कोविड को लेकर इतने खौफजदा क्यों हैं हम, सच्चाई के इस पहलू को भी जानना चाहिए

आशीष आनंद

आशीष आनंद

15 सालों से पत्रकारिता के खांटी हस्ताक्षर आशीष आनंद दैनिक जागरण और अमर उजाला जैसे अखबारों से जुड़े रहे हैं। फिलहाल वह स्वतंत्र पत्रकारिता कर रहे हैं एवं TIS Media की उत्तर प्रदेश टीम का प्रमुख हिस्सा हैं।

23 अप्रैल को कोविड संक्रमण से मौत के आंकड़ों में हम दुनिया के देशों में 64वें पायदान पर थे और संक्रमण के केसेज के मामले में 48वें स्थान पर, लेकिन दहशत और खौफ के हिसाब से शायद हम दुनिया में नंबर एक पर थे। कई दुखद सूचनाओं के बीच 24 अप्रैल शाम लगभग आठ बजे एक सीनियर माइक्रोबायोलॉजिस्ट का ग्राफ के साथ यह मैसेज मिला।


माइक्रोबायोलॉजिस्ट की सूचना जांचने पर पता चला कि 24 अप्रैल को शाम सवा चार बजे तक दुनिया में अब तक दर्ज संक्रमितों की संख्या 14 करोड़ 63 लाख 42 हजार 636 हो चुके हैं, जिनमें 12 करोड़ 41 लाख 66 हजार 191 लोग रिकवर हो चुके हैं और 31 लाख 2 हजार 209 लोग अब तक मर चुके हैं। मौजूद एक्टिव केसेज 1 करोड़ 90 लाख 74 हजार 136 में से 1 लाख 9 हजार 820 की स्थिति गंभीर है यानी कुल एक्टिव केसेज का 0.6 प्रतिशत।

इन आंकड़ों में अब तक बदलाव हो चुका है, लेकिन एक्टिव केसेज और सीरियस केसेज का अनुपात जस का तस है, यानी अभी भी 0.6 प्रतिशत लोग गंभीर स्थिति में हैं। रिकवरी रेट भी नहीं घटा है।

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वैसे, सालभर में कुल मौतें 1 करोड़ 83 लाख से ज्यादा हो चुकी हैं। यानी बिना कोविड संक्रमण के डेढ़ करोड़ से ज्यादा लोग मरे हैं। अभी भी मृत्यु दर जन्म दर से ज्यादा नहीं है। यही वजह है कि कोरोना से कयामत जैसा महसूस करने के बाद भी दुनिया की जनसंख्या में इजाफा हुआ है। मानव सभ्यता भी खत्म नहीं होने जा रही। सालभर में औसत जन्मदर औसत मृत्युदर से ज्यादा लगातार बनी हुई है।

भारत में इसी समय पर 27 लाख से कम एक्टिव केस हैं, जिनमें 8944 की हालत गंभीर है। भारत में पिछले सवा साल में कोविड संक्रमण से दर्ज मौतें 1 लाख 89 हजार 549 हैं। जबकि अमेरिका में 3 लाख 85 हजार और ब्राजील में 3 लाख 86 हजार से ज्यादा मौतें हो चुकी हैं।

आप भी जानते हैं और हम भी जानते हैं। जो मौतें हुई हैं, उनमें से काफी ऐसी भी हैं, जिन्हें महज कोविड के रजिस्टर में दर्ज करना ठीक नहीं है। उम्रदराजी और पहले से कई बीमारियों से ग्रस्त लोग भी इसी रजिस्टर में दर्ज किए गए हैं।

इसका यह मतलब कतई न निकाला जाए कि यह कहा जा रहा है कि यह संक्रमण नहीं है या इससे मौतें नहीं हुई हैं। दरअसल, हमें सामने दुनिया हो या अपना देश, संक्रमण और मौतों की संख्या हर पल अपडेट हो रही है और उसी आधार पर पच्चीसों प्रकार की संवेदनशील बातचीत का माहौल बना हुआ है।

भारत में कोविड की कथित दूसरी लहर से न सिर्फ स्वास्थ्य ढांचा चरमराया हुआ दिखाई दे रहा है, उससे कई गुना ज्यादा दहशत का माहौल है। प्राणवायु ऑक्सीजन के लिए लोग तरसते दिखाई दे रहे हैं या फिर वैक्सीन को लेकर मारामारी है। बहुत से उपचार और मानकों पर बहस भी है, आम सहमति नहीं है।

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ऐसे में चिकित्सक क्या करें? वे खुद के विवेक पर ज्यादा निर्भर हैं। बेशक, तमाम तरह की चिकित्सकीय सिफारिशें सामने आ रही है, लेकिन हर मामले में वे कारगर ही हों, ऐसा भी नहीं है। इसी वजह से विशेषज्ञों की सहमति के आधार पर चिकित्सा प्रबंधन के दिशानिर्देश जारी किए गए हैं।

असल में, इन मौतों का जितना जिम्मेदार कोरोना वायरस है, उससे ज्यादा स्वास्थ्य व्यवस्था का कुप्रबंधन और मुनाफाखोर नजरिया है। जिंदगी ही हर सांस से कीमत वसूलना इस नजरिए का मकसद हमेशा से रहा है।

नेशनल हेल्थ प्रोफाइल की 2019 की रिपोर्ट बताती है कि सिर्फ पब्लिक सेक्टर के अस्पतालों में पूरे देश में सात लाख बेड हैं। प्राइवेट अस्पतालों का भी एक जाल है, जिसका केंद्रीय स्तर पर या तो डाटा नहीं है या इसे उजागर करना मुनासिब नहीं समझा जाता। बहरहाल, अनुमान यह है कि पब्लिक और प्राइवेट अस्पतालों के कुल बेड में 5 से 8 प्रतिशत आईसीयू बेड हैं। इन आईसीयू बेड में 50 प्रतिशत वेंटीलेटरयुक्त हैं।

शोधकर्ताओं का मानना है कि पूरे भारत के अस्पतालों में तकरीबन 20 लाख बेड हैं, जिनमें 95 हजार आईसीयू बेड हैं और 48 हजार वेंटीलेटर हैं। बेड और वेंटीलेटर की यह व्यवस्था भी सात राज्यों में हैं, जिनमें उत्तरप्रदेश में 14.8 प्रतिशत, कर्नाटक में 13.8 प्रतिशत, महाराष्ट्र में 12.2 प्रतिशत, तमिलनाडु में 8.1 प्रतिशत, पश्चिम बंगाल में 5.9 प्रतिशत, तेलंगाना में 5.2 प्रतिशत और केरल में 5.2 प्रतिशत हैं।

संसाधनों का यह प्रतिशत भी आबादी अनुपात में परखा जाए तो मामला कुछ अलग नजर आएगा। सालभर में कुछ इजाफा ही हुआ होगा, जब इतना दान और कर्ज कोरोना के नाम पर सरकार ने लिया है।

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20 लाख बेड का पांच प्रतिशत हुआ एक लाख, यानी इतने आईसीयू बेड हैं ही और 50 हजार के आसपास वेंटीलेटर। मौजूदा कुल केसेज में सीरियस केस लगभग नौ हजार हैं, जिन्हें वेंटीलेटर या आईसीयू की जरूरत होगी। इसको दस गुना बढ़ा दिया जाए तो भी 90 हजार आईसीयू वेड चाहिए होंगे। फिर अफरातफरी है। यही कुप्रबंधन है।

चिकित्सा व्यवस्था आबादी के अनुपात में सभी राज्यों में विकसित होती तो ऐसा नहीं होता या फिर इस समस्या को मौजूदा स्थिति में मैनेज किया जाता। यह सवाल क्यों नहीं उठना चाहिए कि सालभर पहले सरकार ने ट्रेन की बोगियों को ही आइसोलेशन कोच बनवाया और अब वो कहां है, उनसे गंभीर मरीजों को सही जगह शिफ्ट करने में मदद लेने में क्या हर्ज था?

सोचने और समझने की बात है, आज जिस ऑक्सीजन को लेकर मारामारी भारत में दिखाई दे रही है, वह क्यों है आखिर? सरकार का दावा है कि रोजाना 7500 मीट्रिक टन मेडिकल ऑक्सीजन का उत्पादन हो रहा है और कई उद्योगों को इसका उत्पादन करने को प्रोत्साहित किया जा रहा है। इसके अलावा 50 हजार मीट्रिक टन ऑक्सीजन का आयात करने को टेंडर किया है।

सच क्या है? इस वक्त अनुमानित मांग 5500 मीट्रिक टन है। यानी उत्पादन की समस्या नहीं है, बल्कि कुप्रबंधन है। जबकि एसपीओटू लेवल 90-95 है तो ऑक्सीजन अलग से देने की बहुत जरूरत भी नहीं है। यह उम्र और सामान्य स्वाथ्य भी निर्भर करता है कि शरीर खुद कितना रिकवर कर सकता है।

अब बात की जाए थोड़े से सामान्य ज्ञान की। माइक्रोबायोलॉजिस्ट का कहना है कि रहने, काम करने की जगहों पर वेंटीलेशन है तो संक्रमित होने पर भी बहुत चिंता करने की बात नहीं है। गंभीर हालत में ही अस्पताल के बेड या आईसीयू की जरूरत बनती है।

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पांचवीं कक्षा का ज्ञान यह है कि एक परिपक्व पेड़ एक इंसान के लिए जीवनभर की जरूरत की ऑक्सीजन मुहैया कराता है। इसी से साफ-सुथरी ऑक्सीजन और वेंटीलेशन होता है। दूसरी तरफ एक सच सरकार ने खुद संसद में रखा कि 2016 से 2019 के बीच कथित विकास योजनाओं की वजह से 76 लाख 72 हजार 337 पेड़ कटवा दिए। पूरी दुनिया में रोजाना 20 लाख पेड़ रोज काटे जा रहे हैं।

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