गले की जंजीर… आज की कहानी

~अमरकांत

मुझे ख़ूब अच्छी तरह याद है कि रात को जंजीर पहनकर सोया था, लेकिन सबेरे उठकर देखा कि वह गले से गायब थी। खटिया पर से उछलकर खड़ा हो गया। बिछौने को उलट-पुलट डाला। ऊपर देखा, नीचे देखा, अगल देखा, बगल देखा। दौड़कर कमरे में गया, कोना-कोना जन डाला, परंतु वह नहीं मिली। संभवतः किसी ने चुरा ली थी।

जहाँ तक मुझे याद है, प्रेस में ऐसी घटना पहले कभी नहीं हुई थी। मैं गत ढाई-तीन वर्षों से प्रेस की छत पर एक कमरे में बिना किसी द्वंद्व एवं भय के रहता हूँ। बगल के कमरे में चार कंपोजीटर भी रहते हैं। चौबीसों घंटे चपरासी, हॉकर, मशीनमैन, फोरमैन, कंपोजीटर तथा कितने ही अन्य बुरे-भले लोग ऊपर से नीचे तथा नीचे से ऊपर किए रहते हैं, किंतु किसी ने कभी मुझ-जैसे सीधे-सादे पत्रकार का एक तिनका भी न उठाया। बड़ी बुरी बात थी। वह सोने की जंजीर अपनी भी नहीं थी कि संतोष कर लेता। दो दिन पूर्व शहर से मेरा मित्र जगदीश आया था। वह लंबा, तगड़ा तथा खूबसूरत तो है ही, उस रोज उसने महीन सफेद धोती तथा रेशमी कुर्ता पहन रखा था। इसके अलावा उसके गोरे गले में एक सोने की जंजीर सुशोभित थी, जो पुए पर चीनी का काम कर रही थी। अब झूठ क्यों बोलूँ, मैं उसके रोब में इतना तक आ गया कि इच्छा करने लगी कि मैं भी उसी पोशाक में तथा गले में वही या वैसी ही जंजीर पहन चारों ओर घूमूँ और लोगों पर रोब जमाऊँ।

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‘आज तो गुरु, ख़ूब जँच रहे हो! गले में सोने की जंजीर तो बस, पूछो मत!’ मैंने मुँह बाकर हँसते हुए प्रशंसा की।

वह कुछ नहीं बोला और मेरी बात पर केवल हँसकर रह गया। किंतु, चार-पाँच मिनट बाद मैंने बेशर्मी के साथ उससे जंजीर माँगी और उसने फ़ौरन निकालकर दे भी दी। पहनने के पश्चात् मैंने अपने चारों ओर आत्म-प्रशंसा से देखा। मैं उसे पहने ही रहा और फिर हम कोई दूसरी बात करने लगे और वह जब जाने लगा, तब भी मैंने जंजीर निकालकर नहीं दी और उसने शिष्टाचार से माँगी भी नहीं और दो-तीन दिन में आने का वायदा करने के बाद चला गया।

वैसे मैं यह बता देना चाहता हूँ कि मेरी नीयत पूर्णतया साफ़ थी। मैं केवल यही चाहता था कि जंजीर एक-दो दिन पहनने के बाद उसे लौटा दूँगा। इसके अलावा हम दोनों लँगोटिया यार थे और अक्सर एक-दूसरे की चीजों पहना भी करते थे, अब मुझे क्या मालूम था कि ऐसा भी होगा। मैं एकदम घबरा गया।

कुछ देर तक सुन्न होकर कमरे में खड़ा रहा, फिर दौड़ा हुआ मिश्र दादा के यहाँ गया। वह भी सहायक संपादक थे, लेकिन चूँकि उन्होंने दाढ़ी रख छोड़ी थी और धड़ल्ले से बंगला भी बोल लेते थे, अतएव हम उनको दादा कहते। वह छत ही पर सामने के कमरे में रहते थे।

जब मैं पहुँचा तो वह लेटे-लेटे अख़बार निहार रहे थे। मैं चुपचाप चारपाई पर एक तरफ़ बैठ गया और जब उन्होंने मेरी ओर देखा तो मैंने गंभीर आवाज में सूचना दी, ‘दादा, जंजीर तो चोरी चली गयी।’

वह चौंककर उठ बैठे। दुःख एवं आश्चर्य की बनावटी भावना से मुँह और आँखों को फैलाते हुए उन्होंने पूछा,
‘अरे! कैसे?’
मैंने सारा क़िस्सा कह सुनाया।
वे घोर चिंता में पड़े मालूम हुए और निचले होंठ को दाँतों से हल्के-हल्के काटते हुए पास में रखे गंदे तकिए को अपने दाएँ हाथ से धीरे-धीरे ठोकने लगे।

एक-डेढ़ मिनट पश्चात् आँखों को थोड़ा ऊपर करते हुए नपे-तुले शब्दों में उन्होंने किसी जासूस की भाँति पूज, ‘तुम्हें ठीक-ठीक याद है कि जब तुम सोए थे तो गले में जंजीर थी?’

मेरे ठीक-ठीक बता देने से वे जंजीर का भी पता बता देंगे, इस आशा से उत्साहित होकर मैंने उत्तर दिया, ‘हाँ दादा, इसके बारे में तो आप निश्चिंत रहें।’

‘भाई, मैं तो निश्चिंत हूँ, लेकिन सभी बातें देख-सुन ली जाती हैं। बड़े-बड़े भूल जाते हैं, फिर हमारी-तुम्हारी गिनती किसमें है?’ उन्होंने तर्क किया।

मैंने ज़ोर दिया, ‘नहीं, मुझे ख़ूब अच्छी तरह याद है कि सोते वक्त गले में जंजीर थी।’ एक-दो क्षण वे चुप रहे, फिर मेरी ओर थोड़ा खिसककर अपनी अर्थपूर्ण आँखों को मेरी आँखों में गड़ाकर दुष्टतापूर्वक मुस्कराते हुए इधर-उधर देखने के पश्चात् धीरे से पूज, ‘क्यों जी बड़े साहब, ठीक बताना, उसे किसी कोठे-ओठे पर तो नहीं दे आए?’
मुझे यह मज़ाक बड़ा बुरा लगा। रुखाई से बोला, ‘आप तो साहब मज़ाक कर रहे हैं, किसी की जान जाए और कोई मल्हार गाए!’
वे शरमा गए और उल्लू की भाँति हँसते हुए उन्होंने समझाया, ‘अरे यार, मल्हार की बात नहीं। आदमी, आदमी ही है, भगवान् तो नहीं, ग़लतियाँ हो ही जाती हैं।’
मैं चुप रहा और वे चुप रहे, फिर थोड़ी देर बाद जब मैं उठकर जाने लगा तो उन्होंने पुकारा, ‘अरे जा रहे हो? जरा सुनना।’

मैं लौट आया तो उन्होंने सिर को कुछ आगे बढ़ाकर फुस-फुसाकर शंका प्रकट की, ‘भाई, मेरा तो शक उस रामधन पर जाता है। वह रात में देर तक कंपोज करता रहता है। ग़ौर करना, उसकी आँखें अत्यंत रहस्यमयी हैं। हमेशा तिरछी नजरों से तरेरता है, जैसे चोर हो। उसके घर का भी तो किसी को पता नहीं, न मालूम कहाँ का रहने वाला है। भाई, मेरा तो संदेह सोलह आने उसी पर है।’

रामधन हमारे बगल के कमरे में रहता है और अभी दो दिन पूर्व मिश्र दादा से उसकी जबरदस्त मौखिक लड़ाई हुई थी। मैं सोचने लगा।

मिश्र जी ने निश्चित सम्मति प्रकट की, ‘मारो साले को, दो फैट में सारा उगल देगा।’
‘अच्छा, देखा जाएगा।’ मैं लौट पड़ा। ‘इससे काम नहीं चलेगा, कुछ कड़े बनो।’ मिश्र जी चिल्ला पड़े।

कुछ ही देर में यह समाचार प्रेस में आग की तरह फैल गया। सहानुभूति से सभी विगलित हो गए और सबकी जबान पर यही चर्चा थी। जिससे भेंट होती, वह अवश्य पूछता, ‘कहिए शर्मा जी, आपकी जंजीर खो गई?’ उत्तर देने पर पहले ही से तैयार प्रश्न आता, ‘कैसे?’ सभी लगभग यही प्रश्न पूछते और मैं विस्तार के साथ बताता। मुझे आशा थी कि शायद किसी को पता हो और सभी बातें बताने से संभवतः रहस्य का उद्घाटन करने में मदद मिले। लेकिन प्रश्नकर्ता रुचि के अनुसार एक-आध मिनट तक चुपचाप अफसोस की मुद्रा में जमीन की ओर देखते, फिर सिर को झटका देते हुए ‘हूं’ या ‘क्या बताएँ साहब?’ कहकर और मेरी ओर एक रहस्यमयी दृष्टि डालते हुए धीरे-धीरे खिसक जाते, जैसे मैं ही चोर हूँ।

प्रेस-मैनेजर गुलजारी लाल जी ने मुझे बुलवाया और सभी बातें जानने के पश्चात् बोले, ‘शर्मा जी, माफ़ कीजिएगा, आपको दूसरे की चीज लेने की आखिरकार हिम्मत कैसे पड़ी? वह भी सोने की जंजीर! मैं तो साहब, कोई देता भी तो इनकार कर देता और ली भी जाती हैं छोटी-छोटी चीजों कि….। क्षमा कीजिएगा, यह आपने बहुत भारी ग़लती की।’

रामविलास जब ड्यूटी पर आया तो सबसे पहले मेरे कमरे में पहुँचा। उसने पहले मेरी ओर घूरकर देखा, फिर आँखों को मटकाते हुए धीरे से पूज, ‘कहो गुरु, कहाँ दे आए? देखो, छिपाओ मत, मैं सब जानता हूँ।’

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मैंने मुँह फुलाकर उत्तर दिया, ‘यार, तुम लोगों को हमेशा मज़ाक ही सूझता है। अब मैं तुम लोगों को कैसे विश्वास दिलाऊँ कि जंजीर सचमुच ग़ायब हो गई है।’

वह झेंपकर हँसने लगा, लेकिन अपनी बात के समर्थन में तर्क पेश करने से बाज नहीं आया, ‘अरे भाई, मछली को पानी पीते कौन देखता है?’ मुझे बड़ा बुरा लगा और मैंने चुप ही रहना उचित समझा।

मेरी मुद्रा देखकर रामविलास अचानक गंभीर हो गया। उसने अब ईमानदारी के साथ सम्मति प्रकट की, ‘खैर, यह तो मज़ाक की बात रही, लेकिन यार शर्मा, बुरा न मानना, तुम्हारी लड़कपन की आदत अभी छूटी नहीं। इतने बड़े हो गए, यूनिवर्सिटी में भी पढ़े हो, इसके अलावा एक पत्र के सहायक संपादक हो, लेकिन शौक क्या है कि जंजीर पहनूँ। ठीक देहातियों की तरह! मेरा ख्याल है, डेढ़ सौ की चपत पड़ी। तुमसे मैंने कल रात को ही कह दिया था कि देखो, जंजीर खो न देना। लेकिन तुमने कहना माना ही नहीं।’

मैं अब खोज-बीन, पूछ-ताछ तथा जाँच-पड़ताल कर रहा था, लेकिन इसके बावजूद प्रेस-कर्मचारियों ने इस संबंध में अपनी धारणाएँ बना ली थीं। मोटे तौर पर तीन मत संगठित हो गए। प्रथम दल का कहना था कि शर्मा ने जंजीर किसी रंडी-मुंडी या किसी लगाई को दे दी है। इसमें उसका कोई दोष नहीं। जंजीर साफ़ दिल से लौटा देने के लिए ली होगी, किंतु कोठे पर जाकर मजबूर हो गया होगा। रंडी ने नखरे से मचलकर जंजीर माँग ली होगी और वह इनकार नहीं कर सका होगा और अब यहाँ आकर चोरी का बहाना कर रहा है।

दूसरी पार्टी के लोग, चोरी का कैसे पता लगाया जाए, इसकी जरा भी चर्चा न करते हुए इस पर ज़ोर देते कि मैंने जंजीर लेकर भारी ग़लती की। तीसरे दल के लोग अत्यंत ही ईमानदार एवं गर्म विचार के लोग थे और उनकी राय थी कि कुछ लोगों को पकड़कर उल्टा टाँग दिया जाए या मुर्गा बना दिया जाए और उनकी समुचित रूप से तब तक पिटाई की जाए, जब तक वे सब-कुछ उगल नहीं देते। ‘उगलेंगे क्यों नहीं, मार से तो भूत भाग जाता है!’

लगभग दस बज रहे थे और मैंने अभी तक मुँह में कुछ भी नहीं डाला था। मैं अब तंग आ गया था और चुपचाप आकर कमरे में बैठ गया। मैंने मन-ही-मन निश्चय किया कि प्रधान संपादक तथा जनरल मैनेजर के आने पर उनसे ही सब-कुछ कहूँगा। वे शरीफ़ आदमी हैं, जंजीर का पता लगाने में कुछ उठा नहीं रखेंगे।
लगभग ग्यारह बजे प्रधान संपादक दफ्तर पहुँचे और चोरी की बात सुनकर फ़ौरन मेरे कमरे में आए।

वह गोरे, मोटे तथा नाटे थे। उन्होंने पैरों को थोड़ा फैला तथा कमर पर दोनों हाथ रखकर और जमीन को तिरछी नजर से देखते हुए प्रश्न किया, ‘बड़ी कमीनी चीज हुई! यह सब कैसे हुआ?’
मैंने विस्तारपूर्वक बताया।
वे दायाँ हाथ ललाट पर रखकर कुछ सोचते रहे, फिर चौंककर बोले, जैसे न जानते हों, ‘जंजीर कहाँ थी?’
मैंने फिर बताया कि गले में थी।

अचानक वे तेजी के साथ कमरे में चारों ओर घूमकर इधर-उधर पड़ी चीजों को देखने लगे। मेज की दराज में देखा, एक कुर्सी पर चढ़कर एक ऊँची अलमारी का निरीक्षण किया और नीचे बैठकर एक चूहे की बिल में झाँका, फिर धीरे से ‘बड़ा आश्चर्य है’ कहकर चारपाई पर बैठ गए। उनकी मुद्रा एवं चेष्टाओं से लगा कि उनको विश्वास हो चला था कि मैं जंजीर के साथ बाहर नहीं सोया था। उसे कमरे में भी तो छोड़ सकता हूँ।

कुछ देर तक चुप रहने के पश्चात् वे अचानक बोले पड़े, ‘लेकिन मेरी समझ में नहीं आता कि आप जैसा होशियार आदमी जंजीर को गले में पहनकर बाहर कैसे सोया। यह तो ऐसी बात है कि जिसे एक छोटा लड़का भी नहीं करता।’

मैं बिलकुल डर गया और मैंने स्वीकार कर लिया, ‘यही तो मेरी एक ग़लती है और इसे मैं जानता हूँ।’

उन्होंने उत्साह में आकर जोरदार शब्दों में समझाया, ‘ग़लती ही नहीं, सख्त ग़लती है। जानते हैं साहब, डेढ़-सौ, दो सौ रुपए की चीज है। फिर पहले का जमाना भी तो नहीं रहा कि आप कमरा खुला छोड़ जाइए और लौटने पर एक-एक सामान अपनी जगह पर वैसे ही मिले। लोग बेईमान हो गए हैं। वे एक दूसरे की चीजों हड़पने की फ़िराक में रहते हैं। यह सब आप जानते थे, फिर भी आपने यही ग़लती की। कहिए, मैं झूठ कहता हूँ?’

मैंने अत्यंत ही गदगद होकर उत्तर दिया, ‘नहीं साहब, नहीं।’ जैसे इस तरह बोलने से उनके हृदय में मेरे प्रति सहानुभूति जाग पड़ेगी।

वे और जोश में आ गए, ‘भाई, मैं खरा कहता हूँ। लाख बात की एक बात। मैं यह जानता हूँ कि अगर हम ठीक से रहें तो किसी की मजाल नहीं कि हमारा बाल-बाँका कर सके। हमारा ही देख लो, आज तक कभी मेरी एक चीज भी गायब नहीं हुई। मैं सभी चीजों को ढंग से रखता हूँ और सबकी हिफ़ाजत की मुझे परवाह रहती है। अगर मैं ऐसा न करूँ तो पढ़ने-लिखने से लाभ? शाम होते ही सभी कीमती सामान ट्रंक में मजबूत ताला लगाकर बंद कर देता हूँ। मजाल कि कोई चोर साला ले जाए। तुमने भी अगर उस जंजीर को ताले में बंद कर दिया होता तो आज वह तुम्हारे पास होती। हुँह, एक सोने की कीमती जंजीर को गले में पहनकर खुले में सोना कितनी बड़ी बेवकूफी है!’

यह उपदेश देने के पश्चात् वे चले गए। सचमुच मेरा मन मुझे धिक्कारने लगा। मैं कितना बेवकूफ और गँवार हूँ? इस छोटी-सी चीज को भी नहीं समझ सका। उफ! यदि जंजीर को ट्रंक में बंद कर दिया होता तो आज ऐसी हैरानी-परेशानी नहीं उठानी पड़ती। मेरी तबीयत रोने-रोने जैसी होने लगी और मैं चादर ओढ़कर चारपाई पर लंबा तान गया।

मैं सोने की चेष्टा करने लगा, लेकिन नींद आती ही न थी। छाती पर जैसे किसी ने भारी बोझ रख दिया था। मैं अत्यंत कठिनाई से साँस ले रहा था। चाह रहा था कि कोई कमरे में आकर मुझसे बातचीत न करे, लेकिन साथ-ही-साथ मेरे हृदय के अंतरतम गह्वर में यह भी उम्मीद थी कि शायद अभी कोई आकर जंजीर का पता बता दे और इसीलिए बाहर की तरफ़ कोई खटका होने पर मेरा दिल जोरों से धड़कने लगता। मैं साँस रोककर सुनने लगता, लेकिन जब कोई नहीं आता तो मुँह पर से चादर हटाकर दरवाजों की ओर देखता। किंतु निराश होने पर फिर उसी तरह लेट जाता। वैसे हृदय में एक विचित्र प्रकार का संतोष भी होता कि चलो कोई नहीं आया, अच्छा ही हुआ और फिर तबीयत करने लगी कि मैं अनिश्चितकालीन तक उसी तरह पड़ा रहूँ और किसी से भेंट न हो।

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मुश्किल से बीस-पचीस मिनट बीते होंगे कि मेरा टेलीग्रापिक्स दोस्त जोसफ़ धमक पड़ा। मैंने सिर उठाकर देखा तो वह अत्यंत चिंतित एवं गंभीर नजर आया। आते-ही-आते उसने सहानुभूति प्रकट की, ‘दोस्त, मुझे बड़ा अफ़सोस है। दो-सौ की चपत पड़ गई।’

मैं उठकर बैठ गया और प्रश्न को टालने की गरज से मैंने जबरदस्ती मुस्कराकर पूछा, ‘अरे छोड़ो भी, पहले यह बताओ कि कहाँ से आ रहे हो?’

‘घर से चला आ रहा हूँ। मैं क्या जानता था कि यहाँ आकर यह ख़बर सुननी पड़ेगी। वैसे जंजीर कितने की थी?’ वह उतना ही गंभीर एवं चिंतित था।

मैंने बात उड़ाने की कोशिश की, ‘हटाओ भी यार, गई, गई। बहुत कीमत होगी तो सौ रुपए। ऐसे रुपए तो आते-जाते रहते हैं।’
पर वह नहीं माना, ‘क्यों झूठ बोलते हो, दोस्त, मैंने भी वह जंजीर देखी थी। दो सौ से कम थोड़े बैठेगा।’
मैं चुप रहा और दरवाजों के बाहर देखने लगा। कुछ देर चुप रहने के पश्चात् उसने प्रश्न किया, ‘जंजीर कहाँ रखी थी तुमने?’

इस सवाल से मैं डर गया और मशीन की तरह उत्तर दिया, ‘‘बाहर सोया था और जंजीर कमरे में ट्रंक में बंद थी और उसमें मजबूत ताला लगा हुआ था।’

वह किसी रिश्तेदार की भाँति साधिकार बिगड़ उठा, ‘यही तो काल हो गया! जंजीर क्या ताले में रखने की चीज है, जिस पर सबकी नजर लगी रहती है? यार, तुम अजीब बुद्धू हो!’
वे उसे वनमानुष की तरह देखने लगा।

उसने समझाया, ‘भले आदमी, तुम्हें तो मालूम ही है कि कीमती चीजों को ऐसी जगह रखते हैं कि जहाँ किसी व्यक्ति की नजर ही न पड़ सके। जंजीर ही का मामला ले लो, तुम मेज की दराज में एक किताब के अंदर रख सकते थे। किस साले का दिमाग़ वहाँ पहुँचता? भाई, मैं तो आज एक ट्रंक को सुरक्षित नहीं समझता।’

सचमुच वह ठीक कहता था। बात मनोवैज्ञानिक थी और यदि इस तरह से सोच-समझकर काम किया जाए तो चोरी मुश्किल से हो। मुझे अपनी बेवकूफी पर बार-बार अफ़सोस और पश्चाताप होने लगा ।

जोसफ़ के जाने के पश्चात् मैं फिर उसी तरह लेटा रहा। पर इत्मीनान नहीं हुआ तो उठकर दरवाजों को भीतर से बंद कर लिया। पाँच-एक मिनट के बाद ही यूनाइटेड प्रेस ऑफ इंडिया का संवाददाता परेश बनर्जी पहुँच गया। पहले तो मैं कुछ न बोला, लेकिन उसने बाहर से जब ज़ोर-ज़ोर से किवाड़ थपथपाना शुरू कर दिया तो बाध्य होकर दरवाजा खोलना पड़ा।
उसने भी आवश्यक प्रारंभिक जाँच-पड़ताल करने के पश्चात् पूज, ‘जंजीर रखा कहाँ था?’

मैंने जल्दी से थूक घोंटकर बताया, ‘इस मेज की दराज में एक किताब के अंदर थी।’ मुझे विश्वास था कि कम-से-कम कोई जंजीर को दराज में रखने का विरोध नहीं कर सकेगा, लेकिन परेश का दूसरा ही मत था।

उसने अपने सिद्धांत पर विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला, ‘दराज में रखा? जैसे किसी सेफ़ में रख दिया हो! तुम तो यार, लड़कों से भी गया-बीता आदमी है! तुम यहाँ एडिटरी खाक करता है! जंजीर दराज में रखने का चीज है? तुमने बहुत-सा नावेल पढ़ा होगा कि चोर-डाकू लोग दराज का अच्छी तरह तलाशी कर लेता है। इस पर भी तुमने दराज में रख दिया। जंजीर को रखने का सबसे अच्छा तरीका तो यह होता कि उसे मनीबैग में रखकर तकिया के नीचे दबा देते और ऊपर से सो जाते, बस किसी के बाप को पता नहीं लगता कि जंजीर कहाँ रखा है।’

परेश बनर्जी की बात भी बड़ी युक्ति-युक्त थी। उसके जाने के बाद मैं कुछ देर तक गाल पर हाथ रखकर चुपचाप सुन्न बैठा रहा और फिर अचानक उठ खड़ा हुआ। जल्दी से कमीज बदली, जूते पहने और दरवाजों को बंद करके बाहर निकल पड़ा। कमरे में या प्रेस में रहना असंभव-सा हो गया था।

परंतु अभी खुली छत पर आया ही था कि प्रधान संपादक के कमरे से ठाकुर कुलदीपसिंह निकलते नजर आए। वे हमारे गाँव के ही रहने वाले थे और हमारा उनका हमेशा मिलना-जुलना होता रहता था। वह मेवाड़ के राजपूतों के समान लंबे और तगड़े तो थे ही, साथ ही गप्पें लड़ाने में उस्ताद भी थे। उनका दृढ़ विश्वास था कि पत्रकार भगवान से भी टक्कर ले सकते हैं।

मैंने उनको नमस्कार किया। उनसे मिलकर मुझे अत्यंत ही संतोष हुआ। वह मेरे गाँव के थे। मुझे ऐसा मालूम हुआ कि इस संकट में शहर के लोग मुँह छिपा लेंगे, लेकिन अपने गाँव के लोग….फिर ठाकुर साहब तो बिलकुल नजदीकी आदमी हैं। मेरी तबीयत करने लगी कि रो पड़ूँ। मैं दरवाजा खोलकर उनको कमरे के अंदर ले गया। कुछ देर तक हम दोनों ही चुप रहे। मैं इसी उधेड़बुन में था कि कैसे बात शुरू करूँ, लेकिन उनको सब पता था। उन्होंने बात स्वयं शुरू की और बड़ा अफ़सोस प्रकट किया तथा अंत में मुँह बाकर जमीन की तरफ़ देखने लगे।

कुछ देर बाद उन्होंने भी वही परिचित प्रश्न किया, ‘लल्लू, जंजीर रखी कहाँ थी तुमने?’ मेरा कलेजा धक्-से कर गया, लेकिन मुझे बंगाली की बुद्धि पर गहरा विश्वास हो गया था, अतएव कुछ निर्भयता से उत्तर दिया, ‘मनीबैग में रखकर तकिए के नीचे दबा दिया था और ऊपर से सो गया था।’
ठाकुर साहब धीरे-धीरे ठनक-ठनक कर हँसे, फिर बुजुर्गी प्रदर्शित करते हुए बोले, ‘लल्लू, थोड़ा ग़लती कर गए।’
मैंने रुआँसी आवाज में पूछा, ‘क्या ठाकुर साहब?’

ठाकुर साहब पास खिसक आए और चारों ओर सशंकित दृष्टि से देखने के बाद बोले, ‘देखो लल्लू, मुझे चोर-उचक्कों से पाला पड़ा है, इसलिए मैं उनकी बात जितना जानता हूँ, उतना कोई नहीं।’
मैं उनको मूर्ख की भाँति निहारने लगा।

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उन्होंने उत्साह के साथ मंत्र बताया, ‘उपाय साफ़ और सीधा हैं, पर उसे कम लोग जानते हैं। भाई देखो, चोर का दिल आधा होता है और वह वहीं पर चीजें चुराने की कोशिश करता है, जहाँ से लोग दूर रहते हैं। तुमने जंजीर तकिए के नीचे रख दी थी, वह थोड़ी होशियारी तो थी, लेकिन पूरी नहीं। अरे कहा भी गया है सोना-मरना एक समान। मान लो, सिर तकिए से खिसककर नीचे चला गया या तकिया इस तरह खिसक गया कि जंजीर दिखाई देने लगी तो क्या होगा?’

उन्होंने यहाँ रुककर मेरी ओर प्रश्नपूर्ण दृष्टि से देखा। उनकी आँखें किसी विश्वविद्यालय के उस शिक्षक की भाँति चमक रही थीं, जो विद्यार्थियों को कोई कठिन विषय सफलतापूर्वक समझा रहा हो।

फिर उन्होंने होंठों को चाटते हुए रहस्योद्घाटन किया, ‘अरे होगा क्या, चोर देखेगा तो जंजीर या मनीबैग, जो चीज हो, अवश्य उठा लेगा। छोड़ेगा थोड़े? इसलिए तुम्हें जंजीर को गले में पहनकर सोना चाहिए था। एक तो किसी की कल्पना ही वहाँ तक नहीं जाती और यदि किसी भी हालत में जाती भी तो किसी की हिम्मत नहीं पड़ती कि हाथ लगा दे। लल्लू, मेरा तो सब जाना-सुना है।’

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