के लिए उस जमाने में सम्भवतः पहला संदेश भेजने का इकलौता साहस किया था। और वह अंग्रेज अधिकारी फारबेस मिचेल भी बार-बार मेरी आंखों के सामने आ खड़ा होता है जिसने कुछ लम्हों ही सही, सत्तावनी क्रांति के फांसी चढ़ने जा रहे एक नौजवान क्रांतिकारी के प्रति अपनी सदाशयता ही नहीं प्रदर्शित की, बल्कि उसकी क्रांतिकथा को कागज पर उतार कर हमारे लिए एक गर्व करने योग्य थाती सौंप दी।
हम मिचेल के जरिए ही जैमिग्रीन की विप्लवी गाथा से परिचित हो पाए। वह 16 फरवरी 1858 का दिन था जब जैमिग्रीन को फांसी पर लटकाया गया। सत्तावनी क्रांति के इतिहास का यह एक जरूरी अध्याय है जिसे प्रायः विस्मृत कर दिया गया।
लेखक: सुधीर विद्यार्थी
(लेखक भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन के ऐतिहासिक दस्तावेजों के संग्रहण, संपादन एवं विशिष्ट लेखन के लिए देश भर में प्रख्यात हैं)