वी-पॉजिटिव: ओए संभल के! चुम्मी न ले जाए कोरोना…
शंटू का चश्मा में इस बार पढ़िए, "कोरोना की आशिकी का इंद्रधनुष "
मात्र कुछ माइक्रोन साइज के आंख से ना दिखाई देने वाले वायरस जिसका नामकरण लगभग डेढ़ बरस पहले “कोरोना ” हुआ था, उससे भयभीत दुनिया के बड़े बड़े शक्तिशाली देशों में निवासित सर्वज्ञानी मानव नाम का यह सुपरमैन Covid-19 नामक बीमारी के सामने पूरे एक साल से कितना बौना और अदना सा प्रतीत हो रहा है, यह किसी से छुपा नहीं है।
आप लाख कोशिश करते रहें, लेकिन इस वायरस का मनुष्य प्रजाति के प्रति एकतरफा प्रेम बिलकुल वैसा ही है जैसे, यौवन की दहलीज पर सड़क पर जाते समय अपने प्यार की झलक भर देखकर आपका आंहें भरना और मन ही मन उसे पा लेने की मनोकामना करते रहना। इसकी मोहब्बत का अंदाज बिलकुल वैसा ही है, जैसे 80 और 90 के दशक में फिल्म के हीरो, ठुमकती हीरोइन की किताब में, पत्थर में लपेट कर खिड़की से या किसी न किसी माध्यम से अपने प्यार की पाती उस तक पहुंचा ही देते थे। यह तो हम सबका भरोसा रहा ही है कि ऊपरवाला दिल से की गई मनोकामना पूरी करता है, तो इस वायरस की क्यों नहीं होनी चाहिए?
मज़ाक में इसकी मोहब्बत को हंसी में उड़ा देने की गलती हम सभी करते हैं लेकिन इसकी कोशिश की दाद देनी पड़ेगी कि आखिरकार यह अपनी जिद पूरी करके ही मानता है। भगवान शंकर जी को अर्पित किए जाने वाले फल धतूरे जैसे आकार का यह वायरस आपकी बिंदास सांसों के लिए दीवानगी की सारी हदें पार कर घर से बाहर निकलते ही आपके पीछे पीछे अनवरत रूप से एक जुनूनी आशिक की तरह बिना थके आता जाता रहता है और मौका लगते ही किसी न किसी मीडिएटर के माध्यम से येनकेन अपने प्यार से संपर्क स्थापित कर ही लेता है। इस गुस्ताख की हिम्मत का भी ज़वाब नहीं, कि अपनी एकतरफा मोहब्बत की इंतहा में सारी हदें पार कर ये वायरस मौका ढूंढ कर कब अपने हमदिलों का प्यारा सा चुम्मा लेकर कम से कम 14 दिनों के लिए उन्हें अपना बना ही लेता है, जब तक उन्हें पता चलता है, काफी देर हो चुकी होती है।
इसके द्वारा चुम्मा लेने वालों के ना जाने कितने अनगिनत भ्रामक किस्से बाजार में प्रचलित हैं, कि लोगों के दिलों में एक अज़ीब और अंजाना सा डर बैठ गया है। बात डर तक ही सीमित होती तो भी ठीक, लेकिन संचार क्रांति के विकास का पूरा उपयोग कर, ये डरे हुए लोग इस डर को फोन के माध्यम से फैलाने में भी कोई कोर कसर नहीं छोड़ रहे हैं। कोरोना की मोहब्बत के चुम्मे मात्र से भयभीत ये भीड़ अपने आप को अकेला और डरा हुआ महसूस करने के साथ ही साथ, अनावश्यक रूप से अस्पतालों की ओर बिना जरूरत के भी दौड़ लगा रही है। जिसका नतीजा ये है कि जिन्हें वाकई में अस्पताल में भर्ती होने की जरूरत है, उनके लिए नो “No Bed” का बोर्ड लग गया है।
आईस-पाईस और धप्पा के खेल में छुट्टा घूम रहे इस वायरस के औचक ही कहीं भी प्रकट होकर धप्पा कर देने से बचते बचाते अपनी नाक के दो छिद्र रूपी बेहूदे से दिखने वाले श्वासद्वारों के साथ ही अपनी बत्तीसी को चार बाई तीन इंच के डिजाइनर टुक्कीनुमा कपड़ों के टुकड़ों से ढांपे हुए पिछले पूरे एक बरस से घूम रहा था। बचपन में पढ़ी, कछुए और खरगोश की कथा को चरितार्थ कर पूरे एक साल की मेरी सजगता को धता बता कर मेरे अनेकों रंग बिरंगे व N95 फेस कवर में से भी रास्ता ढूंढ कर सांसों में धीमे धीमे सरक आना और चौंका कर धप्पा कर देना, निश्चित रूप से इस नटखट आशिक वायरस का चातुर्य, साहस और कौशल और आशिकी की इंतहा को दर्शाता है।
एक जिंदादिल इंसान होने के कारण परेशानी के समय सबके साथ खड़ा रहने की परवरिश के कारण अपने परायों की बीमारी के समय के अनुभव और उपचार का ज्ञान ऐसे समय में खुद के और परिवार के लिए तो काम आना ही था। ऐसे समय में बिना धीरज खोए, नियोजितपूर्ण तरीके से कुशलता के साथ सातों परिजनों के स्वास्थ्य संबंधी प्रबंधन को पूरे आत्मविश्वास के साथ निभाया तो कोई विशेष कठिनाई नहीं हुई। अपन नकारात्मक और नाकारा लोगों से थोड़ा दूरी बनाकर रखते हैं तो सकारात्मकता एवं ऊर्जा सदैव ही बनी रहती है।
हां, कुछ एक मौके ऐसे ज़रूर आए कि जरूरत के अनुसार चिकित्सीय सहायता लेनी पड़ी। इस दौर में घनघनाती फोन की घंटियों के बीच कई शुभचिंतकों ने शीघ्र स्वास्थ्य लाभ की कामना के साथ संबल देकर हौसला अफजाई की, तो कुछेक ने कहने के साथ ही यह भी लिख डाला कि कोरोना पर मेरी विजय निश्चित होगी। प्रियजनों के प्यारे प्यारे मैसेजेस को देखकर कई बार तो ऐसी अनुभूति भी होने लगी जैसे घर पर रहकर भयभीत हुए बिना सभी का स्वास्थ्य प्रबंधन करने के कारण मेरा नामांकन वीरता पुरस्कार की कैटेगरी में हो सकता है। कुछेक ने मुझे साहस और समझ की प्रतिमूर्ति बताया तो कुछ अपनों ने चिंतित स्वरों में निश्चिंत बने रह कर जरूरत पड़ने पर उनको बेहिचक याद कर एक आवाज भर देने पर उपलब्ध रहने का आश्वस्वासन भी दिया।
पिछले बरस नवंबर तक ना जाने कितने अपने परायों , जाने अंजानों के साथ इस वायरस की कलाबाजियां देख कर कभी उनकी और कभी वायरस की जीत और हार का लाइव मंजर देख चुका हूं, इसलिए लापरवाही की रत्ती भर भी गुंजाइश छोड़ने का सवाल ही पैदा नहीं होता। इसी कारण खुद के साथ साथ अपने सभी परिजनों के स्वास्थ्य संबंधी सभी जरूरी पैरामीटर्स पर भी पैनी नज़र निरंतर बनाए रखी और इस विषय के विशेषज्ञ कुछ विशिष्ठ स्वजनों की सलाह और मदद के साथ समस्त आवश्यक उपचार विवेकपूर्ण तरीके से भी ज़ारी रखे। कोशिश और उम्मीद में कोई कमी की नहीं और बाकी तो “होइहि सोइ जो राम रचि राखा”।
ये तो हुए Covid के कुछ जाने बूझे पहलू , लेकिन बहुआयामी जिंदगी की कशमकश में इंसान का बचपन, अपने शौक, पसंद , मसखरापन , नादानियां और शैतानियां , यौवन और बिंदासपन, उम्र के विभिन्न फ्रेमों के अंदर फिट होकर हर फ्रेम में एक अदद जिम्मेदार रोल को निभाते निभाते कब कितने पीछे छूटते चले जाते हैं, हमें और आपको तो पता ही नहीं चलता। सब कुछ समझते बूझते भी अपने खुद के लिए चंद पल निकाल पाना कभी संभव ही नहीं हो पाता है और वक्त तो अपनी गति से घड़ी की सुइयों की माफिक बिना रुके आगे बढ़ता जाता है।
बरस दर बरस बचपन से ही पढ़ाई के समय से तिपहिया साइकिल से कैंची साइकिल और साइकिल की गद्दी पे बैठने के बाद मोपेड और फिर स्कूटर चलाते चलाते करियर बनाने के चक्कर में कब बचपन पीछे छूटता गया…… पता ही ना चला। यौवन की दहलीज से गृहस्थ आश्रम में पहुंचकर परिवार को पालने की जिजीविषा में कब जवानी बीत गई, मुझे लगता है आपको भी ये पता ही नहीं चल पाया होगा। कार खरीदने की कशमकश में कैसे हम बेकार होते गए और एक अदद छत की ख्वाइश पूरी करने में कैसे पूरा नीला आसमान सिर के ऊपर से गायब हो गया, इसका अंदाजा लगा पाने का ख्याल जब तक आता, बहुत देर हो चुकी थी। दिन की शुरुआत में उगते सूरज से छुपते सूरज की लालिमा को निहारते, दोनों का अंतर समझने की बंदिशों में जुगनू को ना जाने कितनी असंख्य रातों को रोशन करना पड़ता है, ये कोई जुगनू से पूछना तो जरूरी ही नहीं समझता।
इंद्रधनुषी जीवन से शनैः शनैः गायब होती रंगीनियों के बीच, कभी ना रुकने वाली, हर इस उस की फिक्र में सालों से, इस स्टेशन से इस स्टेशन तक सीटी बजाती भागती दौड़ती जिंदगी की इस छुकछुक रेल को भी कभी न कभी तो थोड़ा सुस्ताने की जरूरत भी होती है, यह लंबे से से महसूस हो रहा था। इन चढ़ती उतरती सवारियों को तो एक स्टेशन से दूसरे तक पहुंच ही जाना है, अगर रेल कैंसल हो जाए तो भी वे व्यवस्था को कोसते हुए, तुरत ही दूसरी सवारी या साधनों से बस, टेंपो या थोड़ी महंगी टैक्सी से अपने गंतव्यों को रवाना हो ही जाते हैं। इसलिए गंतव्य पर उतर जाने वाली सवारियों की चिंता में अपने इंजन के रिंग पिस्टन को नाहक ही घिसते जाने की मनोवृत्ति से कुछ ठहराव की भी जरूरत है। इसी वज़ह से दो तीन हफ्ते पहले ही अपने कुछ साथी संगियों के सामने दिल की बात जुबां पे आ ही गई थी कि काश कोविड ही हो जाए तो आराम के कुछ पल अपने लिए भी निकल पाएं। और लगता है, ऊपर वाले ने सुन भी लिया और मन से की गई मुराद पूरी कर दी।
किसी आ जाने वाली अनहोनी मात्र से सशंकित होकर, डर के मारे नेगेटिव विचार मन में आ रहे हों तो ऐसा तो बिलकुल नहीं है। सच तो ये है की आराम के इन पलों का सुकून और मीठे पल मेरे जैसे व्यक्तित्व की सकारात्मकता के लिए ऊर्जा के स्रोत के रूप में काम कर रहा है। कोविड संक्रमण के कारण अपने घर की छत के नीचे दो हफ्तों से ज्यादा समय तक पूरे परिवार की तीन पीढ़ियों का एक ही साथ रुकना, निश्चित रूप से अपने आप में एक अनूठा और विशेष घटनाक्रम तो है ही, जिसकी शायद भविष्य में पुनरावृत्ति जल्दी ना हो। फुर्सत के इन पलों में चश्मे की थोड़ा दूर तक देख सकने वाली, पैनी होती जा रही मेरी कलम रूपी नजर से फागुन की गर्म होती हवाओं में कुछ अपनों का अक्स भी दिखा। कालर पलटवाकर कर मुलायम कपडें की मेरी पसंदीदा काले सफेद बारीक चेक वाली शर्ट के बांए पॉकेट में पड़े लाल रंग के निब वाले कलम को इसी कशमकश में चंचल मन ने उठा कर लिखने के लिए प्रेरित किया और झकझोरा कि कम से कम इस समय तो जिंदगी की भागदौड़ में थोड़ा थमे हुए पीछे छूट गए अपने विचारों को मोबाइल की स्क्रीन पर कड़वे , मीठे शब्दों में उकेरूं।
इस विचार के कौंधते ही अनायास ही बचपन में पंद्रह पैसे के पोस्टकार्ड और पैंतीस पैसे के अंतर्देशीय पर पत्र लिखने की अपनी बरसों पुरानी आदत में से ना भूले जा सकने वाली पहली पंक्ति स्वतः ही स्मरण हो आई कि – “अत्र कुशलं तत्रास्तु “, अर्थात यहां सब कुशल से हैं और आशा है कि वहां पर आप भी कुशल होंगे।
इसी पंक्ति के साथ यह साझा करने में कोई गुरेज नहीं कि मार्च 2020 में लॉक डाउन शुरू होने के बाद से हर दिन रिश्तों और संबंधों की कसौटी की किसी ना किसी नई जमीनी सच्चाई से रूबरू होने का मौका मुझे अभी भी बहुत कुछ सिखा चुका था , इसलिए खामखां में डरना और डरकर अपनों से मुंह मोड़ लेना, ये गलती कम से कम मैंने तो नहीं ही की। जो किस्मत में होगा वो तो आने वाला वक्त ही बताएगा। खैर अभी तो बिना काम के स्वास्थ्य लाभ के साथ सपरिवार बिंदास और निर्बाध छुट्टी व्यतीत हो रही है।
शेष सब ठीक है। कोविड काल में सकारत्मकता, धीरज, विवेक और अपनापन आपके साथी बने रहें। आपके और आप सबके परिवार में सभी बड़ों को सादर प्रणाम, छोटो को हार्दिक व स्नेहिल आशीष और हम उम्रों को अभिवादन के साथ, सदैव ही भविष्य में भी आपकी कुशल क्षेम का आकांक्षी :- प्रमोद “शंटू”
(लेखकः प्रमोद शंटू, वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी हैं।)