जन आस्थाओं का संरक्षक और कवि की सामर्थ्य का प्रतिमान है रामचरित मानस: अतुल कनक

हर वर्ष शारदीय और चैत्र नवरात्रि पर मौन रहता हूँ। मौन के दौरान मन में संवाद की चाह भी नहीं रहे, यही कोशिश करता हूँ। हालांकि मौन वाणी पर नियंत्रण का तप है, विचारों पर तो नियंत्रण पाना सामान्य गृहस्थ के लिए बहुत दुरूह है। ऐसा होना चाहिए, पर हो नहीं पाता। इधर, पिछले कुछ समय से यह भी कर रहा हूँ कि हर शनिवार किसी पुस्तक के बारे में कुछ लिखता हूँ। जीवन कई बार आपके संकल्पों को ही परस्पर विरोधी बना देता है। इन्हीं विरोधों पर विजय की सार्थक चेतना जुटाने के लिए ही तो हम मन को अलग अलग व्रतों से साधते हैं।
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यह हो सकता था कि मैं आज किसी पुस्तक के बारे में नहीं लिखता। लेकिन मुझे यह उचित प्रतीत नहीं हुआ। फिर सोचा चैत्र नवरात्र में हमारे यहाँ रामचरित मानस के पारायण की एक पुष्ट परंपरा रही है- क्यों न आज उसी के बारे में बात की जाए। रामकथा का उत्स वाल्मीकि की रामायण से माना जाता है। तमसा नदी के तट पर ऋषि भारद्वाज के साथ आए हुए वाल्मीकि ने क्रौंच पक्षी के प्रेम और फिर विरह पीड़ा से साक्षात किया और कुछ दिनों तक एक विकलता से व्यतीत होने के बाद रामायण नामक उस विलक्षण काव्य का प्रतिपादन किया जिसमें 24 हजार श्लोक, पाँच सौ सर्ग और 6 काण्ड हैं । यह रचना तब पूर्ण हुई थी जब राम ने वन से लौटकर राज्य का शासन अपने हाथ में ले लिया था – “प्राप्तराजस्व रामस्य वाल्मीकिर्भगवानृषि:/ चकार चरितं कृतनं विचित्रपदमर्थवत्।।” इस महाकाव्य को पौलस्त्य वध या दशानन वध भी कहा गया है।
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तुलसी ने जब रामचरितमानस का प्रणयन किया, उस समय भारत के अधिकांश हिस्से पर मुगलों का शासन था। लंबे समय से विदेशी आक्रांताओं के अधीन रहने के कारण समाज में सनातन परंपरा कई चुनौतियों का सामना कर रही थी। मान्यताएं कहती हैं कि तुलसी अपनी पत्नी से झिड़की मिलने के बाद भक्ति की ओर प्रवृत्त हुए थे। चूकि जन आस्थाओं ने राम कथा में कई प्रसंग जोड़ दिए थे, इसलिए वाल्मीकि की रामकथा और तुलसी की रामकथा में कुछ अंतर मिलता है। मसलन- वाल्मीकी ने सीता स्वयंवर का उल्लेख नहीं किया।जब स्वयंवर हुआ ही नहीं तो राजसभा में लक्ष्मण और परशुराम के मध्य उग्र संवाद कहाँ से होता? वाल्मीकी के अनुसार परशुराम शिवधनुष भंग होने के कारण क्षोभ में तो थे लेकिन वो राम- लक्ष्मण से उस समय वन में मिले थे जब विवाह के बाद दशरथ के साथ सब लोग अयोध्या जा रहे थे।
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लेकिन तुलसी की शब्द साधना की शक्ति ही कहा जाना चाहिए कि मूल कथा से इत्र जाकर भी उन्होंने जो कुछ लिखा, वही जन- जन का विश्वास हो गया। इसका एक बड़ा कारण यह भी हो सकता है कि तुलसी ने आम आदमी की भाषा में अपनी बात कही और लोक अपनी भाषा में कही गई सार्थक बातों को बहुत स्नेह और सम्मान से सहेजता है। यह तुलसी की साधना का ही कमाल है कि उनकी लिखी कई पंक्तियों के बारे में ज्योतिष कहते हैं कि उनका निरंतर जप करने से मनोवांछित फल मिलते हैं। तुलसी सब देवताओं, गुरू की आराधना करने के बाद कहते हैं – “बिनु सतसंग बिबेक न होंई, राम कृपा बिनु सुलभ न सोई/ सतसंगत मुद मंगल मूला, सोइ फल सिधि सब साधन फूला।”
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रामचरित मानस का सबसे अद्भुत पक्ष यह है कि यह बहुत कुशलता से जीवन के महत्वपूर्ण सूत्रों से हमारा परिचय कराता है- “गुन अवगुन जानत सब कोई, जो जेहि भाव नीक तेहि सोई ” और “अब मोहि भा भरोस हनुमंता/ बिनु हरि कृपा मिलेहिं न संता” या “जाको प्रभु दारुण दुख देहि, ताकी मति पहले हर लेहि” जैसे कितने ही सूत्र वाक्य रामचरितमानस में पाठक के चिंतन की देहरी पर दस्तक देते हैं। मानस की रचना का प्रस्थान बिंदु यह विश्वास है – “जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि/ बंदऊं सब के पद कमल सदा जोरि जुग पानि।” कवि की विनम्रता देखिए कि वो कहता है- मेरी कविता भद्दी है, लेकिन इसमें रामकथा होने के कारण यह अच्छी समझी जाएगी – “भनिति भदेस बस्तु भलि बरनी/ राम कथा जग मंगल करनी।” लेकिन काव्य के प्रारंभ में ही वो उन लोगों को कोसने से भी नहीं चूकते, जो लोगों की धार्मिक आस्थाओं का उपयोग अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए करते हैं – “बंचक भगत कहाइ राम के, किंकर कंचन कोह काम के/ तिन्ह महँ प्रथम रेख जग मोरी, धींग धरमध्वज धंधक धोरी।” इन पंक्तियों में आया अनुप्रास तुलसी की शब्द साधना का प्रमाण है।
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किसी कवि की शब्द सामर्थ्य और थोड़े में बहुत कुछ कह देने की क्षमता देखनी हो तो रामचरित मानस का अध्ययन जरूर किया जाना चाहिए। यदि लोक में आज भी यह विश्वास कायम है कि रामकथा कलि कलुष विभंजनि ” या “रामकथा कलि कामद गांव ” तो उस विश्वास को बनाए रखने में तुलसी का बहुत बड़ा योगदान है। आज भी यह विश्वास बहुत आम है कि सुंदरकांड के पारायण से व्यक्ति के जीवन को आकस्मिक संकटों से मुक्ति मिलती है। कविता, मंत्र, पूजा, ज्योतिष- इन सबका सबसे सार्थक रूप यही है कि वो लोगों में चुनौतियों का सामना सकारात्मकता से करने का संकल्प जगाएं और रामचरित मानस ने जिस तरह से कविता के प्रति समाज की इस आस्था को थाम रखा है, वैसे उदाहरण बिरले ही मिलेंगे।