मुकेश मिश्रः मिलिए भारत के भावी अर्थशास्त्री से, रिक्शा चलाकर BHU से कर रहा है पीएचडी
आर्थिक आभावों से जूझने के बावजूद मुकेश Economics में Qualify कर चुके हैं NET Exam
- पढ़िए मुश्किल हालातों में भी शिक्षा के लिए संघर्ष करते एक युवा अर्थशास्त्री की कहानी
- पिता का हो चुका है देहांत, परिवार को पालने के साथ ही छोटे भाई को करवा रहे हैं सिविल से पॉलिटेक्निक
TISMedia@Varanshi पिता का देहांत हुआ तो पूरे परिवार के पालन पोषण की जिम्मेदारी सिर पर आ गई… सरकार से लेकर साहूकार तक सभी ने हाथ झटक दिया तो दिन रात रिक्शा खींच दो वक्त की रोटी के जुगाड़ में जुट गया… विरासत में कुछ था तो सिर्फ और सिर्फ भयावह गरीबी… लेकिन, ख्वाब तो झुग्गी झोंपड़ियों में भी देखे जा सकते हैं और मुकेश भी देख बैठा… बेहद ही मुश्किल ख्वाब… अर्थशास्त्री बनने का ख्वाब… खुद तो काबिल बनना ही था, छोटे भाई को भी किसी लायक बनाने की ठान ली…! बस यहीं से शुरू होती है एक कहानी… बनारस की गलियों से गुजरती हुई दुनिया के नामचीन विश्वविद्यालय काशी विश्वविद्यालय यानि बीएचयू के दरवाजे तक पहुंचने की।
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तस्वीर में जो शख्स नुमाया है, उसका नाम मुकेश है… मुकेश मिश्र…! मुकेश काशी के रेलवे स्टेशन से लेकर बस स्टॉप पर अक्सर ही दिख जाते हैं…! आम तौर पर किसी रिक्शे वाले को कोई याद नहीं रखता, लेकिन खाली वक्त में कभी अखबार तो कभी किताबों में खोए मुकेश मुसाफिरों की नजरों में चढ़ ही जाते हैं…! हैरत तो तब होती है जब दर्जनों युवा उनके पैर छूकर गुजरते हैं… तब लोग पूछ ही लेते हैं कौन है ये आदमी…! तब खोमचे बड़े रौब से उनका परिचय देता है… ये हैं मुकेश… बीएचयू के शोध छात्र (पीएचडी) मुकेश मिश्र…!
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अर्थशास्त्र ही क्यों?
मुकेश का परिचय मिलने के बाद शायद ही कोई होगा जो उनके रिक्शे की सवारी न करना चाहे। रिक्शे पर चढ़ते ही शुरू हो जाता है सिलसिला बातचीत का। का भाई, कौन से विषय से पीएचडी कर रहे हो? जवाब आता हैः साहब अर्थशास्त्र से…! भौंचकी सवारी कह ही उठती है… अरे बाबा! अर्थशास्त्र, यही विषय क्यों चुना तुमने वो भी बीएचयू से पीएचडी करने के लिए। एक तो वहां का पीएचडी का एंट्रेंस एग्जाम इतना कठिन ऊपर से तुम्हारा विषय। जवाब जरूर मिलता है, साहब एक गरीब से बेहतर अर्थशास्त्र को कोई नहीं समझ सकता। उसे पता होता है कि कम से कम संसाधनों में ज्यादा से ज्यादा लोगों का पेट कैसे भरा जा सकता है। उसे पता होता है कि कम से कम खर्च पर ज्यादा से ज्यादा बेहतर जीवन कैसे जिया जा सकता है और उसे पता होता है पाई-पाई का मोल, कि कितनी मेहनत से आम आदमी पैसा कमाता है और फिर उसे कितनी सहालियत के साथ खर्च किया जाता है।
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वजीफा भी तो मिलता होगा
मुकेश के बेलौस जवाब मिलते ही कुछ लोग तो तिलमिला उठते हैं और कुछ लोग आश्चर्य चकित रह जाते हैं। नतीजन, शुरू होता है कुतर्कों और वाहियात सवालों का सिलसिला। अरे! सुनो पारिवारिक दुर्दशा है तो क्या हुआ सरकारी मदद भी तो मिली होगी तुमको। ईडब्लूएस का आरक्षण, छात्रवृति और पीडीएस का सस्ता अनाज वगैराह…? जवाब में मुकेश खीजते नहीं हैं… उल्टा हँस पड़ते हैं। क्या करूं सर जी, आपकी तरह अखबार तो मैं भी पढ़ता हूं। जानता हूं कि सरकार योजनाएं तो हजार चला रही है, लेकिन उनकी हकीकत सिर्फ गरीब ही जानता है कि व्यवस्था के ठेकेदारों से कुछ बचे तो हम तक पहुंचे। और चलिए आपकी बात बड़ी करते हुए मान भी लिया कि सब मिलता है तो क्या, वाकई में गरीब आदमी हजार पांच सौ रुपए महीने में महीने भर जी लेगा। सच तो यह है कि दूर के ढ़ोल हमेशा सुहाने ही लगते हैं।
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रिक्शा ही क्यों!
मुकेश के तीखे सवालों का जवाब सुनने के बाद उसके रिक्शे पर सवार शख्स हमलावर हो उठता है। अरे, तो क्या हुआ इतने पढ़े लिखे हो, नौकरी ही कर लेते। रिक्शा ही क्यों चलाते हो? फिर से बारी मुकेश की ही थी। साहब, स्वाभिमान नहीं बेच सकते। सरकारी नौकरी ऊंट के मुंह में जीरा होती है। ऊपर से लाखों की घूस। जिसे दे नहीं सकते और प्राईवेट सेक्टर में घुसने के लिए सिफारिश और दुत्कार अलग से। हमें सरकार से कोई अपेक्षा नहीं है। हम स्वाभिमान नहीं बेच सकते। हम मेहनत कर सकते हैं। रिक्शा चलाने में अपना स्वाभिमान समझते हैं। किसी का उपकार लेकर जीना हमें पसन्द नहीं है।”
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पीएचडी पूरी करके ही मानेंगे
आखिर में बेबस मुसाफिर लाचारी जताने को मजबूर हो जाता है। अरे! मुकेश तो अपनी और भाई की पढ़ाई के साथ-साथ घर का खर्चा कैसे मैनेज करते हो। मैनेज जो जाता है साहब। रिक्शा चलाकर उतना मिल जाता है, जितना सरकारी अफसरों और निजी कंपनियों के साहबों के आगे गिड़गिड़ाकर भी नहीं मिल सकता। हम पकौड़ा तल कर अपने और अपने भाई की पढ़ाई पूरी कर सकते हैं, तो कर रहे हैं। आप देखियेगा, एक दिन हम खड़े हो जायेंगे। पीएचडी पूरी करके किसी उचित स्थान पर अपनी योग्यता सिद्ध करेंगे। रिक्शा भी चलाते हैं । मेहनत से पढ़ाई भी पूरी करते हैं। पीएचडी मेरी तैयार है। बस उसको टाइप वगैरह कराने के लिये थोडे धन की आवश्यकता है थोडा और रिक्शा चलाऊंगा। भाई की पढ़ाई भी पूरी होने वाली है। माता जी की सेवा भी करता हूं। मां को कुछ करने नहीं देता। वे बस हमें दुलार कर साहस दे देती हैं।” मेरे साथ चलिए, मैं ऐसे हजारों नवयुवकों से आप को मिला सकता हूँ जो बनारस जैसे धार्मिक शहर में मजदूरी कर रहे हैं और अपनी पढ़ाई भी कर रहे हैं। सभी स्वाभिमान से अपना कार्य करते हैं। किसी के आगे गिड़गिड़ाते नहीं। सभी पढ़ाई में तेज हैं। किसी प्रकार के पाखंड में नहीं जीते। अपने लक्ष्य के लिये मेहनत करते हैं। कोई काम छोटा या बड़ा नहीं होता। आवश्यकता है लक्ष्य भेदने की। हम सब खुश हैं स्वाभिमान से जीने पर।”
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सवाल लाजमी है!
इतनी सारी बातों के बीच पता ही नहीं चलता कब रिक्शा मंजिल तक पहुंच गया। सवारी ने जेब में हाथ डाला और मुकेश का मेहनताना उसकी हथेली पर रख दिया। पैसे मिलते ही मुकेश ने रिक्शा मोड़ा और दूसरी सवारी की तलाश में सड़क पर कब गुम हो गया पता ही नहीं चलता। पीछे कुछ छूट जाता है तो बस मुकेश और मुकेश की बातें… वो हजार सवाल जो उससे बात करने वाले हर शख्स को कई रातों तक परेशान करते रहते हैं कि आखिर, तरक्की की तस्वीरों में यह नौजवान कहां शामिल हैं? मुकेश का अर्थशास्त्र इस देश के महान अर्थशास्त्रियों को कब समझ आएगा जो लाखों करोड़ों का रिवाइवल पैकेज बनाकर उसके खर्च का हिसाब तक नहीं दे पाते। कब रिजर्व बैंक इस अर्थशास्त्र को आत्मसात करेंगी और कब बैंकों का डूबना बंद होगा? तस्वीर कितनी भी खुशनुमा क्यों न हो, सवाल तो लाजमी हैं। काश मुकेश के शोधपत्र इनके जवाब दे सकें!
(लेखकः रमेश राय। देश की आंचलिक पत्रकारिता का जीवंत चेहरा हैं वरिष्ठ पत्रकार एवं संपादक रमेश राय। दैनिक आज से लेकर दैनिक जागरण तक तमाम बड़े अखबारों संपादकीय पदों पर 4 दशकों से भी ज्यादा पत्रकारिता एवं संपादकीय दायित्यों का सफल निर्वहन कर चुके हैं। फिलहाल वाराणसी में रहकर आम आदमी की जिंदगी को लेखबद्ध करने में जुटे हैं। )