जानिए… जब ‘झक्कड़ सिंह’ ने कर डाला था हैदराबाद के निजाम का जूता नीलाम… तो कैसा मचा था कोहराम
नेशनल डेस्क@ द इनसाइड स्टोरी. हैदराबाद में उस रोज कोहराम मचा हुआ था… हर ओर बस एक ही खबर थी कि आखिर निजाम का जूता कौन खरीदेगा… हैदराबाद के निजाम का जूता नीलाम होने की खबर पूरी रियासत में आग की तरह फैल गई। निजाम को खबर लगी तो वह न सिर्फ निहायत शर्मिंदा हुए, बल्कि इज्जत बचाने के लिए जूते की नीलामी करने वाले युवा ‘झक्कड़ सिंह’ को दरबार में बुलाने के लिए न्यौता तक भेज डाला…! पूरा हैदराबाद निजाम के दरबार में यह जानने के लिए उमड़ पड़ा कि आखिर निजाम की सल्तनत में उनका जूता नीलाम करने वाला शख्स आखिर है कौन? सफेद पगड़ी, धोती और कुर्ते में रौबीला युवक दाखिल हुआ तो पता चला कि वह कोई और नहीं महामना के नाम से मशहूर पंडित मदन मोहन मालवीय थे।
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महामना को नमन
वाराणसी में काशी हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) की स्थापना करने वाले पंडित मदन मोहन मालवीय की आज पुण्यतिथि है। महामना के नाम से मशहूर पंडित मदन मोहन मालवीय एक ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने केवल इच्छाशक्ति की बदौलत ही एक ऐसे विश्वविद्यालय की स्थापना कर दी, जो न सिर्फ देश-दुनिया में मशहूर है, बल्कि दुनिया का शायद ही कोई कोना होगा जहां बीएचयू का छात्र झंडे गाड़े न मिल जाए। महामना न सिर्फ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे, बल्कि उनका शुमार देश के दिग्गज पत्रकार, वकील और समाज सुधारक के तौर पर होता है। मदन मोहन मालवीय को महामना की उपाधि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने दी थी।
गांधी मानते थे बड़ा भाई
महामना का जन्म 25 दिसंबर 1861 को प्रयाराज यानि इलाहाबाद में हुआ। उनकी शिक्षा-दीक्षा कलकत्ता विश्वविद्यालय में हुई। पढ़ाई पूरी करने के बाद वो शिक्षक बन गए। उन्होंने वकालत भी की और पत्रकारिता भी। देश में शिक्षा का अभाव देख कर उन्होंने 1915 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना की। महात्मा गांधी भी महामना की दृढ़ संकल्पशक्ति के इतने कायल थे कि वह उन्हें अपना बड़ा भाई मानते थे।
नहीं देख सके मुल्क को आजाद
महामना, देश की गुलामी की स्थिति से बहुत दुखी थे। उन्होंने करीब 50 सालों तक कांग्रेस से जुड़ कर आजादी की लड़ाई में अपना योगदान दिया। उन्होंने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ सविनय अवज्ञा और असहयोग आंदोलन का प्रमुखता से नेतृत्व किया। मुल्क को आजाद देखने की तमन्ना रखने वाले पंडित मदन मोहन मालवीय का आजादी मिलने से एक साल पहले 12 नवंबर 1946 को निधन हो गया।
इसलिए किया निजाम का जूता नीलाम
हैदराबाद के निजाम को सबक सिखाने वाला महामना का किस्सा खासा मशहूर है। दरअसल महामना उन दिनों काशी हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए पूरे देश में घूम-घूम कर चंदा मांग रहे थे। इसके लिए वह हैदराबाद के निजाम के पास भी पहुंचे और उनसे विश्वविद्यालय के निर्माण के लिए आर्थिक सहायता मांगी, लेकिन निजाम न सिर्फ मदद करने से इनकार कर दिया बल्कि, यहां तक कह दिया कि दान में देने के लिए उसके पास केवल जूता ही है। इस पर महामना ने निजाम से उसके जूते ले लिए और चार मीनार के पास बाजार में खडे़ होकर उसकी नीलामी शुरू कर दी।
चार लाख रुपए लगी थी बोली
इसी दौरान निजाम की मां चारमीनार के पास से बंद बग्घी में गुज रही थीं। भीड़ देखकर जब उन्होंने पूछा तो पता चला कि कोई जूती 4 लाख रुपए में नीलाम हुई है और वह जूती निजाम की है। उन्हें लगा कि बेटे की जूती नहीं इज्जत बीच शहर में नीलाम हो रही है। उन्होंने फौरन निजाम को सूचना भिजवाई। निजाम को जब इस बात की खबर लगी तो उन्हें अपनी गलती का अहसास हुआ। निजाम ने न सिर्फ महामना को बुलाकर माफी मांगी, बल्कि बीएचयू की स्थापना के लिए उन्हें बड़ी रकम दान में दे कर इज्जत के साथ विदा किया।
ऐतिहासिक भाषण आज भी प्रेरक
महामना के भाषणों का संग्रह हिंदू धर्मोपदेश, मंत्रदीक्षा और सनातन धर्म प्रदीप आदि ग्रंथों में आज भी उपलब्ध हैं। वे परतंत्र भारत की विभिन्न समस्याओं पर बड़ी कौंसिल से लेकर असंख्य सभा सम्मेलनों में दिए गए हजारों व्याख्यानों के रूप में भावी पीढ़ी के लिए प्रेरणा और ज्ञान के भंडार है। रौलट बिल के विरोध में लगातार साढ़े चार घंटे और अपराध निर्मोचन के संबंध में अंग्रेजी लगातार 5 घंटे तक दिया गया उनका भाषण निडरता, गंभीरता और कुशल वक्ता के रूप में आज भी स्मरणीय है। उनके उद्धरणों में हृदय का स्पर्श करके रूला देने की क्षमता थी परंतु वह अविवेकपूर्ण कार्य के लिए श्रोताओं को कभी उकसाते नहीं थे।
सफल पत्रकार एवं संपादक
महामना एक सफल पत्रकार और संपादक भी थे। कालाकांकर के देशभक्त राजा रामपाल सिंह के अनुरोध पर मालवीय जी ने उनके हिंदी-अंग्रेजी समाचारपत्र हिन्दुस्थान का सन-1887 में संपादन शुरू किया। ढाई वर्षो तक इस पत्र के माध्यम से वह राष्ट्रजागरण करते रहे। इसके अलावा उन्होंने तत्कालीन कांग्रेस के बड़े नेता पं. अयोध्यानाथ का इंडियन ओपीनियन के संपादन में भी हाथ बंटवाया। सन-1907 में उन्होंने साप्ताहिक अभ्युदय का कुछ समय तक संपादन किया। सन-1909 में उन्होंने सरकार समर्थक अखबार पायोनियर के समानांतर दैनिक लीडर अखबार शुरू किया। यह इलाहाबाद से प्रकाशित अंग्रेजी का चर्चित अखबार बन गया। दूसरे वर्ष ही मर्यादा पत्रिका भी निकाली। इसके बाद सन-1924 में उन्होंने दिल्ली पहुंच कर हिन्दुस्तान टाइम्स को सुव्यवस्थित किया। उधर लाहौर से विश्वबंद्य जैसे अग्रणी पत्र का प्रकाशन शुरू करवाया।
इस लिए पड़ा ‘झक्कड़ सिंह’ नाम
हिंदी के उत्थान में मालवीय जी की भूमिका ऐतिहासिक है। भारतेंदु हरिश्चंद्र के नेतृत्व में हिंदी गद्य के निर्माण में लगे मनीषियों में ‘मकरंद’ तथा ‘झक्कड़ सिंह’ उपनाम से रचनाएं लिखकर मालवीय जी विद्यार्थी जीवन में ही चर्चित हो गए थे। उन्होंने ही देवनागरी लिपि और हिंदी भाषा को कचहरी व सरकारी कामकाज की भाषा में प्रतिष्ठित करवाया। इसके लिए उन्होंने पश्चिमोत्तर भारत व अवध प्रांत के गर्वनर सर एंटोनी मैकडोनेल के सामने सन-1898 में विविध प्रमाणों के साथ लंबी जिरह की। जिसके बाद तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार ने 18 जनवरी, 1900 से हिंदी की देवनागरी लिपि को कामकाज की सरकारी भाषा का दर्जा दे दिया था।
चार बार किया कांग्रेस का नेतृत्व
कांग्रेस के निर्माताओं में विख्यात मालवीय जी ने उसके द्वितीय अधिवेशन (कोलकाता-1886) से लेकर अपनी अंतिम सांस तक स्वराज्य के लिए अथक परिश्रम किया। वह कांग्रेस के नरम और गरम दल के बीच सेतु थे, जो गांधी युग की कांग्रेस में हिंदू-मुसलमानों एवं उसके विभिन्न मतों में सामंजस्य स्थापित करने का आधार बना। कांग्रेस ने उन्हें चार बार (लाहौर-1909, दिल्ली 1918 और 1931 और कोलकाता-1933) में सभापति निर्वाचित किया। सन-1936 की फैजपुर कांग्रेस में उनके भाषण का यह अंश आज भी स्मरणीय है-‘मैं 50 वर्ष से कांग्रेस के साथ हूं। संभव है, मैं बहुत दिन तक दिन न जीऊं और अपने जी में यह कसक लेकर मरूं कि भारत अब भी पराधीन है। फिर भी मैं आशा करता हूं कि मैं इस भारत को स्वतंत्र देख सकूंगा।’ मुल्क को आजाद देखने की हसरत के साथ 12 नवंबर, सन 1946 को उन्होंने आखिरी सांस ली।