पुरातत्व विभाग की राह तकता गुगोर दुर्ग

बारां स्थित छाबड़ा से 3 किलोमीटर दूर है ऐतिहासिक गुगोर दुर्ग

राजस्थान में हाड़ौती क्षेत्र का एक प्रांत बारां जिसे कोटा से अलग किया गया था चारों तरफ से हरा-भरा हैं। यहां पर कई कलात्मक व पुरातात्विकअवशेष यत्र-तत्र बिखरे पड़े हुए हैं। इसकी प्राकृतिक सुंदरता अपने आप में निराली है । कितने ही मंदिर और कई स्थापत्य  की कलात्मकता यहां पर हमें देखने को प्राप्त होती है। इन्ही  में से एक है गुगोर का दुर्ग।
दुर्ग निर्माण की परंपरा राजस्थान में बहुत प्राचीन है शायद ही ऐसा कोई स्थानों हो जहां पर कोई दुर्ग, किला या गड़ी स्थापित नहीं हुई हो। ईधर्म व नीतिशास्त्र के ग्रंथों में भी दुर्ग व किले के स्थापत्य के बारे में जानकारी प्राप्त होती है। दुर्ग को राज्य के 7 अंगों( राजा, मंत्री, सुहत, कोश, राष्ट्र, दुर्ग, सेना) में से एक माना गया है।
शुक्रनीति के अनुसार दुर्ग को हाथ के अंगों के का स्थान दिया गया है।
“दुर्गमात्यं सहछत्रम्, मुखं कोशो बल् मनः।
हस्तो पादौ दुर्ग राष्ट्रे, राज्यागनि स्मृतामिही।।”
इन सभी दुर्गों की विशिष्ट पहचान भी है और गुगौर का दुर्ग गिरी दुर्ग की श्रेणी  के अंतर्गत आता है ।
हाड़ौती क्षेत्र में किले, दुर्ग और गढ़ की भरमार है। इसी कडी में यहां के किलो की कलात्मकता भी निराली है। बांरा जिला से 68 किलोमीटर दूर एक कस्बा छिपाबड़ौद है। यहां से छबड़ा के निकट 8 किलोमीटर दूर गुगौर दुर्ग स्थित हैं जो खींची राजपूतों का माना जाता है । प्राचीन काल में यह क्षेत्र परमार राजाओं के अधीनस्थ था बाद में यहां खींची राजपूतों के अंतर्गत आ गया । हाडौती में खींची राजाओं का सबसे बड़ा भारत संस्थान गागरोन था जो वर्तमान जिला झालावाड़ में स्थित जलदुर्ग  हैं।
सन् 1150 ईस्वी में खींची राजपूतों ने इस दुर्ग का निर्माण कराया था 1506 -7 में अकबर द्वारा इस दुर्ग को विजित्त करने के साथ ही यहां के राजाओं का पलायन हुआ और उन्होंने अपनी राजधानी और राज्य महुमैदाना, खातौली, मोरूपुर, घातौली मैं स्थापित की। इसके बाद मुगलों की हाड़ा राजपूतों से मित्रता के कारण हाड़ाओं की शत्रुता खींची राजपूतों से हुई और जहांगीर – शाहजहां के समय तक यह खींची राजा उक्त स्थानों से चलकर गुगोर आये तथा वहां इन्होंने अपना राज्य स्थापित किया। हालांकि यहां 14वीं सदी से खींची नरेशों के वंशज पहले से ही रह रहे थे परंतु बाद में गुगौर पर इनका बाहुल्य हुआ।  कालांतर में गुगोर और शाहबाद से जो खींची राजपरिवार संघर्ष कर निकले वे मालवा में नरसिंहगढ़ , खिंलचीपुर, नायतपुर और अंत में राधौगढ़ में स्थापित हुए थे ।

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गुगोर का दुर्ग राजस्थान के अचचित दुर्गो में हैं तथा अभी भी इस पर किसी विशेष रुप से इतिहासकारों ने दृष्टि नहीं डाली। आज भी दुर्ग के निर्माता का नाम अज्ञात है। दुर्ग की  बनावट आज बहुत ही खंडर अवस्था में है लेकिन जो अवशेष बचे हैं उसके आधार पर वर्णन करने का प्रयास किया है। इस दुर्ग के पीछे पार्वती नदी प्रवाहित होती है जो राजस्थान को  मध्यप्रदेश से जोड़ती है।
यहां पार्वती नदी उस पहाड़ी को स्पर्श करते हुए बहती है जिस पर यह दुर्ग अभेद्य रूप में बना है। इस दुर्ग का परकोटा ऊंचा एवं  सुदृढ़ के साथ खूबसूरत भी है। ऊंची प्राचीरों और बुर्जियों ने इस दुर्ग को अभेद्य दुर्ग की संज्ञा दी है । किन्तु अब यह वीरान व खंडहर अवस्था में आ चुका है।
गुगोर दुर्ग की ख्याति यहां पर आयोजित जल जोहर के विराट अनुष्ठान के कारण है। इस जोहर में सैकडों वर्ष पूर्व खींची शासकों पर यहां आक्रमण के दौरान जब खींची सेना पराजित होने लगी तो इस दुर्ग की वीरांगनाओं ने अपनी रक्षा जल में जौहर कर के की और अपनी जीवन लीला को समाप्त किया। यह स्थान इस किले में रानी देह के नाम से प्रसिद्ध है और कहां जाता है कि यह एक विलक्षण जोहर अनुष्ठान है। यहां पर रानी देह में जल जौहर किया था। इस देह के ऊपर एक ओर देह है इसे भैंसादेह कहा जाता है। इसके ऊपर अत्यंत रमणीक भड़का जल प्रपात है।
इसी दुर्ग के पिछले भाग में नदी के किनारे- किनारे खींची राजा के मृत्यु स्थल है, जिन्हें  क्षारबाग कहते है। इनमें ही छतरियां व चबूतरे है और इन्हीं में से सती स्मारको के  शिलालेख है , जो गुगोर दुर्ग के खींची शासकों वह रानियों के वीरत्व, उत्सर्ग और सतीत्व का आज भी गौरवशाली आख्यान करते हैं ।

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गुगोर के अप्रकाशित शिलालेखों की निर्मिति भी उक्त वर्णित लेखों की भांती है। इसमें लेखों के शीर्ष पर बने पंचाऊगल वाले हाथियों को मजबूत भावों से उकेरा है। इसके नीचे सौष्ठव देह वाले अश्वो पर राजसी पुरुषों को पगड़ी पहने तथा अपने हाथों में क्रमशः तलवार व आश्व की रश्मी थामें एवं पीठ पर ढाल बांधे हुए शिल्प से उकेरा गया है। इन राजपुरुषों की पगड़ी पर हीरा भी जड़ा हुआ है। वस्त्रों में ओजस्वी पायजामा है जिनपर सुंदर धारियां है। गले में मणि जणित कई लड़ियों का हार है, पैरों में राजसी जूतियां है। उनके सामने 1 से लेकर 5,6,7 स्त्रियाँ हाथ जोड़े खड़ी है। उन्होंने घाघरा, चोली ओढ़नी के साथ शीश पर अलंकृत बोर भी पहना है। वस्त्रों पर सलवटों की लकीरें बनाई हुई है। स्रियों के हाथों में कंगना व बाजूबंद भी हैं। यह सात-सती शिल्पांगन मध्ययुगीन राजपूताना के तत्कालीन राजसी परिवारों में बहुत प्रचलित था। जिसका जीवंत अंकन इन शिलालेखों में प्रभावी रूप से दिखाई देता है। गुगौर दुर्गे की संरचना अनूठी है यह तीन भागों में विभक्त है ऊंची पहाड़ी पर बने इस दुर्ग के एक भाग में खींची शासकों के शाही परिवार का निवास था तथा दूसरे भाग में फौजी रिसाला रहा करता था। दुर्ग के अंदर आज भी महलों के खंडहर, पानी के टांके, मंदिर व कचहरी यानी न्याय भवन स्थित है। यहां पर खिंचीयों के आराध्य देवी बिजासन माता का मंदिर भी हैं परंतु पवित्रता की आकांक्षा से अब यहाँ की मूर्ति को दुर्ग के नीचे नदी के तट पर स्थापित कर दिया गया है। आज भी फाल्गुन मास में यहां 15 दिन का मेला लगता है यहां पर अनेक देवी-देवताओं की मूर्तियां ,मंदिर, मस्जिद एक ही स्थान पर बने हुई है किंतु अब वे खंडित हो चुकी है। यहां कई मूर्तियां वा पुरातत्व की सामग्री चोरी हो गई है। यहाँ एक गुप्त रास्ता है जो कि जमीन के अंदर होकर पार्वती नदी के तट पर जाता है।  यहां अभी भी घाट तथा दरवाजा बना है।आगे जाते हैं तो यहां अमेठीयो में खींची राजा का चबूतरा बना हुआ है जिसे शतरंज के चबूतरे के नाम से जाना जाता है। यहां कलात्मक छतरियों को भूल भुलैया के नाम से भी जानते हैं। यहां पीर बाबा की दरगाह अभी बनी है उसी के पास मंदिर है जिसमें कोई मूर्ति नहीं है। शतरंज चबूतरे पर खींची राजा धीर सिंह की अदालत लगा करती थी। जहां प्रजा के दुख-दर्द सुने जाते थे, और उनकी समस्याओं का समाधान किया जाता था। बारिश हो मिट्टी के कटाव के कारण यहां की छतरियां, पीर बाबा की दरगाह, मंदिर , दुर्ग के अंदर के भवन रानी महल आदि सभी खंडहर में  बदलते जा रहे हैं  यहां पर अनेकों शिलालेख मिले हैं।

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यहां पर सती स्मारक है जो यहां के खींची शासकों के मध्ययुगीन नाम व गोत्र की प्रकट करते हैं । हाड़ौती तथा मालवा के शिलालेखों में यह लेख आज भी ज्यादा चर्चित नहीं है। यह निम्न प्रकार हैं।  जैसे–
वि. सं. 1410 माघ सुदी दशमी बुधवार
गुगोर राजाधिराज श्री खींची चौहान कंवर
कृष्ण सिंह देवतस्य सती बहू तंवरी कल्यान देव जी ।
यहां पर ऐसे शिलालेख अन्दर-बाहर देखने को मिलते हैं।
कहा जाता है कि यहां के दुर्ग की दीवार पर छः दरवाजे बने हुए थे और इसे लगभग 800 शताब्दी पूर्व का माना गया है। हालांकि इसके बारे में ज्यादा जानकारी प्राप्त नहीं हो सकी है फिर भी यह अपने आप में अनूठा दुर्ग है। यहां पर एक मस्जिद बनी है और उसी के पास में मंदिर है जो कि हिंदू मुस्लिम एकता का प्रतीक माना जाता है। यहां पर मस्जिद में आज भी नमाज पढ़ी जाती है। किंतु मंदिर में कोई मूर्ति नहीं होने के कारण वहां पूजा नहीं होती फिर भी यह एक प्रतीक है-हिंदू मुस्लिम एकता का।
17वीं सदी के पूर्व काल में गुगोर दुर्ग पर कोटा महाराज माधो सिंह के छोटे भाई हरीश सिंह का शासन था। इसी परंपरा में महराव दुर्जनसाल हाड़ा ने भी इस दुर्ग पर अपना आधिपत्य किया था। परंतु उस समय यहां ठाकुर खींची बलभद्र सिंह ने इस पर अपना अधिकार बनाए रखा । 18 वीं सदी के आरंभ में बूंदी के शासक क्षेत्रपाल के निधन के बाद उसके दितीय पुत्र भीमसिंह को यह दुर्ग मिला। इसके पश्चात् कोटा के हाड़ा राजपूत शासकों और मराठों के मध्य ऐसा मोड़ आया कि गुगौर का यह दुर्ग मराठों द्वारा नजराना वसूल करने का केंद्र बन गया इसके बाद अंग्रेजों के समय यह दुर्ग छबड़ा के साथ टोंक रियासत में चला गया। इस तरह कई ऐतिहासिक घटनाओं का साक्षी रहा यह दुर्ग बहुत ही खंडहर हालत में आ चुका है। पुरातत्व और राज्य सरकार द्वारा इसे पुनः दुरुस्त करने की एक पहल करनी होगी।

लेखक: डॉ.मुक्ति पाराशर
कला इतिहासकार व साहित्यकार

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