हुआ सवेरा चला सपेरा- रमते राम की डायरी

~कवि अंबिका दत्त चतुर्वेदी

हुआ सवेरा चला सपेरा
सुबह की सैर का समय तय नहीं है.
जब भी नींद खुल जाए .
हालांकि नींद कोई खिड़की, दरवाजा ढक्कन या पखेरू नहीं है फिर भी यह लगती ,टूटती ,खुलती ,उड़ती है .
भाषा में प्रत्ययों के साथ क्रियाओं के व्यवहार रोचक हैं .
शायद हर भाषा में यह होता हो .
सुबह जल्दी जागने का अलग मूल्य और महत्व है.
देर तक सोने का अपना मजा .
जागने के बाद पड़े रहने का अलग .
तीनों अनुभव जिनको होते हैं वे सिद्ध पुरुष हैं .
प्रसिद्ध भले न हों .
उठने बाद पानी पीना .
कोई न उठा हो तो बिना ख़लल अपनी चाय बनाना .
अखबार आ जाए तो इसके साथ उसका सेवन .
कुछ और न सूझे . तो निकल पड़ो .
गांव के लोगों को कहना नहीं पड़ता कि घूमो .
वे बिना काम भी घूमते रहते हैं .
घरवाले या घरवाली कहती है – कभी घर पर भी रहा करो .
शहर वालों का अलग है .
घरवाली कहती ही रहती है – कभी बाहर भी निकला करो .घर ही घर में पड़े रहते हो .
स्वर और शब्द भिन्न हो सकते हैं . मतलब यही होता है .
घरवाली की नहीं सुनते तो फिर डाक्टर की सुननी पड़ती है .
सुबह सड़क पर आने से पहले कई वाहन आ चुके होते हैं .
धुएं के साथ पता नहीं किस किस चीज की धज्जियां उड़ाते हुए बगल से गुजरते रहते हैं .
वाहनों में बच्चों को ले जाने वाली पीली बसों की बहुतायत होती है .
बच्चे छोटे सैनिकों की तरह सजधजकर खड़े होते हैं .
वर्दी पहने .कंधों पर बस्तों की बेल्ट कसे .
टाई ,जूते मौजे .
पानी की बोतलें गले में लटकाए .
ज्यादातर ,खासकर शुरुआती बच्चे ,स्कूल न जाने की रट लगाए रोते होते हैं .
करुण दृश्य में से प्रश्न उपजता है .
क्या हम अभी भी ऐसे स्कूल नहीं बना सके जहां बच्चे खुशी खुशी जाना चाहें जिद करके .
जैसे वे कई जगहों पर जाने की करते हैं .
कभी एक किताब पढ़ी थी ‘तोत्तोचान ‘ .
इसमें एक स्कूल था जिसमें सब जगह दाखिले से इन्कारी पा चुके बच्चों को एक खारिज रेल के डिब्बे में पढ़ाया जाता था .
खिलते हुए फूल
ऐसा कहे जाने जाने वाले बच्चों को स्कूल वाहन में चढ़ाने के लिए अधिकतर उनकी माताएं आती हैं .
उन्हें न तो सजी हुई कहा जा सकता है न बुझी हुई .
कहीं कदाचित कई मदालस पिता भी देखे जा सकते हैं .
उनका मुख अर्धनिद्रा और उबासी का क्रीडांगण होता है .
मक्खियां आकर्षित हो सकती थीं उनके मुखमंडल पर अगर उन्हें पास पड़े कचरे के ढ़ेर पर जाने की जल्दी न होती .
शहर में सुबह सैर के समय घूमते हुए कचरे की दुर्गंध के भभके से भी मुठभेड़ हो सकती है .
जहां मनुष्य होते हैं वहां कचरा भी होता है .
कचरा है समझो वहां आसपास अवश्य खाते पीते मनुष्यों की रिहाइश है .
कोई होटल,भोजनालय ,ढाबा, मूत्रालय, शौचालय हो तो कहना ही क्या .
मनुष्य और कचरा अनन्योश्रित हैं .
ऐसा कहना सभ्य और शिक्षित समाज में अपराध कहलाएगा.
धार्मिक समाज में पाप समझा जाएगा .
सड़क के किनारे कई सफाई कर्मचारी होते हैं .
चमकीली जाकिटें पहने हुए
ताकि दूर से दिखाई दे सकें .
वे अपने हाथ में पकड़ी लम्बी झाड़ू इस तरह हिला रहे होते हैं कि उनको देखकर नजाकत से ब्रुश चलाते पेंटर और पतवार से नाव खेते नाविक की मिश्रित छवि का अभिनव अनुभव होता है .
सुबह की सैर के समय कैसे कैसे आकार प्रकार के लोग दिखते हैं .
उनके चलने दौड़ने के तौर तरीके .
उनके घूमने की वजह .
उनके जेहन में क्या चल रहा होगा .
यह सोचना ,समझना, कल्पना करना भी आसान नहीं है . लिखना तो कतई नहीं .
अलग अलग वय और व्यवसाय के व्यक्तित्व की अलग कहानी है .
तब प्राथमिक कक्षाओं में न इतने बड़े बस्ते होते थे न इतनी सारी किताबें .
जितनी सी होती थीं उनके पद्य ही नहीं गद्य पाठ भी रट लेते थे .
गा गाकर दोहराते थे –
” हम सब बालक रोज सवेरे फुर्ती से उठ जाते हैं
…….. …………..मात पिता को शीश नवाते हैं
झाड़ू देते मंजन करते कपड़े अपने धोते हैं
नहा और भोजन करके शाला में आ जाते हैं .।।”
ऐसा कुछ .
ऐसा ही एक पाठ था शायद कक्षा दो या तीन में
” हुआ सवेरा चला सपेरा
झोली लेकर डण्डा लेकर
अपने घर को कुण्डा देकर
छोड़ छाड़ कर घर का घेरा
हुआ सवेरा चला सपेरा .
किताब में सपेरे का चित्र होता था . कल्पना में सचमुच का सपेरा . कल्पना जीवन से आती थी .
सपेरा बीन बजाता था .
झोली में से पिटारी निकालता था.
पिटारी में से . ………
कौतुक मिश्रित भय से हम उसके इर्दगिर्द खड़े देखते थे .
सांप
आज सुबह घूमते समय सपेरा याद आया .
कहां होगा सपेरा .
क्या उसके पास डण्डा भी होगा .

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One Comment

  1. बहुत सुन्दर और शानदार तरीके से पाठकोँं/दर्शकों तक खबरों को पहुंचाने का बेहतरीन अन्दाज़

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