आजाद मुल्क और बंटवारे की टीस: जिंदगी फिर से चल जरूर पड़ी है, लेकिन जख्म आज भी हरे हैं…
आजादी की कीमत: आजादी के अमृत महोत्सव पर पढ़िए रूह कंपा देने वाली सच्ची कहानियां
TISMedia@Kota आजादी मिली, लेकिन विभाजन के दर्द के साथ। एक मुल्क और साझा तहजीब में घुली गंगा-जमुनी धाराओं को बंटवारे की तलवार ने बेरहमी से काट डाला। जो हिस्सा पाकिस्तान बना वहां से भागकर लाखों लोग इस पार आए और फिर हमेशा के लिए यहीं के होकर रह गए। तब से झेलम से लेकर चम्बल तक में न जाने कितना पानी बह चुका है और साथ ले जा चुका है बदलाव की कितनी ही मिट्टी, लेकिन 75 सालों में कुछ नहीं बदला तो अपना सब कुछ खोने की वह टीस, जिसने अपनी ही सरजमीं से खदेड़ बना डाला था रिफ्यूजी…! नए सिरे से जिंदगी शुरू करने में चंद सालों के आंकड़े भर नहीं धुले, बल्कि दो पीढिय़ां खप गईं…। आप जश्न जरूर मनाइएगा आजादी का, लेकिन पहले इसकी असल कीमत चुकाने वाले आखिरी गवाहों की टीस से रूबरू होकर… तब शायद समझ आ जाए आजादी के मायने…।
1947… बंटवारा… लूट, हत्या, बलात्कार… जिधर देखो, उधर आतंक… जिन्हें पाला वही गर्दन काटने पर अमादा… जिन्हें राखी बांधी वही अस्मत के लुटेरे बन गए… चारों तरफ बिछी थीं सिर्फ लाशें ही लाशें… जो कुछ पास था सब छूट गया पीछे… बहुत पीछे। हाथ खाली थे… अनजान डगर थी… बस चलते जाना था। भूले से नहीं भुलाया जाता वो मंजर… छिड़ता है जिक्र कभी जब तो जुबां खामोश हो जाती है और आंखें डबडबाने लगती हैं। यह हाल किसी एक का नहीं हर उस खास-ओ-आम का है… जो 1947 के बंटवारे की त्रासदी का गवाह रहा। सरहद पार करके आने वालों के लिए 1947 का भारत पाक बंटवारा ऐसा जख्म है, जो 75 साल बीतने के बाद भी हरा है। अपनी ही सरजमीं से बेगाने हुए करीब 700 परिवार नए ठिकाने की तलाश में चले आए थे कोटा तक। कोई डेरा इस्माइल खां से आया तो कोई झेलम और कोई भिक्खी, सियालकोट, रावलपिंडी, लाहौर और फ्रंटियर से।
बिखर जाता है सन्नाटा
आजादी की असल कीमत चुकाने वाले ये गवाह उम्र के आखिरी पड़ाव पर हैं… सांसें उखडऩे लगी हैं… आवाज मद्धम हो चली है और आंखों में धुंध ने डेरा जमा लिया है। बावजूद इसके अभी कुछ धुंधला नहीं हुआ है तो वह है उस बीते दौर की यादें… वो मंजर, जिन्हें याद करते आंखें सुर्ख हो उठती हैं और चेहरा तमतमा उठता है। खुशहाली की नई तदबीर लिखने वाले बुजुर्गों के सामने जब बंटवारे का सवाल उछाला जाता है तो सन्नाटा बिखर जाता है। अनन्त की ओर टकटकी लगाए भिंरावा वाली उस मंजर को याद कर सिहर उठती हैं…। आंगन में ससुर अमीर चंद की लाश पड़ी थी… कई हिस्सों में कटी… पड़ौस में हैवान उतरे थे… सात दिन का मासूम कुछ फीट तक आसमान की ओर उछला और जमीन चूमते ही छटपटा उठा अगली सांस लेने के लिए… भागोवाली को नौंच रहे थे कुछ स्याह साए… उठा लेना चाहते थे वह उसे अपने कंधों पर लेकिन, सरजमीं से दरख्वास्त कर रही थी खुद को समा लेने की… नाकामयाब रही और आखिर में खो गई उस अंधेरी रात के साए में… बस कुछ देर तक सुनाई दीं तो उसकी वह चीखें… वो गुहार जो वापसी की उम्मीद के माफिक हर पल मंद होती चली गई…।
और फिर वो भाग उठे
जेठ और जेठानी ने कमर भींच कर उसे खींच लिया घर के पीछे… और फिर शुरुआत हुई पीछे मुडे बिना भागने की… झेलम के किनारे का आनंदपुर धूं धूं कर जल रहा था… पति रामप्रकाश बाधवा भी बिछड़ चुके थे… रास्ते लाशों से अटे पड़े थे…। अचानक सामने एक इक्का आकर ठिठका… लंबे चौड़े जालीदार टोपी वाले पठान ने खींच लिया तीनों को हाथ पकड़कर … एक मर्तबा तो लगा कि आखिरी वक्त आ ही गया, लेकिन उस खुदा के बंदे ने तब तक घोड़े की पीठ पर चाबुक मारे और इक्का दौड़ाया जब तक टीन के ड्रमों में टंगे तिरंगे दिखाई नहीं पड़ गए। दो दिन लगे थे सरहद तक पहुंचने में… और 18 दिन वहां से रिफ्यूजी कैंपों से गुजरते हुए कोटा जंक्शन तक पहुंचने में। चार दिन बरसते आसमान ने 18 साल की नवविवाहिता के जख्मों को धोने की जी भर कोशिश की, लेकिन नाकाम रहा। जमींदार खानदान की बहू को कई रोज से रोटी तक मयस्सर नहीं हुई… गनीमत थी कि पहले से ही कोटा में बसे कुछ नातेदारों की उन पर नजर पड़ गई और छत का बंदोबस्त हो सका। करीब चार महीने की दुआएं सर्दियों की चुभन के साथ बहारें लौटा लाई… बेहवास हो चुके पति राम प्रकाश बाधवा उन्हें तलाशते हुए आखिरकार कोटा तक आ पहुंचे।
भाइयों की चहेती बहन…
बाकी बचा परिवार तो मिल गया, लेकिन अगला सवाल था कि आखिर अब खाएंगे क्या, रहेंगे कहां और क्या करेंगे। भिरांवा वाली बताती हैं कि उनके पति को काम के नाम पर सिर्फ साइिकल बनाना आता था… और वह निकल पड़े अपने इसी हुनर से जिंदगी की नई शुरुआत करने… गांव-गांव, कस्बे और शहरों में घूमकर साइिकल ठीक करते और फिर जब जिंदगी पटरी पर आई तो बूंदी के चांदपाड़ा में रिहायश का इंतजाम किया। साथ ही खोल ली एक साइिकल की दुकान। भिरांवा वाली अपने नाम के मायने बताते हुए कहती हैं कि भाइयों की चहेती बहन… लेकिन, वो ऐसी न रह सकी। मंडी बाहुल जी में उसके मायके की सारी संपत्ति दंगाइयों ने फूंक दी। डेढ़ मन चांदी और पांच किलो सोना लूट लिया। जो बचे रह गए उन्होंने 200 रुपए में 25 गायें बेचीं और नए मुल्क से रवानगी तय की।
लो बहन, संभालो अपनी धरोहर
जिला शिक्षा अधिकारी के पद से सेवानिवृत हुए 80 साला रविंद्र साहनी का जख्म भी भिंरावा वाली से कतई कम नहीं है… गुजरात जिले के तहसील पालियां के कस्बे भिक्खी में उस रोज आजादी के ऐलान के साथ ही ऐसी मारकाट मची कि खुद को बचाने में पिता बोधराज गली के ओर जा पहुंचे… मां सरस्वती उन्हें घर के अहाते खींचकर अहमद खाकी के घर ले घुसीं… बालक रविंद्र को कुछ न सूझा तो नौ फुटा पठान की चारपाई के नीचे जा छिपा और मां दलान फांद कर घर के पीछे… हमलावरों ने गांव के सबसे मुअज्जिज लाला दयाराम समेत तीन लोगों को मौत के घाट उतार दिया… हालात बिगड़ते देख सरदार हट्टा सिंह ने अपनी लाइसेंसी रिवाल्वर से तीन फायर खोले, तब जाकर गांव को आतंक से मुक्ति मिली… फौज और पुलिस भी पीछे पीछे आ पहुंची… उन्होंने भी फायरिंग कर माहौल में छाई तल्खी मिटाने की कोशिश की… लेकिन सरस्वती बदहवास गलियों में भटकती हुई अहमद खाकी की दूसरी बेगम पठान बाई के सामने जा खड़ी हुई… पठान बाई की आंखें उसे देख ऐसी चमकी कि अपने आंचल में छिपा कर रखे रविंद्र साहनी को उनकी गोद में डालते हुए बोली… बहन, ले तुझे तेरी अमानत सौंप रही हूं…मेरे अहाते में इसका खून गिरना तो दूर खौफ का एक कतरा छू भी जाता तो उसके बोझ तले दबकर मर ही जाती। जा! अब कोई तेरा अपना नहीं रहा…।
वो टीस मिटती ही नहीं…
आंखों में आंसू लिए साहनी बताते हैं कि इम्तिहान अभी खत्म नहीं हुआ था… उनके पिता ने तत्काल एक तांगा लिया और करीब 20 किमी का सफर तय कर मंडी बहावल में अपने रिश्तेदार लाला सदानंद के घर जा पहुंचे… लाला जी के हालात अच्छे थे उन्होंने किराए पर एक ट्रक मंगा सारा सामान भरवाया और हिंदुस्तान के लिए रवाना हो चले… मां सरस्वती ने कलेजे पर पत्थर रखकर उनसे दरख्वास्त की कि उनके बेटे को अपने साथ ले जाएं… वो जिंदा रहे तो आ मिलेंगे… रास्ते में सारे कुओं में जहर मिला था और लाशों से अटे पड़े थे… जैसे तैसे फौज की कड़ी सुरक्षा के बीच लालाजी का ट्रक अमृतसर आ पहुंचा… जहां उन्होंने पहले से ही किराए के एक घर का बंदोबस्त कर रखा था… लेकिन, कटी पतंग बन चुके बेटे को चैन कहां पड़ा… निकल पड़ा मां-पिता की तलाश में रिफ्यूजी कैंपों की ओर… खालसा कॉलेज के कैंप में मां बाबूजी तो नहीं मिले लेकिन एक रोज बिछड़ी हुई बहन और बहनोई रामजी आनंद और रामदुलारी टकरा गए… कुछ रोज वहीं गुजार कर कोटा रियासत में वकालात कर रहे अपने बड़े भाई बाबू गिरधारी लाल साहनी के घर कोटा आ गए… दिवाली के रोज… अचानक माता पिता को घर के बाहर खड़ा देख पत्थर हो गए थे वो… मेडिकल प्रेक्टिसनर और झेलम के सेठ रह चुके पिता के हाथ में सिर्फ भारत बैंक से कटा तीन हजार रुपए का ड्राफ्ट था…। इसी रकम के बदौलत जिंदगी समेटना शुरू किया और भाई ओम प्रकाश को फौज में, वेद प्रकाश को आईपीएस बनाया। रुंधे गले से साहनी कहते हैं कि जिंदगी फिर से चल जरूर पड़ी है, लेकिन जख्म आज भी हरे हैं।
बस यादों के सहारे है जिंदगी
जिंदगी के 83 बसंत देख चुके तेजभान पहावा के पिता परसोत लाल डेरा इस्माइल खां के मुनीम थे… आजादी की घोषणा के साथ ही फसाद शुरू हुए और फिर सरजमीं छोड़ खाली हाथ पूरा परिवार निकल पड़ा अनजान सफर पर… लाशों से अटी ट्रेन उन्हें अटारी के जरिए डेरा गाजी खां तक लाई और फिर वाया दिल्ली और देहरादून होते हुए कोटा। इस शहर में उन्हें कुछ अपने बिछड़े हुए मिले तो जिंदगी फिर चल पड़ी और पढ़ाई लिखाई पूरी करने के बाद नगर निगम में बतौर इंस्पेक्टर वर्ष 1995 में सेवानिवृत हो गए। प्रीतम लाल टुटेजा ने भी अपने एक भाई और बहन के साथ इसी डेरे में अपना सबकुछ लुटाकर आजादी के रोज हिंदुस्तान में कदम रखा। मां पठानी बाई और पिता कन्हैयालाल पाकिस्तान में ही छूट गए और बड़े भाई रोशनलाल कत्ल कर दिए गए। कई महीनों तक फाकापरस्ती में बसर हुई। एक रोज वो मिले तो जिंदगी की नए सिरे से शुरुआत हुई। इसी डेरे के चंद्रभान पहावा, देवी दयाल और चिमन लाल समेत करीब 47 परिवार खाली हाथ कोटा तक आ पहुंचे… जिस्म पर जो कपड़े थे, वही उनकी जमा पूजी थी… पटरियां खुली मिलीं… तो किसी ने गुब्बारे बेचे, तो किसी ने कंबल और किसने बिसातखाना सजा चूडिय़ां, सिंदूर और कपड़े बेचना शुरू कर दिया। बहुत कुछ पीछे छूटा… लुटा…खोया तब जाकर नई पहचान मिली रिफ्यूजी, लेकिन कुछ नहीं छूटा तो वह था कर्मयोग… और इसी के बूते न सिर्फ नए सिरे से जिंदगी शुरू की, बल्कि सफलता के झंडे भी लहराए।
ये आंसू तेरी आंख से गिरे होते तो क्या होता
हालांकि, खुशहाली और तरक्की की नई इबारत लिख चुके सिख, पंजाबी और सिंधी समाज के रिफ्यूजियों का प्रतिनिधित्व करते रविंद्र साहनी का दर्द आखिर में इन चंद असरारों के जरिए उनकी जुबां पर आ ही जाता है… ‘ए प्यारे, तू हमसे जुदा न होता, तो क्या होता… खुशी के जाम पी लेते दो घड़ी हम भी, सोच ये आंसू तेरी आंख से गिरे होते तो क्या होता’…! भिंरावा वाली एक महीने पहले ही दर्द को अपने दामन में समेटे दुनिया से रुखसत हो गईं, लेकिन न जाने कितने लोग हैं जो कभी न मिटने वाले इस दर्द के साथ सीने में यादों की टीस पाले अब भी जी रहे हैं। इस दुआ के साथ कि दुनिया के किसी भी कौने में कोई भी बंटवारे में न उजड़े। अपनी जमीन से अपने वजूद से।