खरी-खरी: ऐसे पंचायती राज के क्या मायने हैं ?

पंचायती राज व्यवस्था की निर्वाचन प्रक्रिया पर डॉ. सिकरवार की तल्ख टिप्पणी

उत्तर प्रदेश के आगरा जिले में गत 15अप्रैल को त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव के मतदान के दौरान के मतदान केन्द्रों पर फर्जी मतदान कराने के प्रयास हुए। मतदान पार्टियों के वाहनों पर हिंसक हमले, मतपेटिका लूटने और राज्य के शेष जिलों में भी चुनाव प्रचार करते समय दूसरे पक्ष के साथ मारपीट और गोलीबारी जैसी हिंसा जारी है। इनमें अब तक बड़ी संख्या में लोग घायल हुए हैं और कई की जानें भी जा चुकी हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि यदि पंचायतों की नींव भ्रष्टाचार, व्यभचार और आंतक की जमीन पर खड़ी की जानी है तो… ऐसे पंचायती राज के जनता के लिए कोई मायने हैं भी या नहीं? – डॉ. बचन सिंह सिकरवार

उत्तर प्रदेश के पंचायत चुनावों में हो रहीं हिंसक घटनाओं को दृष्टिगत रखते हुए राज्य सरकार ने ऐसे उपद्रवियों के खिलाफ भारतीय दण्ड संहिता(आइ.पी.सी.) की विभिन्न धाराओं समेत ‘महामारी अधिनियम’ तथा ‘राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम’(एन.एस.ए.) लगाने की घोषणा की है। इसके बाद भी अगर ऐसा ही चलता रहा, तो पता नहीं,पूरे राज्य में इन चुनावों का समापन होते-होते कितनों की और जानें जाएंगी… कहना मुश्किल है। वैसे भी इन भावी जनप्रतिनिधियों और उनके समर्थकों ने कानून के शासन को ठेंगा दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।

चुनाव प्रचार के समय कड़ी निगरानी के रहते हुए भी प्रत्याशियों द्वारा मतदाताओं को रिझाने और उनके मत पाने को माँस- मदिरा की दावतों के साथ-साथ, रुपए, साड़ियाँ, कई प्रकार की मिठाइयाँ बाँटी जा रही हैं। प्रलोभन का दौर यहीं तक नहीं रुका है… इसके कहीं आगे निकल अब तो युवा मतदाताओं को फुसलने के लिए कहीं मुजरा पार्टी, तो कहीं गायिकाएँ बुलाकर उनके कार्यक्रम कराये जा रहे हैं। पुलिस -प्रशासन द्वारा बड़ी संख्या में ऐसे लोगों को गिरफ्तार करने के साथ उनके द्वारा वितरित किये जाने वाले सामान को जब्त किया गया है। हैरानी की बात यह है कि पुलिस की सख्त कार्रवाई के बाद भी इससे ये लोग न तो हतोत्साहित हुए हैं और न ही  भयभीत ही हैं। ऐसे लोग साम, दाम, दण्ड, भेद और अलोकतांत्रिक तरीकों से हर हाल में लोकतंत्र की नर्सरी कहे जाने वाले पंचायत चुनाव को जीतने की जुगत में लगे हैं। ऐसे में पंचायत चुनावों के जरिए जो जनप्रतिनिध चुनाव जीत कर आएंगे उनसे  लोकतांत्रिक सिद्धान्तों और मूल्यों के अनुसार सद् आचरण करने की अपेक्षा करना ही व्यर्थ है। वस्तुतः इनमें से अधिकतर ने इन पदों को सेवा के बजाय सार्वजनिक धन की लूट का माध्यम समझा हुआ है।

निश्चय ही यह स्थिति अत्यन्त भयावह और दुःखद है। कहा जाता है कि भारत की आत्मा गाँवों में बसती है। ग्राम पंचायत लोकतंत्र की आधारशिला है, यदि ऐसा है तो ग्राम प्रधान, जिला पंचायत सदस्य समेत दूसरे पदों को पाने के लिए इतनी मारामारी क्यों हैं? क्या बात है कि आम किसान से लेकर विधायक, सांसद, मंत्री, पूर्वमुख्यमंत्री अपनी पत्नी, पुत्र, भाई, बहन, स्वजनों को अपनी पार्टी का उम्मीदवार बनवाने से लेकर उन्हें जितवाने के लिए ऐड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं। वैसे भी इस परिवार के लोग स्वयं को राजपरिवार का सदस्य समझते हैं। हर छोटे-बड़े पद पर वे अपना पहला अधिकार समझते है। उसके पश्चात् उनका परिवार ,फिर रिश्तेदार, उसके बाद बिरादरी तथा क्षेत्र आता है। यही कारण है कि दशकों से इसी परिवार के लोग दशकों से अपने क्षेत्र की ग्राम सभाओं से लेकर जिला पंचायत के सदस्य और अध्यक्ष के पदों पर काबिज होते आए हैं। इनके विरुद्ध कोई उम्मीदवार बनने को ही तैयार नहीं होता है,जिसने दुस्साहस दिखाया उसे अपने प्राण गंवाने पड़े या फर्जी मुकद्दमे झेलने पड़ेे हैं।इस बार भी इस परिवार के कई सदस्य निर्विरोध निर्वाचित होने में सफल रहे हैं।

कमोबेश रूप में दूसरे राजनीतिक दलों का रवैया भी इस परिवार के सदस्यों से बहुत अलग नहीं है। इन चुनावों में विभिन्न पदों के लिए बड़ी संख्या प्रत्याशियों की संख्या देखते हुए आमजन को यह जानने की जिज्ञासा जरूर होगी? क्या सचमुच इतनी बड़ी संख्या में लोग जनसेवा को आतुर हैं? अगर ऐसा होता, तो शायद ही किसी ग्राम सभा या पंचायत में कोई भी समस्या ही अब तक शेष नहीं रही होगी! लेकिन ऐसा कतई नहीं हैं। वस्तुतः ग्राम प्रधान से जिला पंचायत सदस्य फिर उसके माध्यम जिला पंचायत अध्यक्ष बनने को बेताबी की असली कारण जनसेवा की प्रबल उत्कण्ठा नहीं, वरन् विधायक, संसद की भाँति ही सत्ता से सार्वजनिक धन की लूट और सुख-वैभव की चाहत है। उनका ग्रामीण विकास से कोई लेना-देना नहीं हैं। इनमें से ज्यादातर को अपनी क्षेत्र की समस्याओं से अनभिज्ञ हैं,क्योंकि उन्होंने पता करने की कभी आवश्यकता ही अनुभव नहीं की। ये प्रत्याशी चुनावी सफलता पाने के लिए अपना सबकुछ दाँव पर लगा रहे हैं। यहाँ तक कि ये धन की व्यवस्था करने के लिए अपनी जमीन,घर,जेवरात तक गिरवीं रखकर कर रहे हैं।

आपको यह जानकार हैरानी होगी कि अधिकांश उम्मीदवारों को उन पदों के अधिकार तथा दायित्वों की कतई जानकारी नहीं है, जिनका वे चुनाव लड़ रहे हैं।आरक्षण के कारण ग्राम प्रधान, जिला पंचायत सदस्य, जिला पंचायत अध्यक्ष पद महिला चुने जाने के बाद उनके स्थान पर उनके पति या फिर परिवार के सदस्य ही स्वयं को पदाधिकार समझते हुए दायित्व निभाते दिखाई देते हैं। यही स्थिति अनुसूचित जाति के प्रत्याशियों की है, जिन्हें धनी लोग चुनाव लड़ाते हैं। फिर चुनाव जीतने के बाद खुद का पदाधिकारी समझ कर काम करते हैं।

एक समय तक था,जब लोग स्वयं ग्राम प्रधान बनने को आगे नहीं आते थे, बल्कि गाँव के लोग उसे ग्राम प्रधान पद के लिए उपयुक्त मानते हुए उस व्यक्ति से ग्राम प्रधान बनने का आग्रह किया करते थे, क्यों कि ग्राम प्रधान का पद सिर्फ एक सम्मान का पद था, उसे पाने के लिए सम्मान के सिवाय कुछ भी नहीं था। इसके विपरीत गाँव आने पर वाले सरकारी अधिकारियों तथा नेताओं के जलपान आदि की व्यवस्था आदि भी करनी पड़ती थी, जो हर किसी के लिए सम्भव नहीं थी। लेकिन अब स्थिति बदल गई है। अब ग्राम प्रधान से लेकर पंचायत सदस्य,जिला पंचायत अध्यक्ष के पास के लाखों-करोड़ों रुपए विकास कार्यों (सड़क, खंरजा,नाली,पेयजल व्यवस्था,अस्पताल,पंचायत घर,तालाब आदि ) के लिए आते हैं,इनमें बड़े पैमाने पर दलाली होती है। यहाँ तक कि प्राथमिक विद्यालय के मध्यान्ह भोजन में से भी प्रधान दलाली लिए बिना चैक पर हस्ताक्षर नहीं करता। इसी तरह इज्जत घर (शौचालय) और ग्रामीण आवास समेत दूसरी सरकारी सुविधाएँ लाभार्थी को तभी मिल पाती है,जब प्रधान और सचिव को भेंट चढ़ा दी जाती।

इस तरह की दलाली में सभी राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता और नेता बराबर के हिस्सेदार हैं। इस कारण प्रधानी के चुनाव में 10 से 20 लाख रुपए, ब्लाक प्रमुख में कुछ करोड़ तथा जिला पंचायत अध्यक्ष के लिए कई करोड़ रुपए खर्च किये जाते हैं। ऐसे में यह अनुमान लगाना कठिन नहीं कि ऐसी ग्राम पंचायती व्यवस्था के क्या वही माने रह गए हैं, जो राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी और उपन्यासकार सम्राट प्रेमचन्द ने कल्पना की थी। वैसे उक्त पदों के चुनाव में प्रत्याशियों द्वारा खर्च किये जा रहे हैं, बेतहाशा धन को देखते हुए लोगों को उनके असली इरादों का अन्दाज लगाना मुश्किल नहीं है। अगर वे ग्राम तथा जिला पंचायतों में होने वाले अपरमित भ्रष्टाचार से बचाना चाहते हैं,तो उन्हें चुनाव में पानी की तरह धन बहाने वाले प्रत्याशियों को हर हाल में उन्हें हराना होगा। ऐसा किये बगैर इन्हें भ्रष्टाचार से मुक्त करना सम्भव नहीं है।

( डाॅ.बचन सिंह सिकरवार, देश के कई प्रमुख हिंदी अखबारों में संपादकीय जिम्मेदारियों का निर्वहन कर चुके हैं। देश और दुनिया के प्रमुख समाचार पत्रों में राजनीतिक, अंतरराष्ट्रीय मसलों एवं समसामयिक विषयों पर उनके बेबाक लेख चार दशकों के निरंतर प्रकाशित हो रहे हैं। डॉ. सिकरवार नेशनल यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट (इंडिया) के संस्थापक सदस्य भी हैं।

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button
error: Content is protected !!