कोरोना 2.0: पत्रकारों और उनके परिवारों पर भारी पड़ रही महामारी

पत्रकारों को मुश्किल दौर में न कंपनी मदद करती और न सरकार फ्रंटलाइन वर्कर मानती

कोरोना की दूसरी लहर पत्रकारों ही नहीं उनके परिवारों पर भी खासी भारी पड़ रही है। कोविड 1.0 में दर्जनों जान लेने के बाद कोविड 2.0 पत्रकारों के लिए काल साबित हो रहा है। बड़ी बात यह है कि युवा पत्रकारों को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ रही है। लेकिन, विडंबना यह है कि जिन कंपनियों के लिए पत्रकार अपनी जान दे रहे हैं वह मीडिया हाउस उनकी मदद के लिए आगे आते हैं और न ही सरकारें उन्हें फ्रंटलाइन वॉरियर मानती हैं। ऐसे में बेहद कम तनख्वाहों पर नौकरी करने वाले इन मुलाजिमों की मौत उनके परिवार पर मुसीबतों का पहाड़ बनकर टूट पड़ती है। – फ्री वाइसः विनीत सिंह

मीडिया संस्थानों में कोविड 1.0 के दौरान खर्चे बचाने के नाम पर हजारों पत्रकारों की नौकरियां छीन ली थी। अचानक नौकरियों से निकाले गए लोगों ने सरकार से लेकर अदालतों तक के दरवाजे खटखटाए, लेकिन देश के श्रम कानून मालिकानों के आगे बौने साबित हो गए। मीडिया संस्थानों ने स्टाफ तो खूब घटाया, लेकिन बात जब काम की आई तो जिसे पहले पांच लोग कर रहे थे अब उसे एक ही आदमी से करवाया जाने लगा। आखिर, मरता क्या न करता की स्थिति में नौकरियां बचाने के लिए देश भर के पत्रकारों ने अपनी क्षमताओं से भी ज्यादा काम किया। 6 जून 2020 को दिल्ली एम्स की चौथी मंजिल से कूदकर जान देने वाले पत्रकार तरुण सिसोदिया की मौत को चाहकर भी नहीं भूल सकते। कोविड पॉजिटिव होने के बाद भी तरुण एम्स से लगातार काम कर रहे थे। उनके सीनियर्स ने उन्हें दिलासा देना तो दूर काम कम करने तक की जहमत तक नहीं उठाई।

भयावह है आंकड़े
कोरोना की पहली लहर के दौरान 1 मार्च 2020 के बाद दुनिया भर के 602 पत्रकारों की कोरोना की चपेट में आकर अधिकारिक मौत हुई थी। हालांकि यह आंकड़ा वास्तविकता से बेहद कम है, क्योंकि किसी भी देश की सरकार ने पत्रकारों की मौत के अलग से आंकड़े जारी नहीं किए थे। जेनेवा स्थित अंतरराष्ट्रीय मीडिया निगरानी सगंठन प्रेस इम्बलम कैंपेन (पीईसी) के महासचिव ब्लाइस लेम्पेन कहते हैं कि कोरोना की चपेट मे आकर मरने वाले पत्रकारों की वास्तविक संख्या का आंकलन करना फिलहाल असंभव है। क्योंकि, न तो सरकारें और न ही उन्हें नौकरी देने वाले मीडिया संस्थान इस तरह के आंकड़े संभाल कर रखते हैं। लेम्पेन बताते हैं कि साल 2020 में कोरोना महामारी से मरने वाले पत्रकारों के मामले में सबसे ज्यादा भयावह हालात लैटिन अमेरिका के थे। यहां सबसे ज्यादा 303 पत्रकारों की कोरोना की चपेट में आने से मौत हुई। जबकि एशिया में 145, यूरोप में 94, उत्तरी अमेरिका में 32 और अफ्रीका में 28 मौतें रिकॉर्ड की गईं।

आखिर मौत की वजह क्या
अंतरराष्ट्रीय मीडिया निगरानी सगंठन प्रेस इम्बलम कैंपेन (पीईसी) के महासचिव ब्लाइस लेम्पेन कहते हैं कि कोरोना वायरस महामारी जब दुनिया भर में लाखों लोगों की जान ले चुकी थी, तब भी पत्रकार इस दौरान अपनी जान दांव पर लगाकर खबरें निकाल रहे थे। वह बता रहे थे कि दुनिया कितने मुश्किल दौर में फस चुकी है। वह एक सच्चे सिपाही की तरह कोरोना के मोर्चे पर अग्रिम पंक्ति में खड़े होकर काम कर रहे थे। इस मोर्चे पर सिर्फ पत्रकार ही नहीं थे… उनके परिजन भी थे। क्योंकि, काम खत्म करने के बाद पत्रकार लौटकर घर ही जाता है। जहां वह परिजनों के साथ मिलकर उनके साथ बैठकर अपने दिन भर के बुरे अनुभवों को खत्म करने की कोशिश करता है। लेम्पेन कहते हैं कि दुनिया के तमाम मुल्कों और मीडिया संस्थानों ने वर्क फ्रॉम होम का ढ़ोंग तो खूब किया, लेकिन वास्तविकता यह है कि उस दौरान न सिर्फ पत्रकारों को फील्ड में जमकर दौड़ाया गया, बल्कि विरोध करने वाले लोगों के सुदूर तबादले किए गए, उन्हें अखबार बांटने तक के काम में झोंक दिया गया। इससे भी बड़ी चीज जूम मिटिंग के नाम पर उन्हें 24 घंटे का बंधुआ मजदूर बना दिया गया। विरोध करने पर नौकरी से निकाला गया सो अलग।

संकट में पत्रकारिता
पीईसी के महासचिव ब्लाइस लेम्पेन ने एक बयान में कहा, “खबरों की सच्चाई पता करने और वास्तविकता जानने के कारण पत्रकारों का फील्ड मे जाना मजबूरी है। जिसके वजह से वह कोरना वायरस की चपेट में आते हैं और इसके बाद वह दो तरफा मुश्किलों यानि नौकरी एवं जान जाने के खतरे के बीच एक कमरे में आइसोलेट हो जाते हैं। रही बात फ्रीलांसर और वर्क फ्रॉम होम की तो यह सबसे बड़ा छालावा है क्योंकि पत्रकारिता ऐसा काम है जिसे घर बैठकर किसी भी सूरत में नहीं किया जा सकता। ऊपर से पत्रकारों की मृत्यु का कारण अक्सरकर स्पष्ट नहीं किया जाता। उनकी मृत्यु की घोषणा नहीं की जाती है या कोई विश्वसनीय स्थानीय जानकारी नहीं होती है। पिछले साल मार्च के बाद से पेरू में सबसे ज्यादा मीडियाकर्मी कोरोना महामारी में मारे गए। पेरू में कोरोना वायरस की वजह से सबसे ज्यादा 93 मीडियाकर्मियों की मौत हुई। इसके बाद ब्राजील में 55, भारत में 53, मेक्सिको में 45, इक्वाडोर में 42, बांग्लादेश में 41, इटली में 37 और अमेरिका 31 पत्रकारों की मौत हुई। लेकिन, किसी भी सरकार या नौकरी प्रदाता मीडिया संस्थान ने पत्रकारों को कोरोना वॉरियर मानना तो दूर फ्रंट लाइन वर्कर तक नहीं माना। जिसके चलते उन्हें किसी भी तरह की मदद की बात तो दूर घर चलाने के लिए आर्थिक सहायता तक नहीं मिल सकी। जिनकी नौकरी छीन ली गई उन पर तो मानसिक और आर्थिक, दो तरफा हमला किया गया।

कोरोना 2.0ः हालात भयावह
सरकार भले ही पत्रकारों को फ्रंटलाइन वर्कर न मान रहीं हो लेकिन पत्रकार कोरोना संक्रमितों के साथ घर से लेकर अस्पताल और अगर कोई अनहोनी होती है तो अस्पताल से लेकर शमशान तक साथ रहते है। यही कारण है कि पत्रकारिता जगत को इसका नुकसान भी उठाना पड़ रहा है। कोरोना की दूसरी लहर में जहां 2 दर्जन से अधिक पत्रकारों की अभी तक मौत हो चुकी है, तो उनके परिवार भी इससे अछूते नहीं हैं। बहुत से पत्रकारों ने अपने परिजनों को इस कोरोना काल में खोया है। अभी भी बहुत से पत्रकार अस्पतालो में जिंदगी और मौत से लड़ रहे हैं । कोरोना की दूसरी लहर में जहां बीती 27 मार्च को उत्तर प्रदेश राज्य मान्यता प्राप्त पत्रकार समिति के सदस्य प्रमोद श्रीवास्तव की कोरोना वायरस की वजह से मृत्यु होने के बाद ऐसा सिलसिला शुरू हुआ जिसने पूरे पत्रकारिता जगत की आंखों को नम कर रखा है । यह पत्रकारों के काम करने का हौसला ही है कि वह इतना दर्द झेलने के बाद भी लगातार अपने कर्तव्य पथ पर डटे हुए हैं।

युवाओं को खोने का गम
कोरोना वायरस के दुष्प्रकोप से ताविशी श्रीवास्तव जैसी अनुभवी पत्रकार को नहीं बचाया जा सका तो अंकित शुक्ला जैसे युवा पत्रकार भी करोना की वजह से हम सबके बीच नही रहे। बीते दिनों वरिष्ठ पत्रकार पी पी सिंहा, पवन मिश्रा, बरेली के युवा पत्रकार प्रशांत सक्सेना की कोरोना के कारण मौत हो हुई । वहीं वरिष्ठ पत्रकार राशिद मास्टर साहब, यूएनआई ब्यूरो चीफ हिमांशु जोशी, वरिष्ठ पत्रकार सच्चिदानंद सच्चे, दुर्गा प्रसाद शुक्ला, मोहम्मद वसीम, हमजा रहमान, रफीक, आगरा के वरिष्ठ पत्रकार पंकज कुलश्रेष्ठ और ब्रजेश पटेल जैसे कई साहसी पत्रकार थे, जिन्हें कोरोना ने निगल लिया ।

परिवारों पर भी टूटा कहर
कोरोना ने सिर्फ पत्रकारों को ही नहीं प्रभावित किया, बल्कि उनके परिवारों पर भी कहर बनकर टूटा । दैनिक जागरण के पत्रकार अंकित शुक्ला की जहां कोरोना के कारण मौत हो गई तो उसके 1 दिन पहले उनके ताऊ की और अंकित शुक्ला की मौत के 3 दिन बाद उनके पिता की भी इसी वायरस के चलते मृत्यु हो गई। वहीं उनकी मां और पत्नी अभी भी अस्पताल में अपना इलाज करा रही है। इस तरह की विभीषिका को सुनकर शायद ही कोई ऐसा हो जिसकी आंखें नम ना हो जाए। वही अमर उजाला के वरिष्ठ पत्रकार आलोक दीक्षित की माता को कोरोना वायरस ने निगल लिया, वरिष्ठ पत्रकार राजीव श्रीवास्तव की माता की भी मृत्यु कोरोना और सिस्टम की बदहाली के कारण हुई। वरिष्ठ पत्रकार शिव शंकर गोस्वामी ने अपनी माता और दामाद को इस वायरस के कारण खो दिया।इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के पत्रकार पुनीत मोहन और आकाश यादव के पिता की भी मौत कोरोना वायरस और बदहाल सिस्टम के कारण ही हुई। वरिष्ठ पत्रकार अल्ह्मरा खान की मां और हिंदी खबर के कैमरामैन मनोज की माता और भाभी की भी जान इस कोरोना वायरस ने ली। कोरोना ने पत्रकारों और उनके परिवारो को बुरी तरह से प्रभावित किया हैं लेकिन सरकार इस पर कोई ध्यान नही दे रही। वरिष्ठ पत्रकार एवं नेशनल यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट इंडिया के संस्थापक सदस्य डॉ. बचन सिंह सिकरवार कहते हैं कि पत्रकार सबसे दयनीय अवस्था में है। पत्रकार अस्पताल से लेकर शमशान तक काम करता है, लेकिन फिर भी उसे फ्रंटलाइन वर्कर नहीं माना जाता। बड़ी बात यह है कि पत्रकारों की मौत के बाद सरकारों से लेकर उनकी खुद की जमात सबसे पहले यही सवाल उठाती है कि आखिर वह किस अखबार में और संस्थान में पत्रकार थे? क्या मान्यता प्राप्त पत्रकार थे? क्या सरकार ने उनके गले में कोई पट्टा डाला था या फिर उनके खुद के संस्थान ने… यदि नहीं तो पत्रकार को पत्रकार मानता कौन है?

सुनो! सरकार…
नेशनल यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट इंडिया के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष रतन दीक्षित पत्रकारों के हालातों से खासे निराश हैं। वह कहते हैं कि पत्रकारों के लिए सरकारों की बात तो छोड़िए उनके संस्थान तक संवेदनशील नहीं है। उनसे चरित्र प्रमाण पत्र तो हर कोई मांगता है, लेकिन किस हालात में काम कर रहे हैं, यह पूछने की जहमत कोई नहीं उठाता। अफसरों, मंत्रियों और सरकारों के करीब कोई पत्रकार है भी तो उनकी संख्या कितनी है… गिनती पर गिने जा सकते हैं ऐसे लोग, लेकिन बाकी की पूरी जमात इलाज करना तो दूर इस हाल में ईमानदारी से अपना घर तक नहीं चला पा रही है। ऐसे में उनकी मौत के बाद परिवार की जिंदगी बद से बदतर हो जाती है। सिर्फ कोरोना संक्रमण की बात करें तो पत्रकारों के आर्थिक हालात ऐसे नहीं है कि वह मंहगा इलाज करवा सकें। इसके लिए न तो उनके पास बीमे हैं और न ही दवाओं के खर्च उठाने के पैसे। रियायतों और आर्थिक मदद तो सिर्फ जुमला भर है। वर्किंग जर्नलिस्ट को अब हमे सूचीबद्ध करना होगा। उनकी मदद के लिए आगे आना ही होगा। सरकार अपनी जिम्मेदारी न समझे तो फिर इस वर्ग को खुद के लिए झंडा उठाना होगा। नहीं तो पत्रकारिता संकट में फस जाएगी।

गुजारिश…
द इनसाइट स्टोरी (TIS Media) के जुबैर खान, हिमांशु हेमनानी द लीडर हिंदी के आशीष सक्सेना और अतीक खान कहते हैं कि कोरोना की दूसरी लहर जिस तरह से पत्रकारिता क्षेत्र को प्रभावित कर रही है शायद ही इतना कहर किसी और क्षेत्र पर पड़ा हो लेकिन फिर भी सोशल मीडिया पर पत्रकारों को लेकर अपशब्द बोले जाते हैं। अगली बार सोशल मीडिया पर पत्रकारों को लेकर अपशब्द लिखने से पहले उनके समर्पण पर जरूर ध्यान दें। कोरोना के इस दौर में पत्रकारों को आम लोगों की मांगो के लिए अपनी जान तक गंवानी पड़ रही है जिसका सरकारी बीमा तक नही होता। अब भी तमाम लोग ऐसे हैं जो आम आदमी के लिए सरकार और माफियाओं से लड़ रहे हैं, लेकिन हर किसी को एक ही नजर से देखना बंद नहीं होगा तो उस रोज जब पत्रकारों को कोसने वाले मुश्किल में फसेंगे तब उनकी मदद के लिए कोई खांटी पत्रकार बाकी नहीं बचा होगा। उस रोज… फिर कोसना कि अब वैसे पत्रकार पैदा ही कहां होते हैं।

(लेखक- विनीत सिंह  द इनसाइड स्टोरी (TIS Media) के संपादक हैं। 22 वर्षों से पत्रकारिता के क्षेत्र में निरंतर सक्रिय हैं। दैनिक जागरण, राजस्थान पत्रिका, सहारा, अमर उजाला, इंडिया टुडे, आउट लुक, एएनआई, सीएनईबी, जनमत और एनडीटीवी जैसे प्रमुख मीडिया संस्थानों से जुड़े रहने के साथ ही बरेली कॉलेज के पत्रकारिता विभाग में तीन वर्षों तक अध्यापन कार्य भी कर चुके हैं) 

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