बड़ा सवालः दुनिया भर की महाशक्तियों ने आखिर क्यों टेक दिए तालिबान के आगे घुटने !
ये कैसा समझौता : आतंकवादी संगठन का मसीहा बन गया अमरीका, उठ रहे गंभीर सवाल
अमरीका ने 2001 में उसके मुल्क पर हुए 9/11 के बर्बर हमले के बाद अल कायदा की मदद करने के लिए तालिबान को जिम्मेदार माना था। यही कारण रहा कि उसने दो दशकों में तालिबान को अफगानिस्तान की सीमाओं के पार खदेड़ दिया था। एक बारगी तो ऐसा लगने लगा था कि तालिबान के खात्मा तय है। अमरीका उसे निपटा कर ही दम लेगा। लेकिन, अंत में हुआ एकदम इससे उलट। तालिबान ‘हाइड्रा’ नाम के जीव की तरह अमर बन गया। जैसे ही अमरीका ने अफगानिस्तान से अपनी सेना वापसी की घोषणा की, अचानक तालिबान फिर से खड़ा हो गया। देखते ही देखते कुछ ही समय में उसने फिर लड़ाकों की बड़ी संख्या अफगानिस्तान के खिलाफ खड़ी कर दी।
अचानक कौन सा बड़ा हमदर्द और मदद करने वाला उनको मिल गया कि अफगानिस्तान में तख्ता पलट कर दिया? इस प्रश्न का उत्तरभी अमरीका को देना पड़ेगा। दरअसल, ये भी किसी से छिपा नहीं है कि पाकिस्तान लंबे समय तक इन तालिबानी लड़ाकों को पनाह और सरपरस्ती देता रहा है। अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी ने पाकिस्तान की सीमा से आतंकियों के आने की बात भी कही थी। लेकिन, पाकिस्तान की हरकतों को जानते-बूझते हुए भी अमरीका ने उस पर कोई कार्यवाही नहीं की। अमरीका जिस तालिबान का खात्मा करने के लिए अफगानिस्तान में घुसा था, 20 साल बाद उसी के साथ बातचीत करने के लिए तैयार हो गया। इतना ही नहीं, अमरीका ने तालिबान के साथ इस समझौते को करने के दौरान अफगान सरकार को पूरी तरह से दरकिनार किया। अपने स्तर पर आतंकवादी संगठन से “सुलह व गठजोड़” का फैसला कर लिया। हालांकि इस बात में कोई संदेह नहीं है कि इससे अमरीका की साख को ही बट्टा लगा है। अफगानिस्तान को एक कट्टर इस्लामिक आतंकी संगठन के हवाले करने की रणनीति अमरीका जैसी महाशक्ति को कूटनीति और वैश्विक मंच पर पीछे ही ढकेलेगी।
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अफगानिस्तान से अमरीकी सेना की पूरी तरह से वापसी से पहले ही तालिबान का कहर चरम पर है। राजधानी काबुल में घुसपैठ कर कब्जा जमा लिया। वहां के राष्ट्रपति अशरफ गनी को देश छोड़कर भागना पड़ा। हालात इस कदर भयावह हैं कि हथियारों के दम पर तालिबान ने अफगान नागरिकों पर इस्लामिक कानूनों को थोपना शुरू कर दिया है। अफगानिस्तान के सबसे बड़े शहरों में तालिबानी लड़ाकों का परचम लहरा रहा है। हाल में अमरीकी खुफिया एजेंसी ने एक रिपोर्ट में कहा था कि तालिबान 90 दिनों में अफगानिस्तान पर कब्जा कर लेगा. लेकिन जिस गति से तालिबानी लड़ाके अफगानिस्तान के प्रांतों पर कब्जा कर रहे हैं, उससे साफ है कि तालिबान पूरी ताकत से अफगानिस्तान को तय समय से पहले रौंद देगा। यह कहना भी गलत नहीं होगा कि अफगानिस्तान को गृह युद्ध की ओर धकेल कर अमरीका समेत दुनिया की तमाम महाशक्तियों ने बेशर्मी के साथ मुंह मोड़ लिया है।
अफगानिस्तान के भयावह हालात का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अमरीका, ब्रिटेन, कनाडा, भारत समेत कई देशों को अपने राजनयिकों, कर्मचारियों और नागरिकों को निकालने के लिए रेस्क्यू ऑपरेशन चला रखे हैं। दुनिया के तकरीबन सभी देशों ने अपने नागरिकों को तुरंत अफगानिस्तान छोड़ने को कह दिया है। गंभीर सवाल यह भी है कि सभी महाशक्तियां अफगान नागिरकों पर हो रहे अत्याचार और महिलाओं के साथ हो रहे दुर्व्यवहार पर चुप्पी क्यों साधे हुए है? अमरीका ने 9/11 हमले के बाद तोरा-बोरा की पहाड़ियों में तालिबान के संरक्षण में शरण लेने वाले अलकायदा के आतंकी ओसामा बिन लादेन को खत्म करने के लिए ‘ऑपरेशन एन्ड्यूरिंग फ्रीडम’ लॉन्च किया था। अफगानिस्तान में करीब दो दशक के लंबे समय रही अमरीकी और नाटो सेना ने ओसामा बिन लादेन को खत्म किया और उसे पनाह देने वाले तालिबान को भी काफी हद तक सीमित कर दिया। लेकिन, यह अमरीका की विफलता ही कही जाएगी कि वह दो दशक बीत जाने के बाद भी तालिबान को पूरी तरह से नेस्तनाबूद क्यों नहीं कर सका। क्या इसके पीछे भी कोई कूटनीतिक चाल है?
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तालिबान पर नियंत्रण के बाद दुनियाभर के देशों के सहयोग से अफगानिस्तान ने काफी प्रगति की। लेकिन, इस देश में शांति स्थापित करने की कोशिशों में कामयाबी हासिल नही हो सकी। दुनिया की सबसे बड़ी महाशक्ति ने भी तालिबान के आगे घुटने टेक दिए। तालिबान को पूरी तरह से खत्म करने में नाकाम रहे अमरीका को भी हताश होकर अफगानिस्तान से अपनी सेनाएं वापस बुलाने पर मजबूर होना पड़ा।
क्या भारत के लिए भी बड़ा खतरा बनेगा तालिबान?
तालिबान पर पाकिस्तान की मेहरबानी जगजाहिर है। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान हमेशा से तालिबान के समर्थक रहे हैं। उनके बयानों से उनके मंसूबे सामने आ ही जाते हैं। उन्होंने हाल में कहा था, जब तक अशरफ गनी राष्ट्रपति बने रहेंगे, तालिबान की अफगान सरकार से बातचीत मुश्किल है। पाकिस्तान के करीबी दोस्त चीन ने भी कुछ समय पहले तालिबानी प्रतिनिधि से मुलाकात की थी। अमरीका को नीचा दिखाने के लिए चीन कुछ भी करने को तैयार है। इस स्थिति में इनकार नहीं किया जा सकता कि तालिबान को चीन की तरफ से बैक डोर सपोर्ट मिल रहा है। इन सबका गठजोड़ भारत के लिए बड़ा खतरा बन सकता है। लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद और अल कायदा जैसे आतंकवादी संगठनों के साथ तालिबान के खुले संबंध रहे हैं। अफगानिस्तान पर तालिबान की हुकूमत के बाद ये आशंका परवान चढ़ते दिख रही है कि तालिबान भारत के खिलाफ अफगानिस्तान में जहर बोने का महापाप करेगा।
दुनिया के तमाम देश इस बात की आशंका जता रहे हैं कि अफगानिस्तान आतंकवाद का गढ़ बनने की ओर तेजी से बढ़ रहा है। अमरीका के हाथ खींच लेने की वजह से कोई भी सीधे तौर पर कुछ करने की स्थिति में नही हैं। इतिहास गवाह है कि कंधार विमान हाईजैक समेत कई घटनाओं के पीछे इसी तरह की आतंकी ताकतें रही हैं, जिन्हें तालिबान ने पोषित करने का काम किया है। बीते कुछ समय में भारत ने अफगानिस्तान में जो पकड़ बनाई है, वह अब पूरी तरह से कमजोर पड़ जाएगी। जिस तालिबान से भारत बात करने से कतराता रहा है, उसके साथ संबंधों को बनाने के लिए शुरुआत करनी पड़ेगी, जो आसान नहीं लगती। क्योंकि तालिबान पहले ही कह चुका है कि भारत के साथ बातचीत केवल ‘निषपक्षता’ की शर्त पर ही होगी। इस स्थिति में भारत यदि अफगान सरकार के पक्ष में कोई बयान जारी करता है, तो ये उसके खिलाफ ही जाएगा। ऐसे आने वाले कुछ महीने भारत के लिए निर्णायक साबित होंगे।
(लेखकः राजेश कसेरा राजस्थान के जाने-माने पत्रकार हैं। राजेश कसेरा, राजस्थान पत्रिका सहित कई प्रमुख हिंदी मीडिया संस्थानों में पत्रकार से लेकर संपादक के तौर पर महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां संभाल चुके हैं।)