उधार की जिंदगी

कोरोना वायरस से पिछले 14 महीनों से समूचे जगत कि जिंदगी की गाड़ी रुक सी गई है मानो किसी ने गाड़ी को पीछे से उठा लिया हुआ हो कितनी ही कोशिश करे जिंदगी आगे बढ़ने का नाम ही नहीं ले रही | कई बार घर की बालकनी से झाँक कर देखा तो लगता है की जीवन और जिंदगी की रौनक कही खो गई है न लोगों की चहलकदमी, न बच्चों की शैतानी-खेल, न ही बड़े बुजर्गों की रोज लगने वाली आम पंचायत |

हर तरफ बस बेबस सूनी सड़के, मायूसी की चादर ओढ़े आती बिना राहत की शाम और पूनम कि रौशनी में भी अमावस्या सी गहरी घनघोर निराशा वाली काली डरावनी रात| लोगों की जिंदगी मानो कौनसे रिवर्स गेयर में चली गई है सामान्य होने का नाम ही नहीं ले रही | व्यक्ति दूसरों के सामने खुश और सामान्य रहने की कोशिश करता है और वर्क फ्रोम होम करके, काढ़ा पी रहा है, स्टीम ले रहा है, कपूर-लौंग-अजवाईन सूंघ रहा है, बेवजह ही आवश्यकता से अधिक सुबह शाम वॉक कर रहा है, योगा मेडिटेशन कर रहा है, खुद को किसी न किसी काम व्यस्त रखने का दिखावा करता है पर वास्तव में अपनी उस असली जिन्दगी को जीने के लिए तरस रहे है जो वो कोरोना से पहले जिया करते थे | रोज जब सुबह की पहली किरण निकलती है तो लगता है कल जो दिखा और महसूस किया था वह शायद कोई बुरा सपना था जो अब खत्म हो जायेगा पर जैसे-जैसे सुबह एक पहर से पहरे में प्रवेश करती है वैसे वैसे हर दिन की समानता और नकारात्मकता अपने आस-पास का वातावरण अपने में समा लेती है | दिन कि दिनचर्या की एकरूपता जीवन के महत्वपूर्ण पलों को दीमक की तरह खा रही है । यह समय बेहद चुनौतीपूर्ण, निराशायुक्त और कष्टकारी है | हर कोई पल पल इसी डर के साये में जी रहा है की ना जाने कब कोरोना के नाम का दानव उन्हें या उनके परिवार के किसी जन को अपनी आगोश में लेने को बैठा है | उसके नाम और सोचने से ही आत्मा और जहन काँप उठता है क्योंकि जिंदगी कैसे लोगों के हाथों से फिसल रही है यह इस वायरस ने पलक झपकते ही दिखाया है | सुबह से लेकर रात तक व्यक्ति अपने और अपनों के लिए सोशल मीडिया, फोन, आस-पड़ोस से जिंदगी की भीख मांगते फिर रहे है | कभी ऑक्सीजन के लिए, कभी ओक्सीमीटर के लिए, कभी खून, कभी प्लाज्मा तो कभी बेड की व्यवस्था में लोगों का एक एक दिन ऐसा निकल रहा है जैसे हर रोज अपने इष्ट से अपनी और अपनों की जिंदगी और सांसे उधार ले लेकर चला रहे हो | कोरोना वायरस नामक एटम बम के जिस मुहाने पर हम आज खड़े है उसके एक हद तक बारूद भी हम ही है जिन्होंने इसे नजरअंदाज करके इसकी विनाश की आग से खेला, लोगों को आग से खेलने का चस्का चढ़ गया है और आज उसी का परिणाम है की शमशान की आग बुझ ही नहीं रही | इसके साथ सबसे बड़ी विडंबना ही यही है कि जब तक लोगों पर खुद नही गुजरती तब तक कोई सीरियस होता ही नहीं, उनके लिए तो ये कोई बीमारी ही नहीं, कोई जरुरत नहीं मास्क लगाने की, दूरी रखने की और जब तक समझ आता है तब तक कोई अपना शमशान की राख बन चुका होता है ।

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पर हृदय फिर से सामान्य रूप से घर से बहार जाने, सज सवर के काम पर जाने, सिनेमा देखने, ननिहाल, ददिहाल,पार्क, मॉल, स्विमिंग पूल जाने को, दोस्तों व रिश्तेदारों से मिलने और उन्हें गले लगाने के लिए उतावला है । पहली बार दिल दिमाग के कनेक्शन को समझ आया की बरसों से मिल रही टेक इट ग्रांटीड सुविधाएँ रिश्ते,नाते,यारी-दोस्ती,दूध-फल-सब्जीवाले भईया, सफाईकर्मी, डॉक्टर, नर्स, पुलिसकर्मी, 18 घंटे खुलती दुकाने, 24 घंटे वाली परिवहन सेवा, जिनकी कीमत कभी समझी नहीं थी, कितनी अनमोल और जीवन का अभिन्न अंग है | कोविड-19 पर विजय श्री हमारे हाथ तो लगेगी चाहे वह वैक्सीन से, दवा से, समय के साथ या प्रकृति से हो पर यह विजय करोड़ों की जिंदगी की बलि लेकर और जिंदगी के मायने बदलकर मिलेगी । इसीलिए सबसे अनुरोध है की जो जिंदगी इस बार मिली है और लाख जतन करने के बाद उधारी में बची है उसका ध्यान रखते हुए दूसरों का भी ध्यान रखे और मानवता का जो धर्म निभाया उसे नियमित रखे | सरकार के द्वारा जो भी नियम और विधि-विधान लागू किये जाये जैसे मास्क पहनना, हाथ धोना, सेनेटाइस करना, सामाजिक दूरी बनाये रखना आदि, उसे पूर्णता के साथ अपनाते हुए अपनी और जन रक्षा में योगदान दे क्योंकि जो भी फर्क पड़ता है वो आम इंसान पर पड़ता है खास तो बच जाते है धन से, बल से पर हमें अपने विवेकबल का उपयोग करना है |

लेखक- डॉ. निधि प्रजापति
अध्यक्ष : सोसाइटी हैस ईव इंटरनेशनल चैरिटेबल ट्रस्ट

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