शिक्षक दिवस: शिक्षा के लिए चिन्तन का दिवस या नौकरी बचाने की कोशिशों का मर्सिया

शिक्षा के लिए नहीं अपितु मुश्किल से मिली नौकरी को बचाने के लिए चिन्तित है आज का शिक्षक

आज शिक्षक शिक्षा के लिए नहीं अपितु बहुत मुश्किल से प्राप्त हुयी नौकरी को जैसे जैसे बचाने के लिए चिन्तित है। इसीलिए कागजों पर पैन घिसटती हुयी अथवा शिक्षा को छोड़कर शेष सभी ऊल जलूल उद्देश्यों के लिए दिनभर कम्प्यूटर पर घिसती हुयी उंगलियाँ यह बखूबी जानती हैं कि उसके लिए शिक्षक होना कितना चुनौतीपूर्ण है।  करे भी क्या वर्षों तक कोचिंग कर के यौवन के अन्तिम छोर पर जैसे जैसे यह नौकरी मिली है| अब उसे बचाना पहली प्राथमिकता है, वह भी घर के एकदम पास में | इस जरुरी ध्येय के लिए स्थानांतरण को बचाने के लिए हजारों बार भी सत्ता के दरबारों की चौखट चूमनी पड़े तो भी निर्लज्जता कैसी? शिक्षकों के संघर्ष को बयां करता आचार्य डॉ. गीताराम शर्मा का ज्वलंत लेख, आप भी पढ़िए…

आज शिक्षक दिवस है|अर्थात् अतीत के स्वच्छ आयने के सामने बैठ कर वर्तमान के शिक्षकों का स्तुति पाठ करने का दिन। शिक्षक में ब्रह्मा, विष्णु, शिव या परं ब्रह्म खोजने का दिन। आज के दिन शिक्षकों के नाम से जो स्तुति पाठ किया जाता है, तद्विषयक यदि मूल्यांकन करें तो बहुत हल्के चिन्तन से यह समझ आ जायेगा कि शिक्षक के जिस विराट स्वरुप का हमें स्मरण कराया जा रहा है उसकी वास्तविक प्रतिछवि कहीं कहीं दूर तक समाज में दिखायी नहीं देती है। न शिक्षक को अपने उदात्त ऐतिहासिक स्वरुप के स्मरण और संरक्षण की चिन्ता है, न शिक्षक के लिए समाज प्रतिबद्ध है और न नियामक सत्ताएं शिक्षा जैसे पवित्र कर्तव्य एवं उसके पहरुए शिक्षक के प्रति श्रद्धावनत हैं।

आज शिक्षक शिक्षा के लिए नहीं अपितु बहुत मुश्किल से प्राप्त हुयी नौकरी को जैसे जैसे बचाने के लिए चिन्तित है। इसीलिए कागजों पर पैन घिसटती हुयी अथवा शिक्षा को छोड़कर शेष सभी ऊल जलूल उद्देश्यों के लिए दिनभर कम्प्यूटर पर घिसती हुयी उंगलियाँ यह बखूबी जानती हैं कि उसके लिए शिक्षक होना कितना चुनौतीपूर्ण है।  करे भी क्या वर्षों तक कोचिंग कर के यौवन के अन्तिम छोर पर जैसे जैसे यह नौकरी मिली है| अब उसे बचाना पहली प्राथमिकता है, वह भी घर के एकदम पास में | इस जरुरी ध्येय के लिए स्थानांतरण को बचाने के लिए हजारों बार भी सत्ता के दरबारों की चौखट चूमनी पड़े तो भी निर्लज्जता कैसी?

आखिर आज के शिक्षक को यह व्यवसाय सम्मान पूर्वक या सम्मान के लिए प्राप्त नहीं हुआ है अपितु अनेक भोगाकांक्षाओं और सपनों के लिए अपनी पसीना बहाकर मिला है। फिर जिस समाज की चिन्ताओं में शिक्षक की चिन्ता करना प्राथमिकता होती थी, वह अब मृग मरीचिका ही है। कुछ विशिष्ट तपस्वी और साधक शिक्षकों को छोड़कर समाज की सामान्य सोच में शिक्षक ही सबसे नकारा और फ़िजूल व्यक्ति है। प्रशासनिक तन्त्र भी शिक्षकों को शिक्षा के अलावा हर उच्च और तुच्छ कार्य के लिए उपयुक्त मानता है। ऐसी विशुद्ध विषम स्थितियों में राष्ट्र के लिए शिक्षा , शिक्षा के लिए शिक्षक और शिक्षक के लिए समाज की त्रिपथगा पवित्र विचार गंगा वर्तमान में शुष्क प्राय: है। इसलिए शिक्षक दिवस पर शिक्षकों की गरिमा का बखान कागज की खेती अथवा वाग्विलास मात्र ही लगता है। 

इन तमाम अन्धेरों के बाबजूद यह दिन अध्यवसायी और शिक्षा के लिए समर्पित शिक्षकों के लिए रोशनी की एक किरण लेकर आता है।  शिक्षकों के लिए आत्मालोचन और उज्जवल अतीत के सहारे अपनी छवि और शिक्षा की चिन्ता का चिन्तन मनन करने का दिन है शिक्षक दिवस। भले ही वर्तमान समय का सच यह है कि आज शिक्षा में भी समय के प्रभाव से अध्यवसाय पिछड़ गया है और व्यवसाय हावी है । जिस शिक्षक को विद्या और विद्यार्थी के प्रति बफ़ादार होना चाहिए वह अब व्यवसाय के प्रति बफ़ादार हो चला है। इसलिए विद्यार्थी और शिक्षक के बीच पूंजी और व्यवसायिकता व्यवहार बन कर खड़ी हो गयी हैं। तेजस्विनावधीतमस्तु का जाना पहचाना सांस्कृतिक शंखनाद कुछ मन्दिम हो चला है। लेकिन जैसा कि मैंने कहा कि यह केवल समय का सच है,जो शाश्वत सच को थोड़ा अभिभूत ही कर सकता है,अपास्त नहीं कर सकता ।

मैं तेजस्वी बनूं ,तुम तेजस्वी बनो और दोनों मिलकर समाज को तेजस्वी बनाएं,इस भाव को समय की कोई क्रूरता भी छीन नहीं सकती क्योंकि यह शाश्वत है| अपने राष्ट्र की पूंजी महान गुरु शिष्य परम्परा का पुन: पुन: स्मरण और मूल्यों की पुन: पुन: पुरश्चर्या के लिए प्रेरित करना प्रत्येक शिक्षक का अनिवार्य कर्तव्य है।जिन महान शिक्षक डॉ राधा कृष्णनन् के जन्मदिन के संदर्भ से शिक्षक दिवस मनाया जाता है उन्होंने शिक्षक के विषय में अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा है की शिक्षक वह नहीं जो पुस्तकीय ज्ञान को विद्यार्थी के मस्तिष्क में भर दे अपितु सच्चा शिक्षक वह है जो विद्यार्थी को भविष्य की चुनौतियां का सामना करने की सामर्थ्य प्रदान करें। यह काम कोई शिक्षक तब कर सकता है जब अतीत के निर्मल दर्पण के सामने बैठ कर वर्तमान की व्यवस्था में रहते हुए भविष्य के लिए रास्ते बनाने में विद्यार्थी की मदद करे।किन्तु यहां बड़ा विरोधाभास है।अतीत में शिक्षा के लिए तय किये हुए मूल्यों की संगति वर्तमान की व्यवस्था से नहीं बैठती इसलिए भविष्य की कोई स्पष्ट दशा नजर नहीं आती।

अतीत के मूल्य कहते हैं शिक्षा मुक्ति के लिए है ,आनन्द के लिए है ।आनन्द का मार्ग प्रेम,ममता,समता,करुणा,निर्लोभ सत्य, स्नेह से होकर गुजरता है लेकिन वर्तमान व्यवस्था संघर्ष सिखाती है , प्रतिस्पर्धा सिखाती है।नौकरी पाने का संघर्ष धन कमाने की प्रतिस्पर्धा वर्तमान के शैक्षिक ध्येय हैं।हर अभिभावक बच्चे को यही सिखाते रहा है कि कम्पटीशन ही तेरी नियति है , उसमें पिछड़ा तो कोई नहीं पूछने वाला ,बताओ जीवन की ऐसी विभीषिका से भविष्य के प्रति आशंकित विद्यार्थी अपने साथी विद्यार्थियों से प्रेम करेगा कैसे ?प्रेम का सूत्र ही” मैं नहीं तुम है” जबकि कम्पटीशन ” तू नहीं मैं ” भाव से होता है।एक नौकरी के लिए सौ लाइन में हैं तो वे प्रेम कर सकते हैं क्या ?

प्रतिस्पर्धा तो ईर्ष्या सिखाती है,लोभ सिखाती है,ऐसी प्रतिस्पर्धा से प्राप्त नौकरी या तथाकथित सफलता अहंकार देती है,तथा इन के सहारे निर्मित भविष्य अंधकारमय हो जाता है।इस प्रकार अतीत -वर्तमान-तथा भविष्य के बीच इन बिखरे टूटे तारों को जोड़ना शिक्षक की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है। सामर्थ्यवान शिक्षक यह कर सकता है।वह अपने विद्यार्थियों में यह भाव भरे कि प्रतिस्पर्धा वर्तमान की मांग है इसलिए उससे मुख नहीं मोड़ सकते लेकिन दिशा बदल सकते हैं । प्रतियोगिता हो तो सही किन्तु औरों से नहीं स्वयं से।स्वयं की क्षमताओं से,स्वयं की पूर्णता को बाहर लाकर स्वयं के लिए रास्ता खोजना है।इस रास्ते में शत्रु कोई नहीं स्वस्थ प्रतिस्पर्धा है।अपने को शत-प्रतिशत लक्ष्योन्मुखी करना है,नियति मदद करेगी।यह स्वस्थ प्रतिस्पर्धा विद्यार्थी की होती हुई क्षमताओं को जगायेगी, आत्मविश्वास पैदा करेगी।पंचकोणीय व्यक्तित्व का विकास करेगी।यानी स्वामी विवेकानंद द्वारा अनुमोदित शैक्षिक मार्ग का पोषण करेगी । संस्कृत में एक श्लोक है कि –
उद्योगिनं पुरुष सिंहमुपैति लक्ष्मी।
दैवेन देयमिति का पुरुषा वदन्ति।
दैवंनिहत्यकुरुपौरुषमात्मशक्त्या।
यत्नेकृतेपि न सिद्धयति कोSत्र दोष:।
इस भावार्थ सामान्यतः: ये किया जाता है कि भाग्य की परवाह किए बिना पूरे परिश्रम से भी यदि सफलता नहीं मिलती है तो मेरा कोई दोष नहीं,जबकि होना यह चाहिए कि यदि मेहनत करने पर भी सफलता नहीं मिलती है तो कोई न कोई दोष रह गया।उसे दूर करना है।यह भाव शिक्षक ही भर सकता कभी नहीं हारने का भाव,मेहनत पर विश्वास करने का भाव,शिक्षा की साधना का भाव पुस्तकों या कोचिंग के ट्यूटर के वश में नहीं। व्यावसायिकता विद्यार्थी का हृदय नहीं जेब देखती है।हृदय देखने का काम शिक्षक का अध्यवसाय ही कर सकता है। पूर्णता का प्रकाशन योगी शिक्षक के ही वश का है भोगी ट्यूटर या टीचर का नहीं। इसलिए अतीत शिक्षक को ही साक्षात् ब्रह्म यानी आनन्द के पर्याय के रुप में पूजता रहा है। सभी शिक्षक शिक्षा की आनन्दमार्गी यात्रा में पूरे मनोयोग से समर्पित हो कर शिक्षा जैसे सांस्कृतिक सरोकार के लिए अपने को सोंपकर कृतकृत्य हो जायं,बस यही शुभकामना। सभी शिक्षक साथियों के योग क्षेम की प्रभु से प्रार्थना।अस्तु||

‌ लेखकः डॉ गीता राम शर्मा, सह आचार्य संस्कृत, एस. बी पी.राजकीय महाविद्यालय डूंगरपुर

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