दोषी तो मैं ही हूं…
अगर मैं यह जानता था कि कोरोना वायरस छूने से, सोशल डिस्टेसिंग मेंटेन न करने से फैलता है तो भी मैंने रिस्क ली। सामाजिक रस्मों को अहमियत देते हुए विवाह समारोहों में बिना मास्क के आता-जाता रहा। कॉलर ट्यून की आवाज मेरे निजी कार्यों से अधिक जरूरी हो गई और मैंने सरकार पर उस ट्यून को हटाने का दबाव बनाया। सरकार ने घर-घर आने वाली कचरा गाड़ी से यह संदेश लगातार प्रसारित किया कि कोरोना से बचना है तो मास्क पहनना है लेकिन मैं अहंकारी कहाँ मानने वाला था, मैं हंसता था कि कोरोना-वोरोना कुछ नहीं है, बस वहम है।
प्रशासन, नगर निगम के अधिकारियों और कर्मचारियों की समझाइश को धता बताकर लॉकडाउन का पालन न करना मेरी वीरगाथाओं का एक अभिन्न अंग बन गया। मुझे सब पता था कि भीड़भाड़ कवाले इलाके में नहीं जाना है लेकिन मैंने प्रशासन पर दबाव बनाया और मेला लगवाये। मैं देश के राजनेताओं को कोसता हूं कि जहां चुनाव है, वहां कोरोना नहीं है। लाखों की भीड़ दिखाता हूँ सबूत के तौर पर और मैं यह बताने का प्रयास करता हूं कि यूपीएससी जैसी कठिन परीक्षा पास कर आइएएस अधिकारियों से ज्यादा बुद्धि मुझमें है।
माना कि चुनाव हो रहे हैं तो रैली में जाना न जाने का फैसला तो मेरा है ना। क्यों जाता हूं मैं भीड़ में, नेताओं की रैली में? वो मुझे हाथ पकड़कर तो नहीं ले जा रहे ना। दुनियाभर में ज्ञान बांटता हूं कि स्टे होम और इधर प्रशासन, बस लॉकडाउन की घोषणा करे तो ऐसा भागता हूं सब्जी मंडी में जैसे बिना सब्जी के मर जाऊंगा और उस भीड़ से मैं ऊंचे दाम पर सब्जी खरीद कर अपने आप को सुरक्षित समझता हूं। राजमा, दालें, चना, मटर आदि सूखे अनाज से भी भोजन तैयार हो जाता है लेकिन नहीं, मुझे ऐसा लगता है कि जो सब्जी मैं ले रहा हूं, वो संक्रमित नहीं है। मेरी सोच पर हजार सलामी तो बनती है ना!
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मैंने कभी यह जानने की कोशिश नहीं की, कि जो डाक्टर अपनी जान की बाजी लगाते हुए कोविड मरीजों की लगातार सेवा कर रहे हैं, उनके बच्चों और परिजन क्या चैन से सो पा रहे हैं।बेचारे एंबुलेंस के ड्राइवर लगातार लाशों को अंत्येष्टि स्थल तक ले जा रहे हैं। मैं यह क्यों सोचूं कि यदि वो ड्राइवर मेरे परिवार का व्यक्ति होता या अस्पतालों में जो नर्सेज ड्यूटी पर हैं, वो मेरे परिवार की होतीं तो मेरी मनोदशा क्या होती! कोई मेरा परिचित कोविड अस्पताल में है तो मैं डर के कारण अस्पताल के बाहर भी नहीं जाता लेकिन डाक्टर्स और नर्सिंग स्टाफ लगातार अस्पतालों में हैं, उनके कार्यकलापों पर पैनी नजर है मेरी। हां, मुझे एक पल नहीं लगता यह कहने में कि डाक्टर भयंकर कमा रहे हैं। मैंने उनसे यह भी नहीं पूछा कि जिस पीपीई किट को आप लगातार पहने हुए हो तो सोते कैसे हो, कैसे खाते हो!
मैं क्यों सोचूं क्योंकि मेरे दिमाग में कोरोना से ज्यादा निगेटिविटी का वायरस भरा हुआ है जो बस दूसरों को शक की निगाहों से देखता है। यदि मैं आधी रात को बाहर से घर लौटूं तो सबको यह बोलकर सोता हूं कि मुझे जल्द मत उठाना और यदि, कोई जल्दी उठाता है तो मैं उस पर गुस्सा करता हूं और प्रशासन के अधिकारियों और डाक्टर्स जो बिना सोये लगातार काम कर रहे हैं, मैं उनकी सख्ती या गुस्से के वीडियो वायरल करना अपनी शान समझता हूं।
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कुल मिलाकर मैं यह चाहता हूं कि मेरा धंधा खूब चले, मैं गाइडलाइंस का मजाक भी उड़ाऊं और कोरोना को रोकना सरकार और प्रशासन का काम है। मैं यह भूल जाता हूं कि ये एक लोकतांत्रिक देश है। यहां लोकतंत्र है अर्थात लोगों का तंत्र अर्थात मेरा तंत्र और मैं खुद ही इस तंत्र की रक्षा नहीं कर रहा। आगे भी देखना हालात थोड़े से सुधरेंगे तो मैं फिर बिना मास्क, सेनेटाइजर के परिवार सहित निकलूंगा। क्योंकि, मैं आज़ाद हूं और बंदिश मुझे बर्दाश्त नहीं।
साभार
– अनिल