मुद्दा: आखिर क्यों काल के गाल में समा रहे हैं पत्रकार, सिर्फ अप्रैल महीने में 77 की मौत

अतीक खान

अतीक खान

युवा पत्रकार अतीक खान रुहेलखंड क्षेत्र में निष्पक्ष पत्रकारिता की मशाल जला रहे हैं। दैनिक जागरण जैसे प्रतिष्ठित अखबारों में शिक्षा एवं स्वास्थ्य व्यवस्थाओं पर उनकी बेबाक लेखनी बीते एक दशक से हकीकत बयां कर रही है। फिलहाल TIS Media की उत्तर प्रदेश टीम का प्रमुख हिस्सा हैं।

आज तक के एंकर, रोहित सरदाना. कोरोना संक्रमित थे। शुक्रवार की सुबह दिल का दौरा पड़ने से उनकी मौत हो गई। जैसे ही ये खबर आम हुई। सोशील मीडिया पर तमाशा छिड़ गया। ठीक वैसे-जैसे पत्रकार गौरी लंकेश की मौत पर छिड़ा था। उनकी मौत पर जश्न मनाने वालों का जो सबसे भद्दा और भयावह ट्वीट था। वो ये कि एक कुतिया के मरने पर सारे पिल्ले बिलबिला उठे हैं। लगभग ऐसी ही भाषा थी। गनीमत है कि रोहित सरदाना की मौत पर ऐसा संबोधन नहीं है। लेकिन जश्न भी कम नहीं। इन करतूतों से जाहिर होता है कि समाज नफरत में किस कदर अंधा हो चुका है।

जश्नवीरों के अपने तर्क-तथ्य हैं. एक ये कि रोहित सरदाना भारत में इस्लामोफोबिया बढ़ा रहे थे। तर्क मान लेते हैं। लेकिन इस आधार पर उनकी मौत का जश्न मनाना तो वाजिब नहीं हो जाता। कम से कम इस्लाम के मानने वालों पर तो ये कतई शोभा नहीं देता। जहां माफी और सब्र का दामन थामने का पैगाम दिया गया है।

दोस्तों, ये बेहद मुश्किल वक्त है। महामारी मौत का तांडव मचाए है। शहर दर शहर श्मशान और कब्रिस्तानों में लाशों के अंबार हैं। ऑक्सीजन, बेड के लिए चीख पुकार मची है। लोग तड़प-तपड़पकर मर रहे हैं। कम से कम किसी की मदद नहीं कर सकते तो मौत का उत्सव तो न मनाइए।

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मीडिया से आपकी शिकायतें वाजिब हैं। ये मीडिया ही है जिसने आपके अंदर की इंसानियत को मारकर मौतों पर ठहाके लगाने के स्तर तक पहुंचा दिया है। मानते हैं कि आज अधिकांश पत्रकार किसी खास राजनीतिक दल, विचारधारा से प्रभावित हैं। इसमें तमाम ऐसे पत्रकार भी हैं, जिनकी अपनी मजबूरियां हैं। कईयों की संस्थागत। दरअसल, कॉरपोरेट के अतिक्रमण ने पत्रकारिता का सत्यानाश कर दिया है। अगर आप पत्रकारिता को कॉरपोरेट के कोठे से मुक्त कराने के हिमायती हैं और समाज का पक्षधर बनाना चाहते हैं। तो आपको ऐसे संस्थानों के साथ खड़ा होना पड़ेगा। उनकी मदद करनी होगी। किसी पत्रकार की मौत पर खुशियां मनाकर पत्रकारिता में कोई बदलाव नहीं आने वाला।

आपको पता भी है कि भारत में पिछले सालभर में 1 अप्रैल 2020 से 30 अप्रैल 2021 तक 128 पत्रकारों की कोरोना से मौत हो चुकी है। इसमें 77 पत्रकार इसी अप्रैल के एक महीने में जिंदगी गंवा चुके हैं। दिल्ली के इंस्टीट्यूट ऑफ परसेप्शन स्टडीज की संस्था रेट द डिबेट ने पत्रकारों की मौत की ये अध्ययन रिपोर्ट प्रकाशित की है।

इस रिपोर्ट के मुताबिक सर्वाधिक 24 पत्रकारों की मौत उत्तर प्रदेश में हुई है। तेलंगाना में 17, महाराष्ट्र में 16 और दिल्ली में 14 पत्रकार मारे गए हैं। ये कौन पत्रकार हैं? अधिकांश मीडिया संस्थान सरकारों की ढपली बन चुके हैं। तो क्या सबकी मौत का जश्न मनाया जाएगा। प्लीज ऐसा मत कीजिए। अपने अंदर इतनी नफरत मत पालिए। उसे बाहर निकालकर इस मुश्किल वक्त में लोगों की मदद को हाथ बढ़ाइए।

लेखक अशोक कुमार पांडेय लिखते हैं, तीन सौ किसानों की मौत जिनकी संवेदना को छू न सकी। जो कॉमरेड सीताराम येचुरी के बेटे की मौत पर व्यंग कर रहे थे। इरफान जैसे कलाकार की मौत पर जो ठहाके लगा रहे थे। राहत इंदौरी साहब की मौत पर जो हंस रहे थे। जो नराधम गांधी की हत्या पर मिठाई बांट रहे थे। वे संवेदना का ज्ञान अपने पास रखें। मौत का जश्न मनाना नीचता है। लेकिन सब उतने दुखी नहीं हो सकते, जितना आप हैं। अशोक कुमार पांडेय की तमाम शिकायतों के बीच उनका एक वाक्य देखिए-मौत का जश्न मनाना नीचता है।

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सामाजिक कार्यकर्ता और मुंबई के टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज के शोध छात्र फहाद अहमद लिखते हैं। यकीन मानिए आपका गुस्सा वाजिब है और आपका बोलने का अधिकार कोई नहीं छीन सकता। लेकिन हमारा यह गुस्सा कुछ मुद्दों के ऊपर है। अगर किसी की मौत के दिन हम बोलने लगे तो सिर्फ इतना सोचना है कि ये हमारे मुद्दों को कमजोर तो नहीं कर रहा है।

फहाद कहते हैं कि हमारी लड़ाई नफरत और नफरत फैलाने वाीलों के खिलाफ है। इस लड़ाई को लड़ना है। इस समाज के अंदर रहकर ही समाज को बदलने की लड़ाई भी लड़नी है। मुश्किल वक्त का संघर्ष भी बहुत मुश्किल होता है। कम्युनिटी में एक अरसे बाद लेखक, वकील, पत्रकार और एक्टिविस्ट अपनी पहचान के साथ लड़ाई के लिए तैयार हुए हैं।

फहाद ये कहने की कोशिश कर रहे हैं कि रोहित सरदाना या किसी और की मौत का जश्न कतई न मनाएं। हमारी लड़ाई नफरत से है और उसे मुहब्बत से जीतेंगे। लेकिन उनके इस संदेश का कोई असर भी होगा?

इसलिए क्योंकि दोपहर जब से रोहित सरदाना की मौत हुई है। तब से सोशल मीडिया ट्वीटर और फेसबुक पर ऐसे संदेश तैर रहे हैं, जिसमें रोहित की मौत को उनके कर्मों का हिसाब बताया जा रहा है। पत्रकार रवीश कुमार ने भी लोगों से ऐसी हरकतों से बचने की अपील की है।

सवाल ये है कि आखिर ऐसी अपीलें क्यों करनी पड़ रही हैं। जब गौरी लंकेश की हत्या हुई थी और लोग उनकी मौत का जश्न मना रहे थे। तब एक बड़े वर्ग में इसको लेकर बेचैनी सामने आई थी। फिर वही बेचैन लोग आज रोहित की मौत पर क्यों उल्लास में डूबे हैं। क्या उनकी रगों में नफरत का जहर नहीं भर गया है? कोई भी तर्क किसी की मौत पर खुशियां मनाने का आधार पेश नहीं कर सकता। दुश्मन की मौत पर भी नहीं।

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एक इंसान के तौर पर सोचिए। वो जो व्यक्ति मरा है, उसकी दो मासूम बेटियां हैं। ये भी मान लिया कि रोहित पत्रकारिता के जरिये एक वर्ग विशेष को निशाने पर लिये रहते थे। लेकिन अब तो वे नहीं हैं। अब आप जो उनके साथ कर रहे हैं। वो उनके परिवार के लिए एक सजा है। कल ये बच्चियां भी बड़ी होकर किसी मौत का जश्न मनाकर अपने पिता के साथ किए गए बर्ताव का बदला लेंगी। क्या यही चाहते हैं आप। ऐसे ही समाज के लिए लड़ रहे हैं। नहीं, न. तो प्लीज बंद कीजिए ये तमाशा।

पत्रकार रवीश कुमार ने रोहित सरदाना के परिवार को 5 करोड़ रुपये मुआवजा दिए जाने की मांग उठाई है। अन्य पत्रकारों के लिए भी मुआवजा मांगा है। भारत सरकार का सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय कोविड में मारे गए पत्रकारों का डाटा जुटा रहा है, ताकि उन्हें मुआवजा दिया जा सके। बड़ी संख्या में समाज के लोग भी मृतक पत्रकारों के परिवार की मदद के लिए सामने आ रहे हैं।

संभव हो तो आप पत्रकारों की मदद के लिए आवाज उठाइए। सकारात्मक बदलाव का ये अच्छा रास्ता हो सकता है।

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