Holi Special: उमंग और उल्लास के समंदर में नहाना तो चले आओ हाड़ौती के “न्हाण”
कीजिए हाड़ौती के सतरंगी लोकोत्सव "न्हाण" की शब्द यात्रा
न्हाण… न्हाण का अर्थ है नहाना। सामूहिक स्नान। चूंकि यह लोक पर्व होली के पश्चात मनाया जाता है- इसलिए कह सकते हैं – रंगो में नहाना। किन्तु न्हाण लोकात्सव को रंगो में नहाना कहना इसकी व्यापकता को कम करना होगा। कहना चाहिए न्हाण का अर्थ है – उमंग और उल्लास में नहाना। न्हाण राजस्थान के हाडौती अंचल के कई गांवों कस्बो में मनाया जाता है। सबको जानना, सूची बद्ध करना कठिन काम है तथापि कुछ जगहों के नाम गिनाने हों तो कहा जा सकता है – जैसे अन्ता, मिर्जापुर, मोईकलां, बपावरकलां, आदि। लेकिन इन सब में – सबसे ज्यादा मशहूर है – सांगोद का “न्हाण“।
दिल्ली मुम्बई बड़ी रेल्वे लाईन पर स्थित कोटा शहर से लगभग 60 किमी दूर चम्बल की सहायक नदी है – कालीसिंध और कालीसिंध की सहायक नदी है – ‘उजाड़’ (अन्नपूर्णा ) इसी उजाड़ नदी के के उत्तरी किनारे पर स्थित सांगोद, कोटा जिले का एक प्रमुख कस्बा है। इसके दूसरे छोर पर यानि दक्षिण में कुछ ही दूर, कालीसिंध की एक और सहायक नदी परवन बहती है। सांगोद के न्हाण के बारे में जब भी बात शुरू हुई, ‘यह अद्भुत है,’ यह कहकर शुरू हुई और बात का अंत इस निष्कर्ष से हुआ कि कितना भी कहो – न्हाण कहने में नहीं आता यह देखने और अनुभव करने से ताल्लुक रखता है।’
अगर कोई पूछे कि – ‘ऐसा क्या है न्हाण में ?’ तो कहा जायेगा – ‘ये मत पूछो कि न्हाण क्या है और क्या क्या है न्हाण में, ये पूछो कि क्या नहीं है न्हाण में। लोक है – परलोक है। जीवन है, जीवन का जीवंत खेल है। जीवन का उल्लास है, प्रवाह है। आना है – जाना है, घूमना फिरना है, खाना-पीना है। नाचना-गाना है। स्वांग है – स्वरूप है। अभिनय है – नाटक है। खेल है, तमाशा है। किस्सा है – कहानी है। गीत है – कविता है। गाड़ी है, घोड़ा है, ऊंट है, हाथी है, गधा है, बादशाह है, उमराव हैं, बच्चे हैं – बूढ़े हैं – जवान हैं। औरतें हैं – आदमी हैं। हिजड़े हैं, दिलजले हैं मनचले हैं, मजनू है – लैला है, आशिक है – माशूक है। सरकारी अमला है, साधू है, फकीर है, हकीम है, बैद है, रोगी है, दवा है, दवाखाना है। पुलिस है – सिपाही है – थाना है। तन्त्र है, मन्त्र है, मूठ है, मारण है, अफसर है। नौकर है, मुनीम है, गुमाश्ता है, सेठ है, सेठानी है। बिल क्लिंटन है, ट्रम्प है, मोदी है। मनमोहन है, सोनिया है, राहुल है, रामदेव है, अमित शाह है, सलमान है, शाहरूख है, केटरीना है, करिश्मा है, कंगना है, ऋत्विक है, मुन्ना भाई है, अक्षय कुमार है। हिन्दुस्तानी सैनिक है – पाकिस्तानी सिपाही है। दुर्गा है भवानी है, भारत माता है। कहाँ तक गिनाएँ, कहने में नहीं आता है। जो नहीं है, जो नहीं हुआ – वह हो सकता है, उसकी कल्पना है, सम्भावना है, नहीं है तो न्हाण के पास बस महाभारतकार जैसा दावा नहीं है-
‘धर्मेच अर्थेच कामेच मोक्षेच भरतर्षभ
यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत क्वचित।’
होली जलने के बाद धुलेंडी, और धुलेंडी के अगले दिन से पाँच दिन तक चलने वाले इस लोकपर्व का सांस्कृतिक, समाजशास्त्रीय, ऐतिहासिक, मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया जाए तो कई महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। लेकिन प्रकटतः जो सामान्य तथ्य सामने आते हैं उनका जिक्र करें तो कह सकते हैं कि – यह पाँच दिवसीय कार्यक्रम किसी कस्बे की ऐतिहासिक, सांस्कृतिक लोक परम्परा को संरक्षित, सवंर्धित करने का महत्वपूर्ण सामाजिक उपक्रम है। बगैर किसी औपचारिक, सरकारी संगठन के निर्देशन, नियन्त्रण व सहायता के होने वाले इस लोकोत्सव मे सांगोद के लोग धर्म, जाति, हैसियत का भेद भुलाकर पूरे उल्लास से सम्मिलित होते हैं। इस दौरान न केवल सांगोद और सांगोद के आसपास के गाँवों के बल्कि दूर-दूर तक के लोग अपने परिचितों परिजनों के यहाँ आकर मेले और मेहमान नवाजी का मजा लेते हैं। यहीं खाना-पीना और न्हाण का आनन्द लेना। इसी दौरान कई जातीय, पारिवारिक रिश्तेदारियों के मसलों का निराकरण भी हो जाता है। कई शादी विवाह के रिश्ते भी न्हाण के दौरान तय हो जाते हैं। सांगोद के न्हाण के बारे में कुछ कहने से पहले सांगोद के ही दिवंगत जनकवि सूरजमल विजय की कविता की दो पंक्तियां स्मरण हो आती हैं- यो न्हाण तमासो मत समझो पुरखां की अमर निसाणी छै ।।
घूघरी की कहानी
वैसे तो न्हाण की तैयारियाँ, होली जलने के पन्द्रह दिन पहले अमावस्या को, जब दोनों दल सोरसन जाकर ब्रह्माणी माताजी की पूजा अर्चना करते हैं, उसी दिन से शुरू होने लग जाती है। लेकिन असल न्हाण शुरू होता है दोज यानि फाल्गुन की द्वितीया से फाल्गुन की पूर्णिमा को होली जलती है। अगले दिन (पड़वा) प्रतिपदा को रंग की होली खेलते हैं लोग। इसके बाद अगले दिन से होती है न्हाण की शुरूआत। दोज के दिन दोनों दल शाम के समय जुलूस बनाकर अलग अलग मार्ग से सांगोद स्थित ब्रह्माणी माता की पूजा करने जाते हैं। इस जुलूस को घूघरी का जुलूस कहते हैं। घूघरी उबाले हुऐ अनाज के दानों को कहा जाता है। जिसका प्रसाद वितरण जुलूस के समापन पर किया जाता है।
और टूट जाती हैं सारी बंदिशें
कस्बे के दोनों दलों के विभिन्न मार्गों से गुजरने वाले इस जुलूस में, अखाड़े के स्थानीय कलाकार व बाहर से आये हुए किन्नर, बैंड-बाजों पर बजाई जाने वाली लोकगीतों की धुनों पर नृत्य करते चलते हैं। नाथ्या पंडा वगैरा, इस जुलूस में नगर के नए पुराने लफंदड इकठ्ठे होकर खूब हो-हल्ला मचाते हैं। जो मन मर्जी आए बोलते बकते हैं। श्लील-अश्लील की कोई बंदिश नहीं रहती। गालियांँ, गन्दे फिकरे, नारों की तर्ज में गूँजते हैं। मुँह में कलांई ठूँस कर इशारे करते हुए कामोत्तेजक बकरे की आवाज निकालते हैं। जिसे बोकड़ा बोलना कहते हैं। किसी व्यक्ति के लिए कुछ भी कहने की इतनी छूट का ऐसा दुर्लभ अवसर शायद ही कभी, कहीं होता होगा, जैसा घूघरी के जूलूस में होता है। सबसे अधिक गाली अभिनन्दन उसी का किया जाता है, जिसके घर के आगे से ये जूलूस निकलता है। उसका, उसके परिवारवालों के नाम जाति आदि का उल्लेख करते हुए।
जो वर्जित है वही चर्चित है
इस घूघरी के जूलूस में जो वर्जित है वो ही सबसे ज्यादा चर्चित होता है। आड़े दिन आम चर्चा में भद्रजन इस जुलूस की भर्त्सना करते हैं लेकिन जब घूघरी का जुलूस निकलता है तो इतनी भीड़ रहती है देखने वालों की कि पूछिए मत। भद्रजन अपनी दुकानों के थडों, मकानों की चबूतरियों पर बैठे या खड़े रहते हैं। पूरे गाँव की भीड़, बूढ़े बच्चे, स्त्री-पुरुष, अमीर-गरीब सब उस समय बाजार के उस रास्ते पर, दुकानों के थडों, चबूतरियों पर जहां जगह मिले बैठकर या खड़े रहकर घूघरी का जूलूस देखते हैं। कुछ लोग जूलूस में शामिल भी हो जाते हैं। चलते फिरते हंसी- मजाक, खिलखिलाहट, चुहल, फिकरे सब कुछ चलता रहता है, घूघरी के जूलूस में लगते नारों के शोर के साथ। बिना किसी सीमा, मर्यादा, वर्जना और नाराजगी के ऐसा मुक्त-उन्मुक्त ही नहीं उन्मत्त प्रसंग प्रकटतः सार्वजनिक रूप से हमारे सभ्य और शिक्षित समाज में शायद ही अन्यत्र कहीं होता हो।
सवारियों की दी जाती है पेशगी
भद्र परिवार की महिलाएं भी बाल्कनियों, छज्जों, रोसों, खिडकियों मे से छिप-छिपकर देखती हैं। अपनी उस हँसी को दाँतों में पल्लू ठूँसकर रोकने की कोशिश करती हुई जो सिहरन पैदा करती हुई। उनकी देह पर लहरों की तरह तैरती रहती है। ज्ञानी, ध्यानी, मनोविज्ञानी समाजशास्त्री, इस कृत्य और वृत्ति की अलग अलग व्याख्याएँ करते पाए जाते हैं। घूघरी का प्रसाद वितरण हो जाने के बाद बाजार के अखाड़े का पटेल बादशाह की मौजूदगी में आने वाले दिनों में निकलने वाली सवारी में स्वांग रचने वाले कलाकारों को पेशगी देकर पक्का करते हैं। जिसे साई देना कहते हैं। रीछ, मदारी, गुलची, ईरानी, फकीर, सांट्या, डाकन जैसे एकल स्वांगों की साई रूपया दो रूपया और शूरा (शूरवीर) भाणमती, सेठ सेठानी, चारण-चारणी, बादशाह जैसे महत्वपूर्ण और पारम्परिक स्वांगों की अधिकतम साई पांच रूपया।
लटकने लगती हैं लागें
स्थानीय, प्रान्तीय से लेकर राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय विषयों घटनाओं के स्वांग या झांकियाँ सजाने वालों की साई इनकी अहमियत के मुताबिक दी जाती है। यह काम खाडे वाले पंडत के दिन करते हैं। न्हाण के अवसर पर आस-पास दूर दराज के मेहमान दर्शक यहाँ आते हैं। उनके स्वागत सम्मान की तैयारियों में लोग अपने घरों को लीप पोतकर रंग रोगन करके संवारते हैं। नगर में कौतुक प्रदर्शन शुरू हो जाते हैं। प्रमुख चैरोहों, रास्तों गलियों के मुहानों पर कच्चे सूत पर, मिर्च पर, चाकू की नोक पर, घड़ा, घट्टी ( चक्की ) का पाट, बैलगाड़ी का पहिया जैसे भारी सामान लटका दिये जाते हैं – इन्हे लागें कहा जाता है।
सूरवीर सांगा का संस्मरण
घूघरी के अगले दिन बारह भाले की सवारी निकलती है। बारह भालों की सवारी को बारह भाइलों की सवारी भी कहते हैं। इसका भी एक वृत्तान्त है- खाडे के न्हा ा के कलाकार बृजमोहन अरविन्द ने जो वृत्तान्त उपलब्ध कराया उसके अनुसार सांगोद के न्हाण ओर सांगोद के इतिहास की मूल कथा एक ही है। सांगोद के इतिहास की कथा का नायक सांगा पटेल है। राजस्थानी के लोक कवि जगन्नाथ गोचर ने सांगा के युद्ध और उत्सर्ग का वर्णन करते हुए सांगोद के बसने का एक काव्यात्मक आख्यान भी रचा है- जो बहुत रोचक है। बस्ती की गलियों, बाजार के बीच हो रहे इस युद्ध का पारम्परिक शैली में जो वर्णन किया गया है उससे हाडौती के ही लोक युद्ध काव्य (पृथ्वीराज का कड़ा) के साथ ही आल्हा दल का भी स्मरण हो आता है। विस्तार भय से पूरा वृत्तान्त यहाँ देने से बच रहे हैं। उस
युद्ध के दौरान दुश्मनों ने धोखे से सांगा का सिर काट दिया। सांगा का सिर कट जाने पर उसका रूड (धड़) लड़ता रहा। सांगा का सिर आज भी प्रतिमा के रूप में सांगोद में पूजा जाता है। इस युद्ध विषयक कविता के अंत में इस घटना की तारीख का भी उल्लेख किया गया है। बताया गया है कि यह विक्रमी सम्वत सौलह सौ सौलह की चैत्र बुदी (कृष्ण) पंचमी का दिन था। जिसे रंग पंचमी कहते हैं। इस दिन वार शुक्रवार था।
सांगा का गढ़ बना सांगोद
युद्ध के बाद आस पास के बारह खेडों के सरदार अपने-अपने खेड़े उजाड़ कर यहाँ आ बसे। अमर शहीद सांगा के नाम पर इस खेडे का नाम रखा गया सांगोद। उन्हीं की स्मृति में बारह भालों या भायलों की सवारी ओर तेहरवां अमर शहीदी निशान सांगा का रंग पंचमी के दिन निकाला जाने लगा। घूघरी के अगले दिन निकलने वाली बारह भालों या भायलों की सवारी यूँ तो तीसरे पहर शुरू होती है लेकिन कई स्वांग सुबह से ही अपने स्वरूप में आकर गली बाजारों चोराहों पर घूमने लगते हैं। ओघड़ का स्वांग सुबह से ही स्कूलों में पहुंच कर छुट्टी की घंटी बजा देता है। दफ्तरों में चला जाता है। छुट्टी करो। कर्मचारी तो तैयार ही बैठे रहते हैं। कुछ तो पहले से ही बाकायदा अर्जी देकर छुट्टी ले ले लेते हैं।
रसिकों की मौज
कोई शराबी कोई फकीर। टोकरी, झाडू और खाट का बान मछली पकडने के जाल की तरह लेकर सफाई कर्मियों का स्वांग बनाए एक टोली गुजरने वाले किसी भी भद्र पुरूष को कचरा स्नान करा देती है। स्वेच्छा से अभिनेत्रियों, माॅडलों, आधुनिक या पारम्परिक सुन्दरियों का स्वांग धरे कमसिन लडकों के पीछे-पीछे मनचलों की टोली भी घूमती रहती है। रसिकों की मौज है। ये सारे स्वांग बारह भालों की सवारी में सम्मिलित हो जाते हैं। बारह भालों की सवारी में विचित्र स्वागों के अलावा चर्चित स्थानीय घटनाओं से लेकर अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओं, विषयों, व्यक्तियों से संबधित
झाकियाँ भी निकाली जाती हैं। कोई अंतरजातीय या असामान्य प्रेम – प्रंसग। नगर पालिका, तालुक, जिला पंचायत या राज्य का कोई विषय। कुछ भी हो सकता है। बिल क्लिंटन, मोराजी देसाई, मुशर्रफ, सोनिया गाँधी किसी को भी लेकर कोई भी झाँकी, हास्य-व्यंग्य की छबि बनाई जा सकती है। ये झाँकियाँ तत्कालीन समय की विसंगतियों को उजागर करती हैं। एक बार तो अन्ना हजारे के आन्दोलन की भी झाँकी निकाली गई। कहना न होगा कि लोकोत्सव की परम्परा अपने आप को समाकालीनता से भी अपडेट करती रहती है। स्वांग जो चलते रहते हैं वो आपस में संवाद भी करते रहते हैं।
सेठ-सेठानी का जवाब नहीं
दर्शकों की भीड़ को भी निशाना बनाते रहते हैं। उदारहण के लिए सेठ सेठानी और मुनीम के स्वांग में सेठ अपने मुनीम से पूछता है-
सेठ “कोटा री दुकान में, बम्बई री दुकान में, कलकत्ता री दुकान में, दिल्ली री दुकान में, रूई चारा, अलसी रा, गेहूं रा, सरसों रा ,व्यापार में – मुनीम जी घाटो है या बाधो?”
मुनीम “सेठ जी! कोटा री दुकान में, बम्बई री दुकान में, कलकत्ता री दुकान में, दिल्ली री दुकान में,
रूई, चा रा, अलसी रा, गेहूँ रा, सरसों रा व्यापार में, घाटो ही घाटो।“
सेठ (सेठानी से) “क्यूँ सेठाणी जी! यो मुनीम रो बच्चो कांई कहैवे है?
सेठानी “सेठ जी, मुनीम साँची कहैवे (दर्शकों की ओर मुखातिब होकर) अजी साब, सेठ साब तो रात दिन रंड्यां के यहाँ पड्या रहवै छै। म्हारो अर म्हारी नीचे री दुकान रो खर्चो तो मुनीम साब ही चलावे है।’’
कहना न होगा की पुरूष दर्शक इन द्विअर्थी संवादों को सुनकर लोट-पोट हो जाते हैं और स्त्रियाँ अपने मुँह में पल्लू ठूँस कर हँसती हैं। रही सही कसर, सेठानी का स्वांग करने वाला पात्र, नीचे की दुकान का इशारा अपना घाघरा उछाल करके पूरी करता है। लेकिन हम समझ सकते हैं कि असली इशारा किस सामाजिक विसंगति की तरफ होता है।
बेजोड़ झांकियां
इसी तरह ऊंट पर बैठे चारण-चारणी के स्वांग में चारण, अपनी परम सुन्दरी चारणी को इंगित कर के कई भक्ति, नीति और श्रृंगार के कवित्त सुनाते हैं। कई कवित्त कवि वृन्द, गंग, विक्रम बैताल के हैं। कई स्थानीय रचनाकारों, स्वयं कलाकारों के स्वरचित भी होते हैं। हेर फेर अदल बदल नवाचार तो सहज संभव है-जो होता रहता है। कवित्त बतौर बानगी प्रस्तुत है-
“शशि बिन सूनो गगन, ज्ञान बिन हृदय सूनो, कुल सूनो पुत्र बिन, पात बिन तरवर सूनो, गज सूनो दन्त बिन, हंस बिन सरवर सूनो, घटा बिन सूनी दामिनी, बैताल कहे विक्रम सुनो, घर सूनो बिन कामनी...!!!”
जीवंत हो उठता है किन्नर लोक
कई स्वांग और झाँकियों के बाद सवारी में लम्बी कतार होती है – सजे धजे घोड़ों पर बैठे उमरावों की। राजसी वेश, सिर पर पगडी, कलंगी, सरपेच, लटकन, रेशमी जरीदार अचकन, चूड़ीदार पाजामा, गले में माला, बगल में तलवार, हाथ में कटार और रूमाल। मुँह मे पान। ठुमकती नाचती घोड़ी के आगे बै ड बाजा और किन्नरों का नृत्य। दूर दूर से किन्नर आते हैं यहाँ। कोलकता तक से। सांगोद की ब्रह्माणी माता के प्रति किन्नरों में बड़ी आस्था है। सांगोद का किन्नरो से एक अनुरागात्मक सम्बन्ध है। बिन बुलाए भी आते, इकट्ठे होते हैं किन्नर। कोई कार्यक्रम तय हो जाए नाचने का – तो भी, न हो तो भी। न्हाण में तन्मय होकर नाचते हैं। न्हाण के बाद लोगों से इनाम माँगते हैं। जो मिल जाए उसे सिर माथे लगाकर खुश होते हैं। सबसे आखिरी में होते हैं बारह खेड़ों के बारह भालों के निशान और वीर सांगा का अमर शहीदी निशान। ये सवारी निर्धारित मार्ग से होकर अपने गन्तव्य पर पहुँच जाती है और विसर्जित हो जाती है।
रात का न्हाण
बारह भालों की सवारी के बाद कुछ देर का अन्तराल होता है। भीड़ थोड़ी कम हो जाती है लेकिन बाजार में चहल-पहल, गहमागहमी जारी रहती है। लोग अपने-अपने ठिकानों, घरों से भोजनादि से निवृत्त होकर रात भर होने वाले तमाशे, जादू-टोने के करतब देखने के लिए खाडे वाले खाडे में और बाजार वाले बाजार में आने लगते हैं। कुछ देर पहले जो भीड़ जादू की तरह गायब हुई थी वही किसी करिश्मे की तरह वापस आ जुटती है। बाजार की गलियाँ गुलजार हो जाती हैं। रात के न्हाण का कार्यक्रम बाजार वालों का लक्ष्मी नारायण चौक में होता है जो मुख्य बाजार वाले रास्ते पर है। मन्दिर के चबूतरे पर मंच सजाया जाता है जिस पर खेल दिखाने वाले आ आकर अपनी कला और कौशल का प्रदर्शन करते हैं।
बड का किस्सा
रात का न्हाण चलता रहता है। इस दौरान मूँगफली, पकौड़ियों तथा चाय पानी, नाश्ते की दूसरी खाने पीने की चीजों के ठेले आस पास आ लगते हैं। बाजार की स्थाई दुकानें तो खुली ही रहती हैं। लोग जितनी देर मन होता है उतनी देर बैठे, खड़े खेल तमाशा देखते हैं। इधर उधर घूमते फिरते खाते-पीते तफरी करते रहते हैं। रात के न्हाण में स्त्रियों की संख्या अधिक नहीं होती। आसपास देहात, गाँव की वे स्त्रियाँ जो रात्रि के चैथे पहर, भोर से पहले तड़काव में, निकलने वाली भवानी की सवारियाँ देखने के लिए रुकी होती हैं, वे कहाँ जाएँ इसलिए खाडे में रामद्वारे की तरफ बैठी रहती हैं लेकिन उनकी वजह से मंच पर प्रदर्शित होने वाले कार्यक्रमों में कोई मर्यादा की बाधा नहीं होती। स्थानीय स्त्रियाँ आसपास के ऊंचे मकानों की छतों, बालकनियों, खिडकियों से अपनी मरजी और मर्यादा के मुताबिक देखती हैं या नहीं देखतीं हैं।
भिश्ती के आगे पानी भरती दुनिया
रात के तमाशे की शुरूआत भिश्ती के स्वांग से शुरू होती है। भिश्ती मिंया ईमाम खां है जो आते ही गाता है- सुरसत संवरूं आद भवानी गणपत देव मनाउं। तू ब्रह्माणी मात केसरी, चरणन सीस नवाउं मियां भिश्ती इमाम खां आया री। भिश्ती इमाम खां इसी तरह के गीतात्मक दोहों में अपनी मशक और अपने काम का वर्णन करता है। इसके बाद स्वांग आता है – चाचा बोहरा का। चाचा बोहरा एक अमीर अधेड़ कुंआरा है। वो आते ही अपना परिचय देता है। चाचा बोहरा एक मिश्रित चरित्र है। खुद अपने को मेवाड़ देश का कहता है- रहना मरू प्रदेश में बताता है और भाषा गुजराती अंदाज की बोलता है-
जय ब्रह्माणी माती की
दाउजी रो परताप ब्रह्माणी माता रो परताप कोई जाणे है कोई जाणे नथी
बारह बेटा फूल सा भाई सत्तर हजार ज्यां में बोहरो रूप रो जग पल रा दातार दाउजी रो परताप कोई जाणे नथी
इसी कवित्त में आगे कहता है- दासां रो दास कहाउं न्हाण अखाड़ा चैबे पाड़ा री ख्याती सूं,
दोड़यो थको अठे आयो हूँ
बेचबा रे खातिर बम्बई री दुकान सूं
सूना रा पांसा, चाँदी रा थाळ, सीप, कांच, सिलक बंजारा थान लायो हूँ गोलकु डा रा नग,
हीरा दिल्ली री दुकान सू लायो हूं
दिल्ली री दुकान सूं जरी पसमीना साड़ी दुपट्टा
दाख, बादाम, चिरोंजी, अखरोट, काजू री बोरियाँ लायो हूं,
कोटा री दुकान सूं बढिया उनियारी मसूरी साड़ी लायो हूं
जयपुर का हार बीकानेर को सुरमो मथुरा रो श्रृंगार जगदम्बा रे वास्ते मोखलो लायो हँू
सुपारी सैंकड़ा का देऊ लूंग सैकडा का ले उं अणी वास्ते कोई चिन्ता री बात नहीं
आपके च्हावे तो चिट्टी लिख दीज्यो
या आप ही पधारज्यो
न्हाण खाडा में ब्रह्माणी के देवरा पे स्वयं आज्यो
जय करणी माता री।
भांड़ों की अपनी मौज
इस दौरान चाचा बोहरा से हँसी मजाक चलती रहती है। भांड उसके चरित बिरदावली गाते रहते हैं। लोग उसका ब्याह कराने की जुगत करते हैं। मूसाला (माहेरा) लाते हैं। उसका भी गीत गाया जाता है। बारात में जाने वालों की लिस्ट बनाई जाती है। उसका मंच पर पाठ किया जाता है। यह भी सहज काव्य का नमूना है-
श्री गणेश जी संवर कर, ब्रह्माणी से शीश नवाय पानो बोरा की जान को नागर दियो बनाय
बोरा का ब्याव में बाज्या छ जोर का नगाड़ा तो जान में चालैगा
राजमल जी ढूंढारा राजमल जी ढूंढारा नै बड़ाई छै क्यारी
तो जान में चालैगा प्रभुजी पटवारी प्रभुजी पटवारी नै आयो छै बुखार तो जान में चालैगा
हरीश जी सुनार हरीश जी सुनार की छै ऊंची अटारी
तो जान में चालैगा अशोक जी भण्डारी अशोक जी भण्डारी कै फूटी छै थाळी तो जान में चालैगा मोहन जी माळी
और इस तरह गाँव के सभी मौतबिर खिलाड़ों, व्यक्तियों के नाम का पाना पढ़ा जाता है।
रात भर इसी तरह से स्वांग आते रहते हैं। थानेदार के स्वांग में पुलिस की कारगुजारी तथा सह ाा-बलाई के स्वांग में तहसील के कारिन्दो के कारनामें उजागर किये जाते हैं। हाली-हालन के स्वांग में श्रमिक वर्ग का चित्र होता है – अंधे देवर और भाभी का स्वांग। नाना-दोहिती के स्वांग मे बाल विवाह, बेमेल विवाह तथा पैसे लेकर लड़की बेचने की कुरीति पर कटाक्ष किया जाता है। चन्दा धोबन का स्वांग लम्पटों से संबधित हास्य प्रहसन है। भैरू जी का स्वांग अंधविश्वास के उपर व्यंग्य है। तो जोगी-जोगण का स्वांग ऐसा स्वांग है जिसमें लोक कलाकार खोई हुई राग सोरठ को तलाशते हैं इस स्वांग में गाए जाने वाले कवित्त गीत भी राग सोरठ में ही होते हैं।
सिर्फ यहीं मिलेगी “रांड्यों” की माता
इसी तमाशे में एक महत्वपूर्ण कार्यक्रम प्रस्तुत किया जाता है। ’’रांड्यों की माता ’’ जिसका वास्तविक अर्थ जो मैं समझ पाया वो है रांडयो की महत्ता। रांडया माने जनखा। आवश्यक नहीं कि जिस व्यक्ति का नाम इसमें हो वह हिजड़ा हो ही। यह एक तरह की गाली अपकीर्ति के प्रसंग में प्रयुक्त होता है। आसपास के जितने रांडये होते हैं उनके वास्तविक नाम गिनाए जाते हैं। हकीकत में यह ऐसे प्रभावी लोगों की सूची है जिन्होंने कोई अपकृत्य किया किन्तु उनकी दबंग हैसियत के चलते न तो कोई कारवाई होती है न कोई उन्हें कुछ कह पाता है किन्तु न्हाण में उन्हें सार्वजनिक मंच पर रांडया उपाधि से विभूषित किया जाता है। उनका नाम पढ़कर सुनाया जाता है। इसका एक रोचक किस्सा भी है। इस सूची में एक प्रतिष्ठित आदमी का नाम भी जुड़ गया। हालाँकि वह वास्तव में हिजड़ा नहीं था पर कहते हैं वो एक बार न्हाण में अपनी घोडी देने का कौल करके नट गया। समर्थ आदमी था क्या बिगाड़ लेते उसका इसीलिए उसे मजा चखाने के लिए उसका नाम रांड्यों की लिस्ट में जोड़ दिया। बाद में उसके वंशधरो ने नकद हर्जाना देकर, जमीन देकर अपने दादा का नाम रांड्यों की सूची में से कटवाना चाहा, पर न्हाण के खिलाड़ों ने ये पेशकश कबूल नहीं की और उसका नाम आज भी रांडयो की सूची में है। राड्यों की महत्ता में 26 गाँवों के लगभग 50 राड्यों का वर्णन है।
मंच पर मौजूद किन्नर एक से दूसरे कार्यक्रम के बीच में गेप होते ही नाचने लगते हैं। सारी रात पूरे गाँव के बाजार की, गलियों, चोराहों की दुकानें खुली रहती ही हैं। चाय, सेव, नमकीन, जलेबियों की खपत का अन्दाजा लगाना मुश्किल होता है। तेल के पीपों, शक्कर, मैदा, बेसन की बोरियों की संख्या जो बताई जाती है एकाएक उस पर बिना न्हाण देखे विश्वास नहीं होता। यह तमाशा रात भर चलता रहता है।
भवानी की सवारियाँ
रात के न्हाण के तमाशे के चलते रात दो बजे से चार बजे के बीच भीड़ एक बार फिर से गायब होती है लेकिन चार बजते-बजते फिर एक जादू सा होता है। मुख्य बाजार मे आने वाली संकरी गलियों से लोग, स्त्री पुरुष बूढे जवान बच्चे एकत्रित होने लगते हैं। थोड़ी सी देर में सभी जगहें भर जाती हैं। ब्रह्म मुर्हुत की इस बेला में भवानी की सवारियाँ निकाली जाती हैं। भवानी की सवारी में बनने वाले स्वरूपों की तैयारी रात्रि के पहले पहर से ही शुरू हो जाती है। आठ वर्ष से लेकर तेरह चैदह वर्ष की बालिकाओं को देवी के विभिन्न स्वरूपों में सजाया जाता है। इन्हें असली सोने-चाँदी व रत्नों से जडे आभूषणें से सजाया जाता है, जो यहाँ के धनी श्रेष्ठी वर्ग के घरों से आस्था और विश्वास के पर उपलब्ध कराया जाता है। एक कील काँटा भी इधर से उधर होने की बात आज तक सुनने में नहीं आई । भवानी की सवारी में देवी के अनेक स्वरूपों, काली-कंकाली, महिषासुर मर्दिनी, सरस्वती, लक्ष्मी, ब्रहमाणी, गजलक्ष्मी के अतिरिक्त शिव-पार्वती, विष्णु, गणेश, कालिया-मर्दन, भैरव आदि की भव्य झाँकियों के दर्शन, दर्शक श्रृद्धा भाव से करते हैं। इन सवारियों के साथ कई लागें भी होती हैं। जिन्हें घायले कहते हैं। गले, सीने, पेट, भुजा, जीभ, गाल पर चमडी छेद करके कीले या छुरियों को निकाला होता है। जिससें वातावरण और अधिक रोमांचक हो उठता है।
बादशाह की सवारी
अगला दिन बादशाह की सवारी का होता है। दिन के प्रथम पहर से ही स्वांग बाजार में आने शुरू हो जाते हैं। कई ओघड़ मानो श्मशान से उठकर सीधे आए हों। भैरू-झोली का स्वांग, मदारी काल बेलिया, सफाई वाले घूमते रहते हैं। साथ मे मजे लेते हुए, हुर्रे लगाते बच्चों नौजवानों की टोली। सभी स्वांग स्वयं की प्रेरणा और स्वयं के खर्चे से होते हैं। कई कम उम्र के नौजवान आधुनिक स्त्री रूप धारण कर शीला मुन्नी या चिकनी चमेली बनकर घूमते फिरते हैं। इनके चाहने वाले कई रसिक मनचले छलिए बनकर इनके साथ फिरते रहते हैं। न्हाण में मनचलों की बड़ी मौज रहती है। कौन किस मद मे मस्त रहता है, यह जानना मुश्किल होता है। शाम चार बजे के आसपास बादशाह की पालकी उठती है। इसमें जो दिनभर नगर में घूम रहे थे वो स्वांग तो रहते ही हैं और भी आकर सम्मिलित हो जाते हैं। जिनमें कालबेलिया, फकीर, सिंगीवाला, घूघरया भोपा, इत्र बेचने वाले, पागल, शिकारी, मदारी, कव्वाल, दूल्हा-दूलहन के साथ भानमती सूरा के स्वांग शामिल होते हैं। एक-एक का वर्णन किया जावे तो बहुत लम्बा वृत्तान्त हो सकता है।
एकल, युगल या सामूहिक स्वांगो के अतिरिक्त कई राजनैतिक, पौराणिक, ऐतिहासिक प्रंसगों यथा सीता-हरण, रावण-जटायु युद्व, रानी लक्ष्मीबाई, हाडी रानी की झाकियाँ भी सम्मिलित रहती हैं। ऊंट पर बैठे चारण-चारणी श्रृंगार नीति और रति प्रंसगो के कवित्त सुनाते चलते हैं।
दिखाते हैं हैरतंगेज करतब
उमरावों की लम्बी कतार कल ही की तरह अपनी शानो-शौकत के साथ सवारी की शोभा बढाती हैं। सबसे पीछे बादशाह। निर्धारित मार्ग पर होती हुई सवारी अपने गन्तव्य स्थान पर पहुँचती है। मुकाम पर पहुँचने के बाद उमराव बादशाह के सामने सलामी पेश करते हैं। करतब करने वाले कलाकार जान जोखिम में डालने वाले हैरत अंगेज करतब दिखाते हैं। जैसे तलवार निगलना, आग पर चलना, अंगारे खाना, जिन्दा सांप निगलना, नाक में कीला घुसा कर मुँह में से निकालना, फूलों के गुलदस्ते में दूर से आग लगा देना, सीने पर पत्थर तोड़ना, काँच चबाना, काँच पर नृत्य करना, जैसे करतब दिखाए जाते हैं। जिस कौतुक का सारी भीड़ बेसब्री से इन्तजार करती है वो है साठ फुट ऊंचे बुर्ज पर फिरना (घूमना) और दोनों हाथ छोड़ कर पेट के बल रस्से पर रिसकते हुऐ आना। अन्त में बादशाह सभी कलाकारों को ईनाम देता है। पटेल एवं कोटवाल को साफे बंधाए जाते हैं।
बादशाह की महफिल
रात्रि को बादशाह के निवास पर एक निजी महफिल होती है कहते हैं अब वैसी महफिल नहीं होती जैसी पहले होती थी। उस महफिल में सभी खिलाडे़, गाँव के ग यमान्य शौकीन लोग शामिल होते थे। बाहर से नाचने गाने वाली तवायफें बुलाई जाती थीं। अब बतौर रस्म अदायगी महफिल होती तो है लेकिन इसमें किन्नर और स्थानीय नचैये पारम्परिक एवं प्रचलित गानों पर नाच कर उपस्थित रसिकों को रिझाते हैं और उनकी जेबें हलकी करते हैं। बादशाह की महफिल न्हाण का आखिरी कार्यक्रम होता है।
क्षेपक कथा
रोजनामचे (रमतेराम की डायरी) में दर्ज बादशाह की महफिल होने को तो बादशाह की महफिल, बादशाह की सवारी के बाद दोनों बादशाहों की होती है लेकिन मुझे एक ही महफिल देखने सा सुयोग हुआ। संयोग से बादशाह की महफिल का वृत्तान्त मैंने अपने रोजनामचे में दर्जकर लिया वैसे ही जैसे ब्रह्माणी माताजी की यात्रा का वृत्तान्त दर्ज किया था। सो वही वृत्तान्त यथावत प्रस्तुत है- इससे पहले-काशीपुरी धर्मशाला में किन्नरों से मिलना हुआ। एक किन्नर जस्सी। अंग्रेजी बोलने में सक्षम है। मुम्बई से है। कान्वेन्ट शिक्षित। उसने बताया ’हमसफर’ जैसे एनजीओ से जुड़ाव है उसका। एक दो तो पुराने किन्नर है। शिल्पा-काजल।
बादशाह की लाजवाब महफिल
बादशाह की महफिल अनिल जी के मकान के पीछे बाड़े में थी। लहरी के यहाँ से सीधे वहीं पहुँचे। बादशाह और उसके परिजन बैठे हुए थे। कुछ परिचित, प्रतिष्ठित, शौकीन। बीच में एक नीचा तख्ता लगा हुआ था। जैसा आजकल शादियों में डीजे वाले नाच के लिए लगाया जाता है। एक हारमोनियम और एक ढोलक वाला। हारमोनियम वाला कोई राव या पेशेवर गायक है। बहुत ऊंचे सुर में तान लेता है। जो नचैया है, उसके हाथ में भी एक कार्डलेस माइक है। वह नाच भी रहा है और हारमोनियम पर बैठे गवैये के सुर की तान को बराबर टक्कर भी दे रहा है। ये लोग कितने ऊंचे सुर में गाते हैं। गा सकते हैं। हमें एक ऊंचे चबूतरे पर जिस पर गद्दे-सफेद चादरें बिछाकर मंच जैसा बनाया गया था उस पर बादशाह के पास बिठाया गया। बादशाह के युवा कम उम्र, परिचित परिजन जो आ रहे थे वे बादशाह के पाँव छू रहे थे। किसी ने मेरे भी छूने जैसी कोशिश की। मैं थोड़ा और सिकुड़ कर पीछे सरक गया।
जब मैने देखी वह रौनक
अभी ज्यादा भीड़ नहीं जुटी थी। गवैया और नचैया मिल कर, भजन-जैसी चीजें पेश कर रहे थे। किसी ने फरमाइश की-“बरसाने बागां बोले मोर-म्हारा कुंज बिहारी“ सुनाया जाए। बहुत सुरीला मांड है। गवैये और नचैये ने बहुत ऊंचे सुर में जम कर गाया। नर्तक की फिरकी, हाव-भाव और ठुमके का ढोलक वाले से ताल-मेल था। जब ढोलक वाला, हारमोनियम वाला गवैया और नर्तक सम पर आते तो ठेके के साथ, सुनने वाले भी उस आनन्द से जुड़ जाते। सरोबार हो जाते। पर बादशाह की महफिल का असली स्वरूप अभी बाकी था । धीरे-धीरे वो किन्नर जो काशीपुरी हिन्दू
धर्मशाला में रुके हैं, एक-एक दो-दो, समूहों में अपने गुरू और गुरू भाईयों के साथ आने लगे। सभी ने दुबारा मेकप करके दूसरे वस्त्रों आभूषणों से खुद को यथा सम्भव सजाया हुआ है। अपनी-अपनी समझ मुताबिक चमकीला भड़कीला या भिन्न वेश धारण किया है। आकर्षक-अनाकर्षक में कोई ज्यादा भेद प्रतीत नहीं होता है। एक किन्नर ने पारंपरिक घाघरा-लूगड़ा भी पहना है। साड़ी, सलवार-कुर्ता के साथ आधुनिक, गरारा, शरारा, लोअर टोपर भी है। अपने आपको कान्वेन्ट में पढ़ी बताने वाली अंग्रेजी बोलने वाली किन्नर जस्सी भी है-उसने जीन्स और टॉपर पहना है। जीन्स, फेडेड भी है और फटी हुई भी। किन्नरों के आते ही भीड़ बढ़ गई दर्शकों की। नेाट वारने वालों की। इन किन्नरों के चाहने वाले मनचले आशिक दर्शकों में मौजूद हैं।
यह किन्नरों की महफिल है
जब माशूक किन्नर का डांस करने का नम्बर आता है तो आशिक उस पर नोट न्यौछावर करता है। ज्यादातर किन्नर आधुनिक फिल्मी नृत्य गीतों की पेन ड्राइव लाए हैं, माइक वाले से, पसंदीदा गाना चलवा कर उस पर डांस करते हैं। नृत्य तो क्या कहें-हाव भाव, कुछ शारीरिक मुद्राएं, अदाएं। जो शोखी से भरी हेाकर, कभी कभी खुलेपन में होकर अश्लीलता तक चली जाती है। किन्नरों का तो यह काम है। रोज साबका पड़ता है – ऐसे मनचले आशिकों से। उनकी जेबें ढीली करवाना उन्हें आता है। उनके पेशे का हिस्सा है। सुना है – किन्नरों के जीवन के कई, अँधेरे, असुरक्षित आशंका से भरे हिस्से हैं। शायद वे उसकी क्षतिपूर्ति इस तरह चमक-दमक, भड़कीले, शानो-शौकत और दिखावे भरे जीवन से करते हों या जैसे-तैसे भी हो ज्यादा से ज्यादा पैसा हासिल करके स्वयं का भविष्य सुरक्षित करना चाहते हैं। इनके पास, इनके गुरूओं के पास, भारी मात्रा में, धन-सम्पदा, वस्त्र-आभूषण, महँगी गाड़ियाँ होने की बातें लोग करते हैं। लेकिन, यह भी सुनते हैं किन्नरों की वृद्धावस्था में गति अच्छी नहीं होती। इसी आशंका के चलते ही ये धन संचय और अपने भरोसेमंद शिष्यों, चेलों के आत्मीय संसार की रचना करते हैं। इनकी रहस्यात्मक दुनिया रेाचक तो है। जस्सी अपने मनचले आशिकों के साथ, गलबहियाँ करने, उनके सहारे से लेटने और उनके साथ, सेल्फियाँ लेने में मसरूफ है। फरमाइश पर उसने कुछ, जिमनास्टिक मुद्राओं जैसा आधुनिक डांस भी किया।
यह न्हाण के बादशाह की महफिल थी
बीच-बीच में, नाचने वाले किन्नरों और मनचले, नोट वारने वाले, आशिकों की नजदीकी से श्लीलता और अश्लीलता की मर्यादा टूटने का खतरा भी उत्पन्न हो जाता है। चाहने वाले दर्शकों को नाचने वाले तख्ते से बार-बार हटाना पड़ता है। बादशाह के युवा पुत्र जो आयोजक हैं – उन्हें बार-बार, कार्यक्रम समाप्त करने की धमकी भी देनी पड़ती है। बीच में एक बार कार्यक्रम समाप्ति की घोषणा भी हुई लेकिन, हा-हुल्ले, मान-मनोवल और आगे ऐसा न करने की संधि, शर्तो पर महफिल फिर से शुरू हो गई। कुछ देर बाद हम, वहाँ से उठकर, अनिल के मकान की छत पर आ बैठे, यहाँ से नीचे चल रही महफिल का पूरा नजारा दिखाई देता था। बादशाह उम्र दराज होने के बावजूद महफिल एक बजे तक चली। यह बाजार के न्हाण के बादशाह की महफिल थी।
लेखक- अम्बिकादत्त चतुर्वेदी, साहित्य अकादमी से पुरस्कृत हाड़ौती के प्रमुख साहित्यकार हैं।