सुनो! सरकारः ‘इलेक्शन टॉस्क फोर्स‘ बनाकर करो चुनाव सुधार

लोकतंत्र को मजबूत बनाने के लिए चुनाव प्रक्रिया में सुधारों की जरूरत बता रहे हैं प्रख्यात मीडिया शिक्षक

यह आलेख लिखने का मेरा उद्देश्य केवल इतना है कि देश में जब-जब चुनावी रिफॉर्म की बात उठती है तो इस बिंदु को या तो नजरंदाज कर दिया जाता है या फिर अब तक इस ओर किसी की निगाह ही नहीं गई है। इस लेख के जरिए मैं आपका ध्यान इस ओर लाना चाहता हूं कि देश में जब भी लोकसभा-विधानसभा के चुनावों के अलावा स्थानीय निकायों के चुनाव होते हैं तो सरकारी मुलाजिमों को चुनाव ड्यूटी पर लगा दिया जाता है। जिससे उनका काम तो प्रभावित होता ही साथ जनता भी परेशान होती है। क्यों न हम बेरोजगारों को इस काम से जोड़कर उन्हें रोजगार के अच्छे अवसर दें और लोकतंत्र को मजबूत बनाने में युवाओं को योदगान का अवसर दें। 

देश में सरकार गठन चाहे केन्द्र में हो या राज्यों में, चुनाव आयोग की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण होती है। वास्तव में चुनाव आयोग की शक्तियों और उसके दिशा-निर्देशों की अनुपालना के विषय में पूरे देश में जागरूकता तब आई जब टीएन शेषन वर्ष 1990 में देश के 10वें मुख्य चुनाव आयुक्त बने। चुनाव आयोग या जिसे निर्वाचन आयोग भी कहा जाता है, अपनी शक्तियों और संवैधानिक नियमों के दायरे में रहकर बहुत ही मजबूती से अपने काम को अंजाम दे रहा है। निर्विवाद कहा जाए तो अब इस निकाय ने भारतीय लोकतंत्र में अपनी एक अमिट छाप छोड़ी है, जिसे दूसरी दुनिया के देश भी ‘फालो‘ करते हैं।

व्यवस्था की बड़ी खामी 
मैं आपका ध्यान इस ओर लाना चाहता हूं कि देश में जब भी लोकसभा/विधानसभा के चुनावों के अलावा स्थानीय निकायों के चुनाव होते हैं तो सरकारी मुलाजिमों मसलन कॉलेज, स्कूलों और विश्वविद्यालयों के शिक्षकों-कर्मचारियों के अलावा अन्य सरकारी प्रतिष्ठानों के अधिकारियों-कर्मचारियों को चुनाव ड्यूटी पर लगा दिया जाता है। मसलन चुनाव आयोग की वही शक्तियां यहां आड़े आती हैं जिनका लोकतंत्र में कोई सक्षम विरोध नहीं कर पाता और जिला अधिकारी जो कि जिला निर्वाचन अधिकारी की हैसियत से शक्ति संपन्न होकर अपने कठोर तरीकों से आदेशों को तामीला कराकर चुनाव कराते हैं। आचार संहिता लगने के बाद शिक्षकों, अधिकारियों और कर्मचारियों में जहां अपने मूल कार्य से विरत होकर अपनी मूल संस्था के कार्य नुकसान की पीड़ा होती है वहीं चुनावी ड्यूटी की वह पीड़ा भी सामने होती है जिसमें उनसे निचले कैडर का अधिकारी या कर्मचारी उन्हें बेवजह डांट पिलाता है और बेइज्जत करता है। कुल मिलाकर इस भेड़िया-धसान स्थिति में किसी तरह अपनी इज्जत बचाकर ये सभी कार्मिक या तो ड्यूटी करते हैं और इनमें से कुछ ही ऐसे होते हैं जो प्रशासनिक नजदीकियों का फायदा उठाकर अपनी ड्यूटी कटवा लेते हैं। मेडिकल ग्राउंड पर कुछ लोगों को जरूर छूट मिल जाती है, लेकिन उसके लिए पूरे मेडिकल बोर्ड के सामने ‘एक्सरसाइज‘ करनी पड़ती है। कभी-कभी दिव्यांगों, गर्भवती महिलाओं और मृत सरकारी कर्मियों की चुनावी ड्यूटी भी अखबारों की सुर्खियों में रहती है। ये तो रहा पूरा चुनावी राग जिसमें चुनाव प्रक्रिया निपटाना जिला कलेक्टर की मजबूरी होती है और सरकारी प्रतिष्ठान अपने कर्मियों के बगैर जैसे-तैसे इज्जत बचाकर कार्य निपटाते रहते हैं।

READ MORE: 13 राज्यों के हजारों लोग हुए हनीट्रेप का शिकार, पढ़ लीजिए यह खबर कहीं इनमें आप भी तो नहीं

बेरोजगारों की फौज होगी खत्म 
अब बात एक नए पक्ष की करते हैं। देश में जब-जब चुनावी रिफॉर्म की बात उठती है तो इस बिंदु को या तो नजरंदाज कर दिया जाता है या फिर अब तक इस ओर किसी की निगाह ही नहीं गई है। सवा सौ करोड़ हिन्दुस्तानियों के देश में 65 फीसदी से ऊपर युवा फौज है जिसकी उम्र 30 से 40 वर्ष के बीच है। देश के हर प्रांत के हर जिले में रोजगार पंजीकरण कार्यालय भी खोले गए हैं और उनमें इंटरमीडिएट उत्तीर्ण से लेकर परास्नातक और पीएचडी किए हुए बेरोजगार युवाओं ने अपना पंजीकरण क्रमांक ले रखा है। गाहे-बगाहे कभी-कभार कुछ बेरोजगारों के पास साक्षात्कार के कॉल लेटर भी आ जाते हैं। अगर चुनाव आयोग चाहे तो वह हर जिले में शिक्षित बेरोजगार स्नातकों-परास्नातकों की पूरी फौज में से चार-पांच हजार युवाओं को चिन्हित कर उन्हें अपर जिला कलेक्टर या उसके किसी समकक्ष अधिकारी के निर्देशन में पूरी वैधानिक प्रक्रिया के साथ उन्हें चुनावी प्रक्रिया का प्रशिक्षण प्रदान करे। इसे कई चरणों में किया जा सकता है। इस कार्य के लिए बेरोजगार युवाओं की टीमों का पंजीकरण 50 से लेकर 100 के ‘स्लाट‘ में किया जाए। हर युवा साथी का आधार कार्ड, बैंक खाते का ब्योरा, मतदाता पहचान पत्र, पैन कार्ड संबंधी ब्योरा कंप्यूटरीकृत करके रखा जाए। मतदाता सूचियों से लेकर मतगणना तक के कार्यों का पूरी शिद्दत के साथ उन्हें प्रशिक्षण दिया जाए। जो मानदेय निर्वाचन आयोग आज शिक्षकों और कर्मचारियों के अलावा सरकारी प्रक्रमों के अधिकारियों पर खर्च कर रहा है, उसे उन प्रशिक्षित बेरोजगारों के मध्य बैंक के माध्यम से उनके खातों में भेजा जाए।

इलेक्शन टास्क फोर्स के फायदे 
मेरा मानना है कि ऐसे ‘टास्क फोर्स‘ के गठन से जहां सालभर बेरोजगार घूमने वाली फौज को तीन से चार महीने का रोजगार मिलेगा वहीं उन्हें देश की ऐसी सांविधानिक संस्था से जुड़कर कार्य करने को मौका मिलेगा जो वास्तव में उनके कॅरियर को एक नई दिशा भी देगा। हर चुनाव में ऐसे अनेक आरोप-प्रत्यारोपों का सामना चुनाव आयोग को करना पड़ता है जिसमें शिक्षकों, अधिकारियों और कर्मचारियों की चुनाव कार्यों में ड्यूटी लगने के बाद उनके मूल प्रतिष्ठानों का कार्य बुरी तरह प्रभावित होता है। और तो और सरकारी स्कूलों में जहां शिक्षकों की तादाद वैसे ही कम होती है और उन स्कूलों के दो-तीन शिक्षकों की ड्यूटी बीएलओ यानी बूथ लेवल ऑफिसर के तौर पर चुनाव के कार्यों के निस्तारण या फिर जनगणना में लगा दी जाती है तो हमारी प्राथमिक शिक्षा पर इससे बड़ा कुठाराघात और कुछ नहीं हो सकता है। ये कार्य कुछ बेरोजगार युवा साथी एक कम अवधि का सरकारी प्रशिक्षण पाने के बाद आसानी से कर सकते हैं। वहीं डिग्री कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में शिक्षकों और कर्मचारियों की चुनावी ड्यूटी लगने के बाद इन जगहों पर भी शिक्षा व्यवस्था और रोजमर्रा के कामों पर ताला जड़ जाता है। इसके अलावा एक राज्य के युवा टास्क फोर्स को दूसरे राज्य में भी लगाए जाने से चुनावी प्रक्रिया पर कोई प्रश्नचिन्ह नहीं लगा पाएगा।

READ MORE: एसीबी ने रेलवे का सीनियर सेक्शन इंजीनियर को 35 हजार की घूस लेते रंगे हाथ दबोचा

साबित होगा मील का पत्थर 
कहने का तात्पर्य ये है कि शायद यह उतना बड़ा कार्य नहीं होगा जितना बड़ा कार्य मतदाता पहचान पत्र बनाने में किया गया था। एक पहल तो आयोग को ही करनी होगी। टीएन शेषन ने जब कहा था सभी के पास मतदाता पहचान पत्र होना चाहिए तो इसे ‘पागलपन का फैसला‘ कहने वालों की पूरी फौज देश में खड़ी थी, लेकिन उनका हठ कहें या फिर मजबूत इच्छाशक्ति, उनके इस फैसले को आगे के सभी अधिकारियों का समर्थन मिला और देश में मतदाता पहचान पत्र को एक नई पहचान मिली। हर नए कदम का पहले स्तर पर तो विरोध होगा ही लेकिन अगर मजबूती से उसे निभाया जाएगा तो उसका परिणाम अच्छा ही होगा। केन्द्र और राज्य सरकारें भी युवा शक्ति को रोजगार देने के लिए चिन्तित दिखाई देती हैं। एक मौका सामने है, सभी देखें, समझें और मंथन कर फैसला करें। वैसे गेंद तो चुनाव आयोग के पाले में है, निर्णय उसे करना है कि चुनावी रिफार्म में वह कहां तक और आगे जा सकता है।

लेखकः डॉ. सुबोध अग्निहोत्री, निदेशक, पत्रकारिता एवं जनसंचार, वर्धमान महावीर खुला विश्वविद्यालय, कोटा 
(ये लेखक के अपने निजी विचार हैं।)

Related Articles

One Comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button
error: Content is protected !!