कल्याण सिंह की चार भूलः भुलक्कड़, बुझक्कड़, पियक्कड़ और कुसुम राय

कल्याण सिंह ने ही पहली बार हिन्दुत्व की राजनीति को चढ़ाया था परवान

  • नरेंद्र मोदी को कई दिनों के लंबे इंतजार के बाद दिया था मिलने का समय 
  • नकल अध्यादेश और नकलचियों की गिरफ्तारी का फैसला बना था नजीर

TISMedia@Kota कल्याण सिंह को सिर्फ बाबरी मस्जिद गिराने के लिए ही याद नहीं किया जाएगा, बल्कि उनकी सख्त, ईमानदार और कुशल प्रशासक की छवि भी हमेशा याद की जाएगी। हालांकि राजस्थान का राज्यपाल रहते हुए कुलपतियों की नियुक्तियों में चली कथित घूस ने उनकी इस छवि को बड़ा धक्का पहुंचाया था। कल्याण सिंह ने एक दो नहीं बल्कि चार ऐसी भूल की, जिनकी वजह से भाजपा में तीसरे नंबर का बड़ा नेता होने के बावजूद उनकी सियासी पारी सिर्फ यूपी के मुख्यमंत्री या फिर राजस्थान के राज्यपाल तक ही सिमट कर रह गई।

भारतीय राजनीति के बड़े बदलाव का एक युग शनिवार को खामोश हो गया, लेकिन इस खामोशी से पहले कल्याण सिंह ने ऐसे तमाम काम किए जिसे कोई भी राजनेता दोहराना नहीं चाहेगा। खास तौर पर वह तो कतई नहीं जिसकी गिनती देश के भावी प्रधानमंत्रियों में होती हो। दैनिक जागरण के पूर्व समाचार संपादक एवं स्तंभकार रवि शर्मा की मानें तो कल्याण सिंह सिर्फ मुख्यमंत्री और राज्यपाल के खांचे में फिट बैठने वाली शख्सियत नहीं थे। उनके मुताबिक कल्याण सिंह को अलट बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण अडवाणी के बाद मुरली मनोहर जोशी के समकक्ष न सिर्फ  तीसरा बड़ा नेता माना जाता था, बल्कि उनकी गिनती भावी प्रधानमंत्री के तौर पर वाजपेयी की विरासत संभालने वालों में होती थी।

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बीजेपी न छोड़ी होती
रवि शर्मा कहते हैं कि कल्याण सिंह ने ही पहली बार हिन्दुत्व की राजनीति को परवान चढ़ाया। भले ही वह पिछड़े वर्ग से ताल्लुक रखते थे, लेकिन मंडल कमंडल की राजनीति के दौर में भी उन्होंने हर जाति का वोट लेकर अपनी पकड़ साबित भी की थी। वाजपेयी भले ही रणनीतिकार रहे हों, लेकिन उस रणनीति को अमल में लाने का श्रेय सिर्फ और सिर्फ कल्याण सिंह को जाता है, लेकिन सफलता जब सिर चढ़कर बोलती है तो अच्छे-अच्छों में अहम घर कर जाता है। कल्याण सिंह के साथ भी यही हुआ। वाजपेयी से जब उनके रिश्ते बिगड़े तो न सिर्फ बीजेपी से नाता तोड़ लिया, बल्कि राम मंदिर के मुद्दे को भी तिलांजलि दे दी। जो उनकी पहचान हुआ करता था। ऊपर से मुलायम सिंह से दोस्ती ने दूध में फिटकरी का काम किया। रवि शर्मा कहते हैं कि कल्याण सिंह ने पार्टी छोड़कर न सिर्फ अपना नुकसान किया, बल्कि बीजेपी का भी बेड़ा गर्क कर दिया। यह बात और है कि तमाम ठोकरें खाने के बाद जब उनकी समझ में घर वापसी का रास्ता आया तब तक बहुत देर हो चुकी थी। मोदी और योगी युग में इतना ही काफी है कि उनका बेटा राजवीर सिंह सांसद है और नाती संदीप सिंह उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री। 

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ढ़िलाई मार गई 
रवि शर्मा कहते हैं कि बाबरी मस्जिद विध्वंस की घटना उनके जीवन ही नहीं भारतीय इतिहास की निस्संदेह एक बड़ी घटना थी, लेकिन इसके बाद मंदिर मुद्दे को तिलांजलि दे दी। नतीजन, भाजपा की सियासी जमीन खिसकती देख नरेंद्र मोदी ने “मंदिर वहीं बनाऊंगा” के उनके सपने को अपनाया और देश की सर्वोच्च कुर्सी तक जा पहुंचे। कल्याण सिंह का पहला कार्यकाल भले ही उनके सख्त फैसलों के लिए याद किया जाए, लेकिन दूसरे कार्यकाल की ढ़िलाई उन्हें मार गई। उनकी इसी गलती की वजह से बीजेपी को सत्ता में वापस लौटने के लिए लगभग डेढ़ दशक का वक्त लगा। ऊपर से खुद कल्याण सिंह सिर्फ लोध समुदाय के नेता बनकर रह गये। बीजेपी में वापस आए तो भी उनकी यह छवि टूट न सकी और पार्टी ने उन्हें उन्हीं सीटों पर प्रचार के लिए भेजा जो लोध बाहुल्य थीं। सच कहें तो कल्याण सिंह के राजनीतिक पतन की शुरुआत तभी हो गई थी, जब उन्होंने समाजवादी पार्टी के साथ नजदीकी बढ़ाई और मिलकर न सिर्फ चुनाव लड़ा बल्कि साथ में सरकार भी बनाई। इसके बाद तो वह दौर भी आया जब वह  अपनी पार्टी के प्रचार के लिए एक हैलीकॉप्टर तक का इंतजाम न कर सके।

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भारी पड़ा वाजपेयी का अपमान
रवि शर्मा कल्याण सिंह की सबसे बड़ी सियासी गलती को याद करते हुए कहते हैं कि “अटल बिहारी वाजपेयी उस वक्त प्रधानमंत्री थे। उनका सम्मान भाजपा ही नहीं बल्कि विरोधी दलों के लोग भी करते थे, लेकिन कल्याण सिंह ने जिस तरह उनका सार्वजनिक तौर पर अपमान किया वह किसी को भी रास नहीं आया। कल्याण सिंह को सीएम की कुर्सी से न उतारा जाता तो भाजपा कभी की खत्म हो गई होती। कल्याण सिंह ने वाजपेयी को जिन शब्दों में संबोधित किया वह बेहद अपमान जनक थे… और उस दौर में सबसे ज्यादा चर्चित हुए वाजपेयी के लिए सिंह के वह शब्द थे भुलक्कड़, बुझक्कड़, पियक्कड़।” ठीक उसी वक्त कल्याण सिंह के राजनीतिक ढलान की सबसे बड़ी वजह बनकर उभरीं उन्हीं की पार्टी की एक नेता कुसुम राय भी साबित हुईं। कुसुम राय ने अपने फायदे के लिए कल्याण सिंह का जमकर इस्तेमाल किया। यहां तक कि समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय क्रांति पार्टी की मिलीजुली सरकार में वह कैबिनेट मंत्री तक बन गईं।

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नरेंद्र मोदी तक को नहीं गठाना 
रवि शर्मा कहते हैं कि कल्याण सिंह को लगने लगा था कि वह बीजेपी ही नहीं संघ से भी टकरा सकते हैं। यदि ऐसा न होता तो वाजपेयी से विवाद होने पर कम से कम संघ का मान तो रखते। एक घटना का उल्लेख करते हुए वह कहते हैं कि वाजपेयी से विवाद के बाद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने नरेंद्र मोदी को कल्याण सिंह से मिलने भेजा, लेकिन एक मुख्यमंत्री ने संघ के एक प्रचारक को मिलने का वक्त ही नहीं दिया। कई दिनों के इंतजार के बाद मोदी कल्याण सिंह से मिल सके। बात इतने पर ही खत्म हो जाती तो भी ठीक था। कल्याण सिंह ने जब मोदी को मिलने का समय दिया तो कई लोग उन्हें घेरे हुए थे। मोदी अकेले में बात करना चाहते थे, लेकिन कल्याण सिंह ने मना कर दिया। मोदी ने कुसुम राय का मामला उठाया, तो उन्होंने उसे बेहद अनमने ढंग से लिया और अटल बिहारी वाजपेयी पर निशाना साधते हुए अपमानजनक भाषा तक का इस्तेमाल कर डाला। खैर, दौर बदला और जिस शख्स को उन्होंने मिलने के लिए वक्त नहीं दिया था, उसी ने कल्याण सिंह का वनवास खत्म कर राजस्थान का राज्यपाल बना डाला। शायद कल्याण सिंह की भी समझ में आ चुका था कि जिस पार्टी ने उन्हें इतनी शोहरत दी, उसे छोड़कर उन्हें कुछ हासिल नहीं हुआ और आखिर में जितना मिला उसे स्वीकार करते चले गए।

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उन्हें भूलना मुश्किल ही नहीं नामुकिन है 
रवि शर्मा कहते हैं कि तमाम खामियों के बावजूद कल्याण सिंह को भूलना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। एक सख्त प्रशासक के तौर पर उन्होंने जो छवि बनाई उसकी बानगी तो सिर्फ और सिर्फ 90 के दशक में बोर्ड परीक्षाएं पास करने वाले ही दे सकते हैं। कल्याण सिंह के कामों में नकल अध्यादेश एक बड़ा फैसला था। एक ऐसे समाज की कल्पना जहां भावी पीढ़ी को भ्रष्टाचार से पूरी तरह दूर किया जा सके। हालांकि, इस अध्यादेश में नकलचियों की गिरफ्तारी के बजाय सामाजिक एवं शैक्षणिक प्रतिबंधों को शामिल कर दिया जाता तो न सिर्फ युवाओं का एक बड़ा वर्ग जो आने वाले दशकों में मतदाता बनकर उभर रहा था वह नाराज होता और ना ही करीब 98 फीसदी विद्यार्थियों के फेल होने से उनका भविष्य ही बिगड़ता।

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इमरजेंसी और जेल के 21 महीने 
कल्याण सिंह के संघर्षों को याद करते हुए रवि शर्मा कहते हैं कि उन्होंने आजादी की लड़ाई भले ही न लड़ी हो, लेकिन आपातकाल के खिलाफ जो संघर्ष किया वह दूसरी आजादी की लड़ाई से जरा भी कमतर नहीं है। आपात काल के दौरान कल्याण सिंह साल 1975 और 1976 के दौरान पूरे 21 महीने जेल में रहे। इस दौरान उन्हें अलीगढ़ और बनारस की जेलों में रखा गया। आपातकाल खत्म हुआ तो उन्हें रिहाई मिली।

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तीन दिन का शोक 
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ समेत देश और दुनिया के तमाम राजनेताओं ने कल्याण सिंह के निधन पर शोक जताया है। बिरला ने कल्याण सिंह को गरीब और पिछड़ों का असल योद्धा बताते हुए कहा कि उनके जाने से न सिर्फ भारतीय राजनीति ने एक कुशल और ईमानदार जनसेवक खो दिया, बल्कि देश की राजनीति के एक अध्याय का भी अंत हो गया। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने उत्तर प्रदेश में तीन दिन के राजकीय शोक और 23 अगस्त को सार्वजनिक अवकाश की घोषणा की है।

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