अब दिल्ली आइये दीदी…
लोकसभा चुनाव में मोदी के सामने संयुक्त विपक्ष का मजबूत चेहरा बनकर उभर सकती हैं ममता बनर्जी, मोदी के लिए वाटरलू बन सकता है बंगाल का चुनाव, अब सारी जिम्मेदारी यूपीए की
यह लेख एक पॉलिटिकल हाईपोथीसिस है यानी राजनीतिक परिकल्पना। जिसमें हम उपलब्ध तर्को, तथ्यों को जोड़कर एक सिरे में पिरोकर आगे की पटकथा को समझने की कोशिश करेंगे। दिल्ली का अश्वमेघ बंगाल में रुक गया है। फिलहाल। लेकिन क्या यह दिल्ली दरबार की हार है। सच कहें तो यह कहना सच नहीं। एक तो आज की दिल्ली आसानी से हार नहीं मानती, और दूसरा उसके पास कम से कम राजनीतिक मुद्दों के लिए ही सही पर हमेशा प्लान ए, बी, सी, डी तो जरूर होता है। तीन सीटों वाली दो अंकों तक जा पहुंची है। बाम वाले राम हो गए हैं। सरकार भले ही ना बनी हो, पर बड़े कमाल तो मोदी सेना ने भी किए ही हैं। खैर, इन बारीकियों को फिर परखेंगे अभी तो बात देश की जमीन पर पड़े, अंतिम सांसे ले रहे जर्जर विपक्ष के पुनर्जीवन पर केंद्रित करते हैं।
कहते हैं घायल शेरनी की सांसे भी दहाड़ से तेज होती हैं। अपने जीवन का सबसे खूंरेंजी चुनाव लड़के घायल ममता लड़खड़ाते कदमों से ही सही तीसरी बार राइटर्स बिल्डिंग पहुंच गई हैं मगर क्या उनके सपनों में 7 लोक कल्याण मार्ग नहीं आता होगा। बताते चलें यह दिल्ली का वह पता है जहां प्रधानमंत्री रहते हैं और इसे पहले 7 रेसकोर्स कहा जाता था।
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हो सकता है, आज यह अनुमान आपको थोड़ा ज्यादा लगे, अतिश्योक्त, लेकिन अगर हम एक – एक करके ममता बनर्जी के राजनीतिक ट्रेक को डीकोड करें तब समझ सकेंगे कि वह कैसी हैं और उनको दिल्ली क्यों पहुंचना चाहिए। थोड़ा फ्लैशबैक में चलते हैं। जनवरी के जाड़े, तारीख दो जनवरी और सन् 1985, पश्चिम बंगाल से एक खबर आई – 29 साल की एक लड़की जिसका नाम ममता बनर्जी है, उसने बामपंथ के उस वक्त के सबसे बड़े दरख्त सोमनाथ चटर्जी को चुनाव हरा दिया है। चिल्ला जाड़ों में भी दिल्ली की सियासी जमात के माथे पर पसीना आ गया था। ममता बनर्जी की राजनीति की बुनियाद बामपंथ के विरोध पर खड़ी हो चुकी थी। 1996 कांग्रेस नेतृत्व यानी सीताराम केसरी ने सोमेन मित्रा को प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बना दिया। दीदी उस वक्त युवक कांग्रेस की अध्यक्ष थीं। सोमेन बाबू से उनकी नहीं पटी। वजह थी सोमेन के बामपंथी दोस्त। वह अपने प्रदेश अध्यक्ष को तरबूज कहतीं, यानी बाहर से हरा और अंदर से लाल। सोमेन मित्रा सीताराम केसरी गुट से आते थे। केसरी मित्रा की मदद से दोबारा कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष चुने गए, यह महत्वाकांक्षी दीदी को पसंद नहीं था। जब कांग्रेस का 80 वां अधिवेशन कोलकाता में हुआ, सामने लाखों की भीड़ के साथ ममता की रैली हुई। ममता बनर्जी ने रैली में आने वाले हरेक को असली जमीनी कांग्रेसी बताया। यानी ग्रासरूट कांग्रेसी। यही से बनी तृणमूल कांग्रेस। कांग्रेस ने ममता को छह साल के लिए निकाल दिया, वह जार्ज फर्नाडीज के साथ मिलकर एनडीए में चली गईं। अटल जी की सरकार में मंत्री बनीं। यशवंत सिन्हा की बात मानें तो कांधार हाईजैक के वक्त उन्होंने खुद को मंत्री के रुप में आतंकियों को सौंप कर आम यात्रियों की रिहाई का प्रस्ताव भी दिया। आज के वक्त में अगर कोई ऐसा करता तब यह जोरदार ब्रांडिंग का मास्टर स्ट्रोक होता, खैर, वह वक्त ऐसा नहीं था।
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वह एनडीए में रहीं मगर सोनिया गांधी से उनके रिश्ते हमेशा गर्मजोशी से भरे रहे। सोनिया गांधी की मजबूरी यूपीए – वन में लेफ्ट लिबरल ताकतों का दबदबा था, जिसने ममता से दूरी को बनाये रखा। इसीलिए जब 2009 में कांग्रेस और लेफ्ट के रास्ते अलग हुए ममता फिर कांग्रेस के साथ आ गईं। वह गठजोड़ की राजनीति में माहिर हो चुकी थीं। 2011 में पश्चिम बंगाल (West Bengal) की जनता ने उनको राइटर्स बिल्डिंग पहुंचा दिया। वह मुख्यमंत्री बन गईं। पहली बार और फिर 2016 में दूसरी बार और अब 2021 में जीत – तीसरी बार।
चुनाव से ठीक पहले विभिन्न राजनीतिक दलों को भाजपा (BJP) विरोध के नाम पर जोड़ना। शरद पवार से मदद मांगना। ठीक चुनाव के बीच भाजपा की राजनीति के खिलाफ देश के प्रमुख विपक्षी दलों को चिट्ठी लिखना, यह बताता है कि उनका दिमाग आगे का रास्ता बना चुका है। रही बात कांग्रेस की तो दस जनपथ, उनके लिए नरम महसूस होता है। उनके चोट लगने पर जब पश्चिम बंगाल कांग्रेस के सबसे बड़े चेहरे अधीर रंजन ने मजाक उड़ाया तब कांग्रेस नेतृत्व ने उनके भी पर कतर दिये। राहुल गांधी भी पश्चिम बंगाल के चुनाव में सिर्फ औपचारिक उपस्थिति लगाते ही दिखे।
दीदी, अपनी आदत के मुताबिक दुश्मन के हमले का इंतजार नहीं करतीं। उनकी आक्रामकता ही उनका सबसे बड़ा हथियार है। चुनाव निपट चुका है, अब हमला करने की बारी उनकी है। वह जानती हैं कि कोरोना की मौतें, सरकारी नाकामी, नीतियों की विफलतायें, तबाह अर्थव्यवस्था, असंतुष्ट किसान और बेरोजगार – देश में ऐसी भी असंख्य आंखें हैं जो मोदी का विकल्प तलाश रही हैं। उनकी सादा सफेद साड़ी, हवाई चप्पल और स्ट्रीट फाइटर का मिजाज यह विकल्प हो सकता है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा की चुनावी मशीनरी ने चुनावों को पूरी तरह से व्यक्ति केंद्रित कर दिया है। पर्सनालिटी ब्रांडिंग ही वह वजह है कि उनके लिए काम करने वाले या उनके समर्थक जब यह सवाल पूछते हैं कि मोदी नहीं तो कौन..। इसका आत्मविश्वास से भरा जवाब किसी के पास नहीं होता। कांग्रेसी भी जानते हैं कि नए जमाने की भाजपा की टेक्नोलाजी ने उनके सबसे बड़े नेता राहुल गांधी का नाम कम से कम किसी चमत्कार से तो कोसों दूर पहुंचा ही दिया है। मीडिया की भाषा में इसे टीना इफेक्ट कहते हैं। यानी देयर इज नो आल्टरनेटिव, जिसका कोई विकल्प ना हो। अब अगर 2024 की चुनावी जमीन पर विपक्ष वास्तव में खड़ा होना चाहता है तब उसे यूपीए का पुनर्गठन करना होगा। ममता बनर्जी को प्रधानमंत्री पद के लिए पहले से ही उम्मीदवार घोषित करना होगा। हांलाकि विपक्षी दलों के लिए यह फैसला कई समझौतों, अहंकारों के आग के दरिया से गुजर के जाने के बराबर होगा लेकिन बड़ी लड़ाई कुर्बानी तो मांगती ही है।
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हो सकता है ऐसा हो, या ऐसा ना भी हो। किसी दावे के साथ ऐसा नहीं कह सकता। बस इतना बता सकता हूं कि आज से ठीक तीन दिन बाद पांच मई है। अब से ठीक दौ सौ साल पहले इस दिन नेपोलियन बोनापार्ट की मौत हुई थी। वाटरलू की हार के बाद। नेपोलियन एक साधारण योद्धा से शासक बना था। फ्रांस और यूरोप के बाद पूरी दुनिया को जीतना चाहता था। हार उसे बर्दाश्त नहीं थी। वह खुद को सुधारक कहता मगर इतिहास ने उसे अधिनायकवादी तानाशाह माना। वह वाटरलू की ऐसी छोटी सी लड़ाई हार गया था जो उसके लिए कुछ नहीं थी – जस्ट पीनट्स, यानी मूंगफली के दाने के बराबर। यहां यह प्रसंग इसलिए कि इतिहास निर्मम होता है, पर फिलहाल तो हम यहां भविष्य की बात कर रहे हैं।
डॉ. पवन सक्सेना – पत्रकार एवं लेखक पत्रकारिता एवं जनसंचार में पीएचडी हैं तथा सक्रिय पत्रकारिता का 22 वर्षो का अनुभव है। अमर उजाला, दैनिक जागरण समेत कई मीडिया हाउस को सेवायें दे चुके हैं।
संप्रति – संपादक – लीडर पोस्ट। (Editor – Leader Post)