कोरोनाः एक आम डॉक्टर भी देश के काम आ सकता है, बशर्ते…

अजय सिंह

अजय सिंह

भारतीय जनसंचार संस्थान से अध्ययन करने के बाद सामाजिक व्यवहार एवं जनसंचार विषय पर निरंतर शोध में जुटे हैं।

सच तो यह है कि भारत में कोरोना की दूसरी लहर कम्युनिटी स्प्रेड कर चुकी है। अब कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग काम नहीं आने वाला। लेकिन राहत की बात यह है कि कोरोना में मृत्युदर कोई खास नहीं है। इससे अधिक तो लोग डेंगू, मलेरिया, टाइफॉयड में ही मर जाते हैं। अगर किडनी व फेफड़े से संबंधित बीमारियों, ब्लड प्रेशर, शुगर, कैंसर… जैसी बीमारियों से पीड़ित उम्रदराज़ मरीजों को छोड़कर बातें करें तो, इसमें मृत्युदर 1% से भी कम है। और दूसरी संतोष की बात यह कि कोरोना के इलाज़ में सर्जरी जैसे किसी बहुत तकनीकी और महंगी विधि की भी ज़रूरत नहीं है। इसके इलाज़ में एक आम डॉक्टर भी देश के काम आ सकता है। बशर्ते, उसे पीपीई किट्स, ऑक्सीजन सिलेंडर, ऑक्सीजन किट्स, रेमडिसिवियर इंजेक्शन समेत सभी अन्य दवाइयां… उपलब्ध करा दी जाएं। ऐसे में कोरोना के बढ़ते मामलों को देखते हुए सरकार दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ सिर्फ़ दो काम कर दे, तो इस लड़ाई को बहुत ही व्यवस्थित ढंग से जीता जा सकता है।

पहला: कैसे भी करके युद्ध स्तर पर पीपीई किट्स, ऑक्सीजन सिलेंडर, ऑक्सीजन किट्स, रेमडिसिवियर इंजेक्शन समेत सभी अन्य दवाइयों के उत्पादन को बढ़ा दे (अगर इन सबकी पर्याप्त उपलब्धता होगी तो कालाबाज़ारी भी नहीं होगी)…

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दूसरा: सभी निजी अस्पतालों व क्लीनिक्स को सरकारी नियंत्रण में लेकर (भले ही 2-3 महीनों के लिए अनुच्छेद 356 लागू करना पड़ जाए), वहां पीपीई किट्स, ऑक्सीजन सिलेंडर, ऑक्सीजन किट्स, रेमडिसिवियर इंजेक्शन समेत सभी अन्य दवाइयां न्यूनतम संभव कीमत (सब्सिडाइज्ड रेट) पर उपलब्ध कराये जाएं।

और उन सभी निजी अस्पतालों व क्लीनिक्स में कार्यरत और देशभर में पंजीकृत सभी निजी (लाखों की संख्या में) डॉक्टर्स को एक सप्ताह की विधिवत ट्रेनिग देकर, युद्ध स्तर पर लगा दिया जाए। इसके बाद किसी भी क्षेत्र के कोरोना मरीज़ को पास के ही सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र (सीएचसी), सार्वजनिक स्वास्थ्य केंद्र (पीएचसी) या निजी अस्पताल या फिर किसी भी तरह के सार्वजनिक/निजी स्वास्थ्य केंद्रों में इलाज अनिवार्य कर दिया जाए… फिलहाल, कहने को यह भले बहुत आसान है। लेकिन इसे करने के लिए सरकार में बहुत ही दृढ़ इच्छाशक्ति और मज़बूत प्रशासनिक तंत्र व नागरिकों में राष्ट्र के प्रति एकजुटता की भावना ज़रूरी है…

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लॉकडाउन न लगाने का मतलब है, अर्थव्यवस्था न रुकने पाए, इसके लिए आर्थिक गतिविधियों से संबंधित आवश्यक क्षेत्र चालू रहें। लेकिन चुनाव, रैलियां, कुंभ, आईपीएल… इत्यादि क्या हैं??? पढ़ा था कि देश में माननीय सर्वोच्च न्यायालय और चुनाव आयोग जैसी ‘स्वतंत्र संस्थाएं’ भी रहती हैं…!
लॉकडाउन न लगाया जाए, ये समझ में आता है। लेकिन फिर ये बैंक खुलने के घंटों में कटौती, नाइट कर्फ्यू, साप्ताहिक कर्फ्यू… ये सब क्या हैं???
इससे तो चालू घंटों में और भी भीड़ बढ़ेगी! हताशा बढ़ेगी। हड़बड़ाहट बढ़ेगी। संक्रमण और बढ़ेंगे। इन सबसे सिर्फ़ शासन मे बैठे लोगों की प्रशासनिक समझ व तालमेल का पता चल रहा है।

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