जीवन की अंतिम अवस्था में वृद्ध है सम्मान के अधिकारी

वृद्धों की उपस्थिति तथा मार्गदर्शन, परिवार और समाज दोनों के लिए कल्याणकारी

जीवन को मुख्यतः चार अवस्थाओं में बाँटा गया है । ये अवस्थाएँ शैशवावस्था, बाल्यावस्था, युवावस्था तथा वृद्धावस्था हैं । जिस प्रकार शैशवास्था के बाद बाल्यावस्था और बाल्यावस्था के बाद युवावस्था आती है, ठीक उसी प्रकार युवावस्था के बाद वृद्धावस्था आती है । बाल्यावस्था किसी भी व्यक्ति के जीवन का स्वर्णिम काल होता है ।

यही कारण है कि हर व्यक्ति अपने बचपन को फिर से जीने की इच्छा रखता है जीवन में सृजनात्मकता तथा रचनात्मकता का संचार करने वाली युवावस्था साहस, उमंग और जोश से भरी होती है । साधारणतः अपने जीवन की अधिकांश उपलब्धियां मनुष्य इसी अवस्था में अर्जित करता है । इसीलिए हर कोई सदैव युवा रहने का स्वप्न देखता है, लेकिन वृद्धावस्था इन दोनों अवस्थाओं से भिन्न है । मनुष्य प्राचीनकाल से ही लम्बी आयु की कामना करता आया है और यह भी सत्य है कि वह कमी वृद्ध नहीं होना चाहता, परन्तु युवा होने के बाद शरीर का वृद्ध होना प्रकृति का सनातन नियम है और हम सब इस नियम से बँधे हुए हैं, बावजूद इसके अनेक शारीरिक तथा मानसिक समस्याओं का सामना करने के कारण कोई भी व्यक्ति वृद्धावस्था को सहज रूप से स्वीकार नहीं कर पाता है ।

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वृद्धावस्था जीवन का वह सोपान होती है, जब व्यक्ति अपने जीवन की सांध्यबेला का अनुभव करता है । इस अनुभव का सबसे पहला माध्यम बनता है-उसका अपना शरीर इस अवस्था में मनुष्य की शारीरिक क्षमता में कमी आ जाती है, जिससे उसकी निर्भरता दूसरों पर बढ़ जाती है । शरीर की सभी इन्द्रियों की गीत धीमी पड़ जाती है और व्यक्ति धीरे-धीरे उन पर अपना नियन्त्रण खोने लगता है । शरीर कमजोर और अशक्त बन जाता है । छोटी-छोटी बीमारियों भी व्यक्ति को बडा असहाय बना देती है । जो व्यक्ति युवावस्था में अपने स्वास्थ्य के प्रति बेहद सचेत होते हैं, वृद्धावस्था में वे भी उम्र के एक पढ़ाव पर आ कर रोगों से बच नहीं पाते । इस अवस्था में व्यक्ति रोगमुक्त रहे, ऐसा होना लगभग असम्भव सा है । इसीलिए चिकित्सकों से नियमित रूप से परामर्श करना उनके जीवन का अंग बन जाता है ।

यह सत्य है कि उम्र के इस पड़ाव पर वरिष्ठ नागरिकों की अपनी अनेक शारीरिक व्याधियाँ सिर उठा लेती है, परन्तु यह उनकी वास्तविक समस्या नहीं है । उनकी वास्तविक समस्या मानसिक है । सरकारी अथवा गैर-सरकारी संगठनों में वेतनभोगी कर्मचारियों को एक निर्धारित आयु के बाद सेवानिवृत्त कर दिया जाता है । यह मान लिया जाता है कि अब व्यक्ति शारीरिक और मानसिक श्रम के योग्य नहीं रहा, चाहे वह व्यक्ति स्वस्थ ही क्यों न हो । इसके बाद उसके जीवन में अनेक कठिनाईयाँ आने लगती हैं । जैसे ही व्यक्ति की आर्थिक उपयोगिता में कमी आती है, वह सामाजिक रूप से भी अनुपयोगी समझ लिया जाता है । इससे व्यक्ति को एक तरफ तो सीमित तथा अल्प धन की उपलब्धता के कारण आर्थिक कष्ट उठाना पड़ता है, तो दूसरी ओर समाज एवं परिवार की नजरों में ‘बोझ’, ‘अनुपयोगी’ तथा ‘फालतू’ आदि समझे जाने से उसे मानसिक पीड़ा होती है । जो व्यक्ति कुछ समय पहले तक सबके लिए विशिष्ट था, महत्वपूर्ण था, अचानक ही उसे बोझ समझा जाने लगता है । उसके मान-सम्मान एवं भावनाओं का महत्व बहुत कम हो जाता है । भागदौड़ भरी जिन्दगी में युवा पीढी उससे दूरी बना लेती है और वह अकेला रह जाता है । जब व्यक्ति मानसिक रूप से स्वयं को अकेला पाता है, तो वह उसके जीवन का सबसे कठिन समय होता है ।

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व्यक्ति का अस्तित्व तथा उसके उपयोगी होने की भावना से व्यक्ति में प्रेरणा शक्ति तथा आत्मविश्वास का संचार होता है, परन्तु जब इस आत्मविश्वास जनित शक्ति का ह्रास हो जाता है तो व्यक्ति की स्थिति बड़ी विकट और दयनीय हो जाती है । यही परिस्थिति वृद्धावस्था का सबसे बड़ा अभिशाप है । आज युवा पीढ़ी  की मानसिकता यह हो गई है कि वे वृद्ध व्यक्ति को परिवार पर बोझ समझते हैं । इसीलिए आजकल तो बच्चे अपने वृद्ध माता-पिता को घर से निकालकर उन्हें एक अपमानजनक जीवन जीने के लिए असहाय छोड़ देते है । यही कारण है कि आज भारत में भी ‘ओल्ड एज होम’ की अवधारणा बलवती होती जा रही है । यदि कोई इन ओल्ड ऐज होम जाकर सर्वे करे तो उन्हें पता लगेगा की वह रहने वाले अधिकाश वृद्धों के बच्चे बहुत अच्छी पोस्ट पर जॉब कर रहे है और पैसों की कोई कमी नहीं है |

जो वृद्ध माता-पिता बिल्कुल अकेले रह जाते है, उनके लिए ‘ओल्ड एज होम’ जाने के अतिरिक्त कोई और मार्ग शेष नहीं बचता और जो लोग इनका हिस्सा नहीं बनते तथा परिवार से दूर अकेले रहने का जोखिम उठाते हैं, उन्हें आपराधिक तत्वों का शिकार बनना पड़ता है । वृद्धजनों को अकेला जानकर उनके साथ लूटपाट कर उनकी हत्या कर देने सम्बन्धी धटनाओं में लगातार वृद्धि होती जा रही है । आज हममें से बहुत से लोग बुजुर्गों के महत्व से भली-भांति परिचित ही नहीं हैं । सच तो यह है कि कम सक्रिय होने पर भी बुजुर्गों की उपयोगिता कम नहीं होती । एक अधिक सक्रिय बुजुर्ग जहाँ परिवार की देखभाल या उन्नति में सहयोग करता है, वहीं एक कम सक्रिय बुजुर्ग घर के सभी सदस्यों को भावनात्मक सुरक्षा देकर उन्हें एक कड़ी में पिरोए रखने में सहायक होता है । बडे-बुजुर्गों से परिवार में अनुशासन बना रहता है, जो परिवार के सभी सदस्यों के हित में होता है । अक्सर प्रतिकूल परिस्थितियों से निपटने के लिए बुजुर्गों के अनुभव बहुत उपयोगी सिद्ध होते है । आजकल के समय में जब पति-पत्नी दोनों को धनोपार्जन के लिए नौकरी पर जाना पडता है, तो घर में बुजुर्गों के होने से छोटे बच्चों का पालन-पोषण करने में सहायता मिलती है । घर में तनावपूर्ण स्थिति होने पर बुजुर्ग उसे आसानी से सँभाल लेते है और सभी सदस्यों को भावनात्मक रूप से सुरक्षा प्रदान करते हैं । अतः वरिष्ठ नागरिकों का साथ मिलना हमारे लिए किसी वरदान से कम नहीं है ।

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अंग्रेजी के प्रसिद्ध कवि रॉबर्ट ब्राउनिंग ने वृद्धावस्था के बारे में लिखा है-
”मेरे साथ रहो, रुको वृद्ध हो
अभी जीवन का सर्वोत्तम शेष है ।”
उम्रभर कड़ा परिश्रम करने के बाद वृद्धावस्था व्यक्ति के आराम करने की अवस्था होती है । वह जीवनभर दूसरों की जरूरतों को पूरा करने और अपने कर्तव्यों को निभाने में ही लगा रहता है । वृद्धावस्था में उसे अपने ऊपर ध्यान देने का भरपूर समय मिलता है, परन्तु आधुनिक दौर में स्थिति विपरीत है । सभी व्यक्तियों को यह मानसिक रूप से स्वीकार कर लेना चाहिए कि वृद्धावस्था एक-न-एक दिन सबके जीवन में आती है । वृद्धों के साथ असम्मानजनक व्यवहार न करना पूर्णतः अनैतिक है । इसीलिए हमें उनका महत्व समझते हुए उनका सम्मान करना चाहिए और उनकी सेवा करनी चाहिए । उनकी उपस्थिति तथा मार्गदर्शन, परिवार और समाज दोनों के लिए कल्याणकारी है । यदि आज हम उनका सम्मान करेंगे, तभी हम अपनी आने वाली पीढ़ी से सम्मान पाने के अधिकारी होंगे ।

लेखक: विजय निगम
जिला सहायक अधिकारी
राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक नाबार्ड कोटा

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