आज USA का स्वतंत्रता दिवस है, जिसके शासकों को दूसरे मुल्कों की आजादी नहीं आती रास

आशीष आनंद

आशीष आनंद

15 सालों से पत्रकारिता के खांटी हस्ताक्षर आशीष आनंद दैनिक जागरण और अमर उजाला जैसे अखबारों से जुड़े रहे हैं। फिलहाल वह स्वतंत्र पत्रकारिता कर रहे हैं एवं TIS Media की उत्तर प्रदेश टीम का प्रमुख हिस्सा हैं।

आजादी इतनी गहराई लिए हुए शब्द है कि लाखों लोग इसकी थाह को जानकर कुर्बान हो गए। ऐसा पूरी दुनिया में हुआ और आज भी हो रहा है। अमेरिका में भी आज आजादी का जश्न मनाया जा रहा है। वहां भी आजादी के लिए संघर्ष हुआ कभी। लेकिन उस आजादी के दम पर हासिल तरक्की का नतीजा क्या हुआ?

इस देश की तरक्की ने उसे आजादी का दुश्मन बना दिया। पूरी दुनिया में किसी देश के माथे पर मानवता का विध्वंस करने का सबसे ज्यादा कलंक है, तो वह अमेरिका ही है। महज कुछ दशकों में दुनियाभर को सभ्यता सिखाने को इस देश ने करोड़ों लोगाें का जीवन तबाह कर दिया और अपने मुंह पर नस्लवाद की कालिख पोते चौधरी बना हुआ है।

आज भी अमेरिका के अंदर गोरे-कालों के बीच युद्ध जारी है। जिन शासकों की महानता का बखान किया जाता रहा, आज उनके स्मारक ध्वस्त हो रहे हैं। उस क्रिस्टोफर कोलंबस का भी, जिसे अमेरिका की खोज का श्रेय दिया जाता है। झूठी महानता गढ़ने वाली हर कहानी पलटी जा रही है। स्टैच्यु ऑफ लिबर्टी का गुणगान औपचारिक अनुष्ठान ही बचा है।

अमेरिका जिस आजादी का जश्न आज मना रहा है, वह पूरी दुनिया के लिए कभी बहुत कीमती रही। उस आजादी के लिए जो उसूल तय हुए, वे खुद अमेरिकी शासकों ने कैसे ध्वस्त किए, यह हम दुनिया में उसके दखल से समझ सकते हैं। सैकड़ों तख्तापटल, साम्राज्यवादी मंसूबों के लिए हत्याएं, सैकड़ों देश में सैनिक अड्डे, दर्जनों देशों में तबाही का आलम, सैकड़ों द्वीपों का विनाश, प्रकृति की बलि, परमाणु बमों का जखीरा, खुद ही परमाणु बमों का इस्तेमाल कर दूसरे देशों को धमकी या ऐसे ही तमाम कारनामे इस देश की पहचान हैं।

वैसे, अमेरिकी में आजादी की लहर और क्रांति 18वीं सदी की बेहद अहम घटना थी, जिसमें 1775 एवं 1783 के बीच 13 कालोनियों यानी उपनिवेश क्षेत्रों ने ब्रिटिश साम्राज्य से आजादी हासिल की और संयुक्त राज्य अमेरिका देश का निर्माण किया।

क्रांतिकारी विचारों के आगोश में अमेरिकियों ने 4 जुलाई 1776 में अमेरिका के स्वतंत्रता का ऐलान किया और 1781 के अक्टूबर महीने में युद्ध के मैदान में क्रांति विजयी हुई। जनरल जार्ज वाशिंगटन ने अमरीकी सेना का नेतृत्व कर उपनिवेशों को एकीकृत किया। उन्हें 1789 में अमरीका का पहला राष्ट्रपति चुना गया। दस साल बाद 14 दिसंबर 1799 को वाशिंगटन का निधन हो गया। वाशिंगटन शहर उन्हीं के नाम पर है।

अमेरिकी क्रांति में जो लोकतंत्र के विचार पनपे, उनका असर यूरोप पर भी हुआ। फ्रांस में 1789 में हुई पहली जनवादी क्रांति के पीछे भी इसका असर रहा, क्योंकि फ्रांस के सैनिकों ने उन बातों को सुना था। यह भी बताया जाता है कि स्टैच्यु ऑफ लिबर्टी फ्रांस ने ही अमेरिका को इस मौके पर दी। ऐसा इसलिए हो सकता है कि फ्रांस में जनवाद के विचार और उसके लिए निरंतर संघर्ष जारी थे।

अमेरिकी स्वतंत्रता की घोषणा एक राजनैतिक दस्तावेज है। जिसका सबसे ज्यादा उल्लंघन भी दूसरे विश्वयुद्ध से आज तक वहीं के शासकों ने किया है।

अमेरिकी निवासियों के इस संघर्ष में इंगलैंड से आए उग्र विचारों वाले टॉमस पेन को जरूर याद किया जाना चाहिए। जिन्होंने अपनी पुस्तिका ‘कॉमन सेंस’ से स्वतंत्रता की भावना को धधका दिया। इसी माहौल में 7 जून 1776 को वर्जीनिया के रिचर्ड हेनरी ली ने प्रायद्वीपी कांग्रेस में यह प्रस्ताव रखा कि उपनिवेशों को आजाद होने का पूरा हक है।

प्रस्ताव पर बहस के बाद ‘स्वतंत्रता की घोषणा’ तैयार करने को 11 जून को एक कमेटी बनी, जिसमें इस काम को थॉमस जेफरसन को सौंपा गया। जेफरसन के तैयार घोषणापत्र को एडम्स और फ्रैंकलिन ने कुछ संशोधन कर 28 जून को प्रायद्वीपी कांग्रेस में रखा और 2 जुलाई को यह बिना विरोध पास हो गया।

इस घोषणापत्र में उपनिवेशों के लोगों की कठिनाइयों, शोषण, उत्पीड़न पर ज्यादा बात नहीं की गई, बल्कि मनुष्य के प्राकृतिक अधिकारों के दार्शनिक सिद्धांतों को रखा गया। वे सिद्धांत, जिन्होंने विश्व की राजनीतिक विचारधारा में क्रांतिकारी परिवर्तन किए।

समानता का अधिकार, जनता का सरकार बनाने का अधिकार और अयोग्य सरकार को बदल देने या उसे हटाकर नई सरकार की स्थापना करने का अधिकार का पुरजोर तरीके से रखा गया। ब्रिटिश दार्शनिक जॉन लॉक के ‘जीवन, स्वतंत्रता और संपत्ति’ के अधिकार के सिद्धांत को भी स्वीकार किया। संपत्ति को ही सुख का साधन न मानकर ‘सुख की खोज’ का अधिकार लोगों के सामने रखा।

घोषणा पत्र के शब्द

“हम इन सिद्धांतों को स्वयंसिद्ध मानते हैं कि सभी मनुष्य समान पैदा हुए हैं और उन्हें अपने सृष्टा द्वारा कुछ अविच्छिन्न अधिकार मिले हैं। जीवन, स्वतंत्रता और सुख की खोज इन्हीं अधिकारों में है। इन अधिकारों की प्राप्ति के लिए समाज में सरकारों की स्थापना हुई, जिन्होंने अपनी न्यायोचित सत्ता शासन की स्वीकृति ली। जब कभी कोई सरकार इन उद्देश्यों पर कुठाराघात करती है तो जनता को यह अधिकार है कि वह उसे बदल दे या उसे समाप्त कर नई सरकार स्थापित करे, जो ऐसे सिद्धांतों पर आधारित हो और जिसकी शक्ति का संगठन इस प्रकार किया जाए कि जनता को विश्वास हो जाए कि उनकी सुरक्षा और सुख निश्चित हैं।”

इस घोषणापत्र के आधार पर अमेरिकी शासकों का दूसरे विश्वयुद्ध से अब तक का मूल्यांकन किया जाना चाहिए। यह मूल्यांकन पूरी दुनिया को ही नहीं, बल्कि आजादी का जश्न मनाने वाली अमेरिकी जनता को भी करना चाहिए।

सच तो यह है, जाे असल में अमेरिकी नस्ल थी, वह खत्म कर दी गई। वे थे रेड इंडियन। लाल दिखने वाले भारतीय। यह नाम भी यूं ही नहीं मिला उन्हें। पूरी सभ्यता थी उनके पास, माया, इंका, इजटेक सभ्यता। उनको उससे पहले यूरोप और एशिया के लोग जानते ही नहीं थे। भारत और चीन से व्यापार करने की हसरत यूरोपीयों की रहती थी, ख्वाब देखते थे वहां जाने के।

भारत से अरबियों का भी व्यापार था। यूरोपीय व्यापारी कुस्तुंतनिया, जो अब तुर्की शहर इस्तांबुल है से होकर एशिया में व्यापार को आते थे। यूरोप और एशिया को जमीन पर जोड़ने वाली जगह यही है। व्यापारियों के लिए जहाज से या पैदल सामान लाने-जाने के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण जगह रही। यहां पर कब्जे के लिए तमाम युद्ध हुए।

फिर पैदा हुआ उस्मानी साम्राज्य, जिसे ऑटोमन साम्राज्य भी कहा जाता है। इस साम्राज्य के मुराद द्वितीय के बेटे महमद द्वितीय ने 29 मई 1453 को कुस्तुंतनिया (इस्तांबुल) जीत लिया।

उस्मानी शासकों ने वहां से होकर व्यापार करने पर भारीभरकम टैक्स लगा दिया। मजबूरी में टैक्स तो दिया, लेकिन व्यापारियों को यह अखर गया। उन्होंने उन रास्तों को खोजने की रणनीति पर काम शुरू किया, जहां उस्मानियों का नियंत्रण न हो। यह रास्ते सिर्फ समुद्र में ही थे।

उस्मानी साम्राज्य के विस्तार के बाद पुर्तगाली शासकों से उनकी ठन गई। व्यापारी भी वहां के काफी थे। समुद्री रास्तों की खोज आम नाविकों के बस की बात नहीं थी। यह काम तो दुस्साहसी समुद्री लुटेरे ही कर सकते थे। समुद्री नक्शा भी नहीं था और पृथ्वी के आकार का भी धुंधला मानचित्र ही था।

एक तरह से अंधेरे में तीर चलाने जैसी स्थिति में भारत खोजो अभियान समुद्र के अंदर शुरू हुआ। इसी खोजबीन में स्पेन का लुटेरा समुद्री नाविक क्रिस्टोफर कोलंबस अटलांटिक महासागर में एक गैंग के साथ निकला।

वह अपने अनुमान के हिसाब से 1492 में इंडिया पहुंचा, लेकिन जिस तट पर पहुंचा वहां कोई व्यापारिक चकाचौंध नहीं दिखाई दी, जैसा उसने भारत के बारे में सुना था। वहां जो लोग दिखे, उनका रंगरूप भी अलहदा था, लाल सी चमड़ी वाले। उसने उन्हीं को रेड इंडियन कहा।

वहां के लोग बहुत सीधे-सादे थे। उन्होंने कोलंबस का स्वागत किया और बहुमूल्य धातुओं की वस्तुएं भेंट कीं। यह सब देख कोलंबस का शैतानी दिमाग लूट के लिए चलने लगा। नई दुनिया थी, वहां के लोगों को गुलाम बनाने और कुदरती खजाना लूटने की व्यवस्था का आगाज हो गया। उपनिवेशवाद की बुनियाद पड़ गई। लूट और हत्याओं से मूल अमेरिकी नस्ल खत्म होने लगी।

अमेरिकी महाद्वीप के बारे में यूरोप में जानकारी बढ़ी। कोलंबस ने यूरोपवासियों और अमेरिका के मूल निवासियों के बीच पुल का काम किया। उसने नई दुनिया यानी अमेरिका की चार बार यात्रा की, जिसका खर्च स्पेन की रानी इसाबेला ने उठाया, क्योंकि लूट में रानी का भी हिस्सा था।

आखिरकार अमेरिका स्पेन का उपनिवेश बन गया। कमोबेश, इसी प्रक्रिया से बाकी दुनिया में भी यूरोपीय व्यापारियों ने दुनियाभर में उपनिवेशवादी कदम रख दिया। कोलंबस के बाद अमेरिगो नाम के नाविक ने यहां पहुंचकर बताया कि यह एकदम नई जगह है। इसी वजह से इस नए महाद्वीप का नाम अमेरिका पड़ा। भारत के लिए समुद्री रास्ता खोजने में वास्कोडिगामा कामयाब रहा, 1498 में।

उस दौर में अधिकांश भूमध्य सागर पर नियंत्रण उस्मानी साम्राज्य का नियंत्रण था, लेकिन व्यापार, दर्शन, अर्थव्यवस्था के नए तरीकों में उस्मानी पिछड़ते चले गए। धार्मिक और बौद्धिक रूढ़िवादिता की वजह से उनके अधीन साम्राज्य में नए विचार नहीं पनप पा रहे थे। फिर उस्मानी शासक सैनिक प्रौद्योगिकी के मामले में भी यूरोपियों से पिछड़ गए। उस्मानी साम्राज्य के विस्तार का चक्का 1683 में वियना की लड़ाई के बाद थम गया।

पश्चिमी यूरोप के देशों ने नए समुद्री व्यापारिक मार्गों की खोज कर बाजी अपने हाथ में ले ली, जिससे वो उस्मानी व्यापार के एकाधिकार से बच गए। पुर्तगालियों ने केप ऑफ गुड होप की खोज की। नई दुनिया अमेरिका में लूट से स्पेन में चांदी की बाढ़ आ गई और उस्मानी मुद्रा कहीं धड़ाम हो गई। उनके साम्राज्य में महंगाई बेलगाम हो गई।

लैटिन अमेरिकी देश स्पेन और पुर्तगाल के उपनिवेश रहे। बाद में जब फ्रांस और ब्रिटेन की ताकत बढ़ी तो उन्होंने नए उपनिवेश बनाए और पुराने खिलाड़ियों से छीने भी। अमेरिका ब्रिटेन के हाथ आ गया। मूल अमेरिकी खत्म कर दिए गए और अफ्रीका से गुलामों को लाकर वहां काम कराया गया।

गोरे लोगों का शासन तब भी खत्म नहीं हुआ, जब अमेरिका 4 जुलाई 1776 को आजाद हो गया। इसी आधार पर अमेरिका और ब्रिटेन आज भी हमजोली हैं। ब्रिटेन बाकी यूरोपीय देशों से अलग अमेरिका के साथ खड़ा है। जबकि अमेरिकी होकर भी वहां के काले लोगों को तरक्की की इतनी ऊंचाई पर थर्ड डिग्री मौत देने का सिलसिला जारी है।

काेलंबस के नाम से लैटिन अमेरिकी देश कोलंबिया है और अमेरिकी राज्य भी इसी नाम का है। जहां कोलंबस की मूर्ति को पिछले दिनों जॉर्ज फ्लॉयड की हत्या के बाद चले ब्लैक लाइव मैटर आंदोलन के दौरान जमींदोज कर दिया गया।

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