एक ‘सरकंडे’ की क्रांति: तराई के इलाके में गाढ़ा जैविक खेती का झंडा
गन्ने की फसलें तो बहुत देखी होंगी, लेकिन क्या कभी 18 फिट लंबा गन्ना देखा है और वो भी साढ़े तीन सेंटीमीटर मोटा। ऐसे ही सरसों का तेल तो आप रोज खाते ही होंगे, लेकिन क्या कभी किसी किसान को आठ सौ रुपये लीटर का तेल बेचते देखा है। शायद कभी नहीं, लेकिन इसे संभव कर दिखाया इंजीनियर अनिल साहनी ने।
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घर के बगीचे से शुरू हुई उनकी ऑर्गेनिक खेती अब 35 एकड़ इलाके में फैल चुकी है। रिठौरा कस्बे के नजदीक टिगरा गांव में स्थापित फार्म पर गन्ना, हल्दी, चावल, बैंगन, अलसी, सरसों, गेंहूं, मूंग, उड़द, मसूर, अरहर, कपास, कपूर, तिल, हरड़, बहेड़ा और हींग समेत तमाम फसलें लहलहा रही हैं।
खेती का तरीका: अनिल खेतों में कभी कंपोस्ट या रासायनिक खाद नहीं डालते। वे निराई-गुड़ाई भी नहीं करते। फसलें काटने के बाद बचे हुए हिस्से और खेतों में खड़ी घास को वहीं बिखेर कर हल चला देते हैं, जो जैविक खाद में तब्दील हो जाता है। वहीं कीटनाशकों के तौर पर वे नीम के तेल का साल में सिर्फ एक बार छिड़काव कराते हैं।
खास है चावल: अनिल धान नहीं तैयार चावल बेचते हैं। विलुप्त होने के कगार पर खड़ी तिलक चंदन, हंसराज, धनिया, काला नमक और देसी बासमती उनकी खास पहचान बन चुकी हैं। देश ही नहीं विदेशी खरीदारों में भी इनकी खासी मांग है। सबसे सस्ता चावल 200 रुपये किलो है और सबसे मंहगा चार सौ रुपये किलो।
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प्रशिक्षण: अनिल कहते हैं कि जब तक किसान क्वांटिटी की बजाय क्वालिटी पर ध्यान नहीं देगा उसे बिचौलियों के उत्पीड़न का शिकार होना पड़ेगा। इसलिए वे देश भर के तमाम किसानों को ऑर्गेनिक खेती करने का भी प्रशिक्षण दे रहे हैं। साथ ही देश-विदेश की संस्थाओं से जुड़े हैं जो किसानों की फसल की गुणवत्ता परखने के साथ ही उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ऑर्गेनिक किसान होने का दर्जा देती हैं।
प्रेरणा: दुबले-पतले अनिल को दोस्त सरकंडा कहते थे। नौकरी के दिनों में जापान की यात्रा के दौरान जैव विज्ञानी मासानोबो फुकुओवा की किताब ‘एक सरकंडे की क्रांति’ पढ़ने को मिली। जैविक विविधता को बचाने के लिए लिखी गई इसी किताब से उन्हें वापस खेतों की ओर लौटने की प्रेरणा मिली।