महामारी की चीख-पुकार के बीच दुनिया के मशहूर अस्पताल में ताले क्यों?

नैनीताल के पास भवाली में बने अद्भुत कामों का साक्षी टीबी सेनिटोरियम अस्पताल। दुनिया में जब क्षय रोग का इलाज न था तब अंग्रेजों ने 1912 में यह अस्पताल बनाया। बताते हैं यहीं टीबी की दवा का परीक्षण सफल हुआ था। जिस गरीब लावारिस बालक पर दवा का परीक्षण किया गया वह बड़ा होकर कुमाऊं विश्वविद्यायल में चपरासी से लेकर उप कुलपति तक की हर कुर्सी पर विराजमान रहा।

कुंभ के बाद भयावह रूप से फैली महामारी की चीख-पुकार से राहत के लिए उत्तराखंड में स्कूल, स्टेडियम, हॉस्टल कोरोना सेंटर बनाए जा रहे। कहा जा रहा, इनमें पर्याप्त आक्सीजन भी होगी। सीएम-डीएम, मंत्री-विधायकों का गठजोड़ करोड़ों के वारे-न्यारे करने में जुट चुका। राज्य में टीके लगने के लिए भी नर्स-फार्मेसिस्ट नहीं हैं, डाक्टरों का भारी टोटा है।

नए कोरोना सेंटरों में मरीजों को कौन आक्सीजन देगा? मरीज को कितनी देर कैसे आक्सीजन दी जाएगी? इसका जवाब देने वाला कोई नहीं है। पता तो यहां तक चल रहा है कि कामचलाऊ इन कोविड सेंटरों के लिए मास्टर, आशा-आंगनबाड़ी वर्कर, कोच, खिलाड़ी, वार्डन, चौकीदारों का ड्यूटी चार्ट तैयार किया जा रहा है। इस तरह की कवायद देश के कई दूसरे राज्यों में भी हो रही है।

इसी बीच ऐसी तमाम अस्पतालों और स्वास्थ्य सुविधा मुहैया कराने को तैयार इमारतें किसी काम नहीं आ रहीं या फिर उन्हें काम में नहीं लाया जा रहा। उत्तरप्रदेश में गांव-देहात में बने तमाम स्वास्थ्य केंद्र ऐसे हैं, जिनमें आज तक एक भी मरीज नहीं आया और न ही कोई स्वास्थ्यकर्मी। कई जगह जानवर तक बंध रहे हैं। इससे भी गंभीर स्थिति उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल में दिखाई दे रही है। एक तरफ आसपास सैकड़ों लोगों की जान जा रही है तो दूसरी ओर दुनियाभर में मशहूर एक अस्पताल में ताला लगा हैं।

READ MORE: ममता ने मारा गोल, फाउल करके

बात हो रही है नैनीताल के पास भवाली में बने अद्भुत कामों का साक्षी टीबी सेनिटोरियम। दुनिया में जब क्षय रोग का इलाज न था तब अंग्रेजों ने 1912 में यह अस्पताल बनाया। बताते हैं यहीं टीबी की दवा का परीक्षण सफल हुआ था। जिस गरीब लावारिस बालक पर दवा का परीक्षण किया गया वह बड़ा होकर कुमाऊं विश्वविद्यायल में चपरासी से लेकर उप कुलपति तक की हर कुर्सी पर विराजमान रहा।

जब जवाहरलाल नेहरू अल्मोड़ा जेल में थे तब कमला नेहरू का इसी अस्पताल में इलाज चला। हालांकि बाद में लौसने स्विट्जरलैंड में उनका निधन हो गया। उस जमाने के अंग्रेज अफसरों के अलावा बाद में भी देश-विदेश के लाखों क्षय रोगियों का यहां इलाज होता रहा। इस अस्पताल के नाम और भी लाखों उपलब्धियां दर्ज हैं।

आजादी के बाद करीब तीन दशक तक देश में स्वास्थ्य सेवाओं पर ध्यान दिया गया। सेनिटोरियम का भी विकास हुआ, देश में टीबी के सैकड़ों अलग अस्पताल बने। घातक मलेरिया से निपटने का भी विभाग बना, कई अलग अस्पताल खुले।

मलेरिया विभाग के सैकड़ों कर्मचारी अल सुबह जीपों में बैठकर चिह्नित स्थानों पर जाया करते और शीशे की लंबी परखनली से मच्छरों के लारवा एकत्र किया करते थे। लैबों में इनके परीक्षण चलते और दवाओं पर शोध होते। वर्षों चली प्रक्रिया के बाद मलेरिया की दवा खोजी गई। इस विभाग को नया टास्क देने के बजाए सरकार ने मलेरिया विभाग खत्म कर दिया।

READ MORE: कोरोना से लड़ेगा इंडिया जीतेगा इंडिया: आओ मिलकर बेहतर जहान बनाएं

घने बांज (ओक) और देवदार के जंगलों के बीच बने सेनिटोरियम के आलीशान भवन की बर्बादी भी तीन दशक पुरानी है। मजबूत लकड़ी से बने इन भवनों में अब भी बहुत कुछ बाकी है। यहां बेड हैं, अव्वल दर्जे के कमरे हैं, कुछ स्टाफ भी बचा है। घातक रोगों के उपचार के लिए यहां शानदार आबोहवा है।

धरती पर प्राप्त अब तक के ज्ञान के अनुसार असाध्य रोगों के उपचार की तलाश प्रकृति की गोद में हुआ करती है। विशेषज्ञ बताते हैं विषाणु को निष्क्रिय करने के लिए विशेष तापमान की जरूरत होती है। भारत में जम्मू-कश्मीर से अरुणाचल तक फैला विशाल मध्य हिमालयी भूभाग प्राकृतिक अस्पताल हैं। यहां शुद्ध हवा, ठंडी बारिश की फुहारें, स्वास्थ्य वर्द्धक खनिजों से भरपूर मीठा पानी, मन मस्तिष्क को सुकून देने वाली पर्वतमाला और जंगल हैं। इन इलाकों में मेडिकल शिक्षा हासिल किए बेरोजगारों की भी भरमार है।

कोरोना वायरस के लिहाज से भवाली सेनिटोरियम को एक सप्ताह में लाजवाब बनाया जा सकता है। अस्पताल के 20-25 किमी की परिधि में सेना की विविध बटालियनों के हजारों जवान कैंपों में रहते हैं। ये सैनिक रोज गड्ढे खोदते और उनको भरते हैं। बूट-बेल्ट चमकाते और वाहनों से धूल झाड़ते हैं। अफसर नित परेड की सलामी लेते और ड्रेस की नजाकत भांपते हैं। कैंटीनों में भोजन बनता है, जवान दिनभर मैदान की दूब उखाड़ते हैं।

READ MORE: जब सुरज हुआ बूढ़ा तो जमीन छट-पटा उठी

इन प्रशिक्षित अनुशासित जवानों को भवाली सेनीटोरियम का जिम्मा सौंप दिया जाए तो एक सप्ताह में सूरत बदल जाएगी। अस्पताल के आसपास फैले विराट जंगल में हजारों मरीजों के लिए रातों-रात बेड बनेंगे, शुद्ध पानी लिफ्ट होगा, कुदरती आक्सीजन का इंतजाम होगा। यह इलाका पहाड़ में होने के बाद भी मैदान मैदान की आसान पहुंच में है। मरीजों को लाने-ले जाने में कोई दिक्कत नहीं, चौड़ी सड़कों में सुगम यातायात उपलब्ध है। देशभर में ऐसी ही अकूत धरोहरें बर्बाद पड़ी हैं।

लेखक – चंद्रशेखर जोशी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, यह उनके निजी विचार हैं।)

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button
error: Content is protected !!