शिक्षक दिवसः शिक्षा, समाज और भावी पीढ़ियों का संसार यानि उम्मीदों का जहां और भी है…
किसी भी समाज की प्रगति शिक्षा की संरचना पर निर्भर करती है …समाज के विकास को तब तक नहीं समझा जा सकता जब तक हम शिक्षा के ढ़ांचे को समझने की ईमानदार कोशिश नहीं करते । शिक्षा की प्राथमिकता सरकार की चिंता में होना ही चाहिए …यदि हम शिक्षा के ढ़ांचे को व्यवस्थित कर लेते हैं तो स्वाभाविक है कि हम अपने आधारभूत ढ़ांचे का ही निर्माण कर रहे हैं । शिक्षा के समाज में किसी प्रकार की अव्यवस्था की गुंजाइश नहीं होती …जो भी शिक्षित व्यक्तित्व है , वह सहज होगा , उसमें उतावलापन नहीं होगा , भागम भाग और भ्रम की गुंजाइश नहीं होगी , न ही वह अपने आपको सबसे उपर मानता । उसके भीतर समान भाव का लोकतांत्रिक व्यक्तित्व होता है जो सबकी प्रतिष्ठा करता है । शिक्षा से जहां हम अपने अधिकारों के प्रति सजग होते वहीं अपने कर्तव्य को भी पूरा करने की कोशिश करते हैं ।
एक शिक्षित व्यक्ति से हम किसी भी अवांछित कार्य की उम्मीद नहीं करते …उससे यह आशा की जाती है कि समाज पर वह भार न बने वल्कि समाज के लिए उपयोगी हो । स्व की चिंता करने से पहले वह दूसरों के बारे में सोचे । एक शिक्षित व्यक्ति पूरी संरचना के लिए मूल्यवान होता है । उसका समाज में अपने ढ़ंग से दाय होता है वह कुछ गलत नहीं करता , उसका कार्य व्यवस्थित तरीकें से होता है । इतना ही नहीं वह जो करता उसमें एक जिम्मेदारी का भाव होता है । शिक्षित व्यक्ति से समाज उम्मीद करता है कि वह समाज की प्रगति के लिए काम करें । उसके क्रियाकलाप में जिम्मेदारी का भाव हो साथ ही जो कुछ वह करता है उसे सम्मान की नजर से देखा जाता है । एक शिक्षित व्यक्ति से समाज और राष्ट्र जिम्मेदार नागरिक के रूप में व्यवहार करता है । जहां तक व्यक्तित्व निर्माण की बात है तो घर से शुरू होकर स्कूल तक बात आती है….यहीं पर जीवन का आधारभूत ढ़ांचा विकसित होता है । शिक्षा की पहली पाठशाला मां होती है …मां से होते हुए शिक्षा का संसार घर और पास – पड़ोस से होते हुए स्कूल तक।
स्कूल जाने से पहले बालक जो कुछ सीखता है उसमें माता – पिता की भूमिका और पड़ोस का संसार केन्द्र में होता है । यहां पालन – पोषण ही भावी संसार के जिम्मेदार नागरिक को रचने का काम करते हैं । परिवार के परिसर से होता हुआ बच्चा स्कूल की दुनिया में आता है जहां उसे अपने आस – पास से लेकर संसार का परिचय होता है । स्कूल की दुनिया बच्चे के लिए अजनबी न हो , स्कूल को वह अपना ही संंसार माने इसके लिए जरूरी है कि स्कूल आस – पास और पारिवारिक वातावरण की तरह हो तो बच्चों में सीखने – समझने की क्षमता कई गुना बढ़ जाती है । स्कूल का परिवेश शांत व सुसंस्कृत होना चाहिए । किसी तरह के डर का वातावरण नहीं होना चाहिए । एक बालक के भीतर बीज रूप में जो संस्कार , जो भाव यहां पड़ जाते हैं ….उसे वह पूरे जीवन धारण किये रहता है । बालक को यहां ऐसा वातावरण मिलना चाहिए कि वह निर्भय होकर अपनी बात रख सकें । उसे सुनने और समझने का अवसर मिलना चाहिए ।
स्कूल के परिवेश में एक तरह का रचनात्मक अवसर हो , रचनात्मक वातावरण हो , यहां वह अपनी मेधा से कुछ नया कर सकें , इस नयेपन में ही जीवन के पाठ छिपे होते हैं …यहां जो कुछ संस्कार रूप में पड़ जाता वह मिटता नहीं । यहां की शिक्षा अमिट होती है , इसीलिए स्कूल की शिक्षा और स्कूल के शिक्षक का…. व्यक्तित्व निर्माण में अमूल्य योग बनता है । इस रूप में शिक्षक की भूमिका न केवल उपयोगी वल्कि बहुत ज्यादा मूल्यवान हो जाती है कि वह क्या कुछ सीखा रहा है …यहां बालक जो सीखेगा उसी पर , पूरे जीवन के आगे के साल चलते हैं । यहीं से पीढ़ियों का निर्माण होता है । यहीं वह भूमि है जहांं व्यक्तित्व निर्माण का अधिकतम हिस्सा पूरा हो जाता है …चरित्र की पाठशाला घर से शुरु होकर स्कूल तक निर्मित होती है । चरित्र निर्माण का कार्य घर के परिवेश से शुरु होकर स्कूल तक चलता है । चरित्र का निर्माण बीज रूप में यहीं होता है । वैसे देखा जाय तो चरित्र विरासत के रूप में बच्चे को माता – पिता / पालक से मिलता है । किसी भी चरित्र के निर्माण में परिवार के रोल को अनदेखा नहीं किया जा सकता।
चरित्र एक तरह से हम सबकी पारिवारिक विरासत है । इस खण्ड में हम क्या कुछ करते हैं किस तरह से भावी पीढ़ियों का निर्माण करते हैं । यह देखने की बात है कि हमारा शिक्षातंत्र कितना सजग होकर भावी पीढ़ियों के निर्माण में आगे आता है । शिक्षा से व्यक्ति का जहां इकाई के रूप में निर्माण होता है वहीं वह सामाजिक निर्माण का भी काम करती है । जो समाज पढ़ – लिखकर आगे निकल गया वह अपने समाज के भीतर जहां चेतना का निर्माण करता है वहीं सामाजिक जड़ता को दूर कर समाज को आगे ले चलने में भी अपनी अग्रणी भूमिका निभाता है । एक तरह से शैैक्षिक जाागरण ही शिक्षा और समाज के केन्द्र में होता है । एक भावी और बेहतर समाज के लिए हमें भविष्योन्मुखी शिक्षा पर विचार करना चाहिए….जो विकास के साथ – साथ व्यक्तित्व के ढ़ांचे पर भी विचार कर रही हो । इस तरह से जीवन का निर्माण कर रही हो कि वर्तमान के शिलाखंड पर बैठकर हम भविष्य के आसमान को देख सके और जीवन का सही दिशा में निर्माण कर सके । यहां बच्चों के साथ जो शिक्षक हैं उनकी भूमिका बहुत बढ़ जाती है …स्कूली बच्चों के कोरे मन पर जो चित्र खींचा जायेगा वह बहुत गहरा उतरेगा । यहीं से उनके व्यक्तित्व का निर्माण होता है।
व्यक्तित्व का जो सिरा बचपन में आकार ले लेता वह कभी अपनी जगह नहीं छोड़ता । बचपन की सीख , आदर्श और पारिवारिक संस्कार जो परिवार व स्कूल से मिलते हैं उन्हीं में भावी संसार का जीवन और भविष्य छिपा होता है । व्यक्तित्व का जो रूप सामने आता उसमें हमारा बचपन ही झांकता है …व्यक्तित्व का बहुत बड़ा हिस्सा अनगढ़ तौर पर बचपन में ही आकार ले लेता है । जो राष्ट्र अपने बचपन की कद्र करता है स्वाभाविक है कि वहीं अपने भविष्य का मजबूत निर्माण भी करता है । बच्चे की प्राथमिक शिक्षा का जहां तक सवाल है , वह घरेलू परिवेश और जमीनी सच्चाइयों के बीच होना चाहिए । शिक्षा मूलतः बच्चे की मातृभाषा में दी जानी चाहिए ….मातृभाषा को सीखने के लिए अलग से प्रयास करने की जरूरत नहीं पड़ती यह बालक के भीतर जन्म से ही घर के आसपास से होते हुए आ जाती है ….इस भाषा में न केवल वह अपने आपकों अभिव्यक्त करता है वल्कि कुशलतापूर्वक अपने को सामने लाता है । आज जो शिक्षा हम दे रहे हैं वह शिक्षित तो कर रही है , पर संस्कारी नहीं बना रही है , न ही वह व्यक्तित्व को रच रही है – आज बच्चे के पास सूचनाओं का भंडार है ,ज्ञान की अथाह सामग्री भरी पड़ी है पर उस ज्ञान के साथ हमारा व्यक्तित्व कितना निर्मित हो रहा है यह देखना भी जरूरी है । यदि व्यक्तित्व निर्मित नहीं हो रहा है तो शिक्षा किस काम की …फिर तो शिक्षा संस्थान डिग्री देने के केन्द्र भर रह जायेंगे । इन डिग्रियों का क्या मोल यदि वे हमारे व्यक्तित्व को रचने मेंआगे न आयें।
डिग्री का तभी कोई अर्थ बनता जब वह उस अनुरूप कार्य करें….हमारा व्यक्तित्व डिग्री के अनुरूप चलें । जब समाज में यह कहा जाने लगे कि फलां व्यक्ति फलां स्कूल का है तब केवल स्कूल की प्रतिष्ठा नहीं होती वल्कि इस क्रम में उस व्यक्ति की प्रतिष्ठा होती है । परपंरा व परिवेश से काटकर बच्चे को एक कृत्रिम शिक्षा और जीवन से जोड़ते हुए हम उसे अपने आप से और परिवेश से अजनबी बना रहे हैं । इस क्रम में जो कुछ सामने होता वह शिक्षा का परिणाम न होकर बस जीवन को किसी तरह चलाने वाली व्यवस्था का नाम भर होता । यह बात बुनियादी तौर पर सही है कि बच्चा सबसे पहले अपनी मातृभाषा को सिखता है …रचनात्मकता व मौलिकता का विचार मातृभाषा में ही जन्म लेता है …इसे किसी भी अन्य भाषा या दूसरी भाषा से नहीं पाया जा सकता । बच्चों को जो भी सीखलाया जाय वह उन पर बोझ की तरह न हो वल्कि सहज हो …यह सहज ज्ञान ही जीवन का अंग बनता है । अपनी मातृभाषा में यदि हम ज्ञान को अर्जित करते हैं तो स्वाभाविक है कि जीवन की सही दिशा को तय तो करेंगे ही , इसी के साथ सही दिशा में हमारा ज्ञान राष्ट्र निर्माण में अग्रणी भूमिका निभायेगा ।
आज यदि शिक्षा के क्षेत्र में कोई बड़ा काम करना है तो वह यह होगा कि बच्चों की कल्पना शक्ति को जागृत किया जाये …वह कुछ मौलिक सोचे …जो है उसमें बदलाव लाने की परिकल्पना करें। वस्तुनिष्ठ और बहुविकल्पीय प्रश्नों की जगह लिखित उत्तर और दिये गये विषय पर विचार प्रधान मौलिक आलेख से ही बच्चों के ज्ञान व कौशल को जांचा जाये।
लेखकः विवेक कुमार मिश्र, शिक्षक ही नहीं समाज के सजग प्रहरी भी हैं।