ज्ञान सागर वर्माः देश का इकलौता पत्रकार जिसने इंटेलीजेंस की आंखों में धूल झोंककर छापी थी सरकार के खिलाफ खबर
आपातकाल: अखबार छापने से पहले इंटेलीजेंस के अफसर चेक करते थे एक-एक खबर
- सरकार के खिलाफ खबर छपने की कई अफसरों पर गिरी थी गाज
TISMedia@निर्भय सक्सेना.
जून 1975… देश भर में इमरजेंसी लगी हुई थी… इंदिरा गांधी का विरोध करने वालों को चुन-चुन कर जेलों में ठूसा जा रहा था… सरकार का विरोध करने वालों को दिल दहला देने वाली यातनाएं दी जा रही थीं… बावजूद इसके अखबारों में इनका एक शब्द नहीं छप रहा था…। वजह थी इंदिरा का वह खौफ जिसके चलते इंटेलीजेंस के अफसर अखबार छपने से पहले ही उनके दफ्तरों में बैठ जाया करते थे और जब तक हर खबर का एक-एक शब्द न पढ़ लेते तब तक उस पर छपाई योग्य होने का ठप्पा नहीं लगाते थे। बावजूद इसके उत्तर प्रदेश के बरेली में एक ऐसा जांबाज पत्रकार एवं संपादक था जिसने जनसंघ के नेताओं की गिरफ्तारी और उन्हें दी जाने वाली यातनाओं की खबर छाप डाली। वह भी इंटेलीजेंस के अफसरों से “छपाई योग्य” होने का ठप्पा लगवा कर। वह दिग्गज पत्रकार थे ज्ञान सागर वर्मा। यह वहीं वर्मा हैं जिनकी खबरों ने न सिर्फ उत्तर प्रदेश की कई सरकारें गिराईं, बल्कि भारत पर चीन के हमले की खबर भी ब्रेक की। जिस पर खुद तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को संसद में सफाई देनी पड़ी थी।
46 साल पहले 25 जून 1975 को देश में आपातकाल लगा दिया गया था। उस समय मे दैनिक विश्व मानव के संपादकीय विभाग में था। आपतक की घोषणा होते ही दिल्ली के कई समाचार पत्रों ने संपादकीय स्थान खाली छोड़कर अपना विरोध जताया था। जिस पर कुछ संपादकों की गिरफ्तारी भी हुई थी। बरेली में दैनिक विश्व मानव का प्रबंधन लक्ष्मण दयाल सिंगल के हाथ मे था जो कांग्रेस के पक्षधर भी थे। मुझे याद है कि विश्व मानव के समाचार संपादक जितेंद्र भारद्वाज एवम रामगोपाल शर्मा ने संपादकीय के सभी लोगो से सरकार के विरोध में कुछ नही लिखने के निर्देश दिए थे। संपादकीय टीम को ज्ञानसागर वर्मा,अशोक जी, कन्हइया लाल बाजपाई देखते थे। सिटी न्यूज़ को स्वतंत्र सक्सेना, राकेश कोहरवाल, निर्भय सक्सेना, कमल शर्मा, सतीश कमल आदि देखते थे।
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अफसर पढ़ते थे हर एक खबर
रात में इंटेलिजेंस के अधिकारी हर खबर पर “पास” की मोहर लगते थे। जिला सूचना अधिकारी वर्मा जी भी रात में शहर की न्यूज़ पर नजर रखते थे कि कही कोई गलत खबर नही छप जाए। एक दिन बाद यानि 26 जून 1975 को जनसंघ के नेता सत्य प्रकाश अग्रवाल को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। सिटी रिपोर्टर ने डरते-डरते सूचना दी, लेकिन किसी की समझ में नहीं आया कि इस खबर को छापें तो कैसे? तभी संपादकीय टीम का सबसे योग्यवान हिस्सा रहे ज्ञान सागर वर्मा ने रिपोर्टर की पीठ पर धौल जमाते हुए कहा कि अब तू देख कि यह खबर कैसे छपती है! ज्ञान सागर वर्मा ने रिपोर्टर से पूरी घटना पूछी और अपनी घसीटामार राइटिंग में गंदे से कागज पर लिख डाली। मैने इंटेलिजेंस टीम को उस दिन की सभी खबरों के साथ ज्ञान सागर वर्मा जी की लिखी खबर भी भेज दी। बाकी खबरों के बीच में दबी यह खबर अपठनीय होने के कारण और सरकार के खिलाफ होने के बावजूद भी इंटेलीजेंस के अफसरों ने “छपाई योग्य” होने का ठप्पा लगा कर एक झटके में वापस भेज दी। अगली सुबह जब सत्य प्रकाश अग्रवाल की गिरफ्तारी की खबर अखबार में छपी तो बरेली से लेकर लखनऊ और दिल्ली तक बवाल मच गया। कमिश्नर से लेकर कलक्टर और एसपी तक दौड़े-दौड़े अखबार के दफ्तर जा पहुंचे, लेकिन संपादक जी ने न्यूज़ पास होने की मोहर लगी कॉपी सूचना अधिकारी को दिखा दी। नतीजन, कोई भी अखबार के खिलाफ कार्यवाही नहीं कर सका। हालांकि गाज गिरनी तो तय थी और गिरी भी, लेकिन यह गाज गिरी इंटेलिजेंस के अफसरों पर। उन्हें सरकार ने रातों रात न सिर्फ बदल दिया, बल्कि बरेली में पहले से भी ज्यादा खूंखार अफसरों की पोस्टिंग कर दी गई।
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वीरेन डंगवाल का संघर्ष
नामचीन कवि, साहित्यकार और शिक्षक वीरेन डंगवाल मूलतः पत्रकार थे। आपातकाल के दौरान वह जॉर्ज फर्नाडीस के साप्ताहिक अखबार ‘प्रतिपक्ष’ में बरेली से रिपोर्टिंग करते थे। इंदिरा गांधी की आताताई नितियों का विरोध करने के कारण वीरेन डंगवाल पर भी गिरफ्तारी का खतरा मंडराता रहता था। नतीजन, वह पूरे आपातकाल में अपने घर ही नहीं गए। दिन भर रिपोर्टिंग करने के बाद वह देर रात विश्व मानव के दफ्तर पहुंच जाते और वहीं प्रिंटिंग मशीन के नीचे जमीन पर अखबार बिछा कर सो जाते। यकीनन, यह बहुत बड़ा संघर्ष था जिसके बारे में आज की पीढ़ी सोचकर भी कांप जाए। आपातकाल में मैने सुभाषनगर गुरुद्वारा में जाकर वहां रह रहे लोगो से भी बात की थी। कवि कन्हैया लाल बाजपेयी जी की इलाहाबाद हाई कोर्ट के जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा के दिए गए निर्णय के बाद लिखी कविता उन दिनों चाय घाट ‘फाइव स्टार’ पर बहुत सुनी जाती थी। वह थी … ‘बरुआ भैया कुछ तो जुगत बताओ, जा राजनारायण को जल्दी ही जेल भिजवायो’।
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इंदिरा को सत्ता से बेदखल करने वाले जज थे बरेली के
आपातकाल के दौरान उत्तर प्रदेश की तराई में बसा प्रमुख शहर कांग्रेस का गढ़ होने के बावजूद ऐसे ही चर्चाओं में नहीं आया। यहां के लोकतंत्र सेनानियों पर हुए अत्याचारों जिनमें वीरेंद्र अटल का नाम प्रमुखता से लिया जाता है के किस्से बीबीसी लन्दन तक ने ब्राडकास्ट किए थे। बरेली के चर्चा में आने की प्रमुख वजह थी इलाहाबाद हाईकोर्ट में जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा। यह वही जज थे जिन्होंने 12 जून 1975 को राजनारायण बनाम इंदिरा गांधी केस में इंदिरा को सत्ता से बेदखल करने का महत्वपूर्ण फैसला दिया था। इसी फैसले के बाद देश का राजनैतिक घटना चक्र तेजी से बदला और आपातकाल लागू कर दिया गया। दरअसल, रायबरेली संसदीय क्षेत्र से इन्दिरा गाँधी का निर्वाचन भ्रष्ट साधनों के उपयोग के कारण जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने ही रद्द किया था। देश की राजनीति में उफान लाने वाले इस साहसिक निर्णय को देने वाले जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा का झुमका सिटी बरेली से गहरा नाता रहा था। उन्होंने बरेली कालेज में वकालात की उच्च शिक्षा प्राप्त की थी। इतना ही नहीं उन्होंने वर्ष 1943 से 1955 तक बरेली में वकालत की प्रेक्टिस भी की थी।
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खाली करो सिंहासन, जनता आती है
जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा के इस फैसले के बाद सभी को यह उम्मीद थी कि प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी नैतिकता के आधार पर अपने पद से त्यागपत्र दे देंगी, मगर अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं के कारण इंदिरा गांधी जी ने ऐसा नहीं किया और कांग्रेस प्रेसिडेंट देव कांत बरुआ सहित एक चौकड़ी ने उन्हें गुमराह कर तानाशाह बनाने की दिशा में काम किया जिससे तत्कालीन जनसंघ सहित पूरा विपक्ष कांग्रेस पर हमलावर हो गया। उनके इस्तीफे की मांग करते हुए विपक्षी दलों ने देशभर में विरोध में धरना, प्रदर्शन एवं रैलियां शुरू कर दीं। सम्पूर्ण विपक्ष द्वारा चलाए जा रहे इस आन्दोलन की अगुवाई लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने संभाली और नारा दिया सिंघासन खाली करो जनता आती है। इसके बाद 25 जून 1975 को दिल्ली के रामलीला मैदान में विपक्ष ने एक बड़ी रैली की जिसमें जनसमूह उमड़ा। लोकनायक जय प्रकाश नारायण ने रैली में जोशीला भाषण दिया। उन पर लाठी चार्ज भी हुआ। इससे परेशान इन्दिरा गाँधी ने अपनी कुर्सी बचाने की खातिर संविधान के अनुच्छेद 352 का दुरुपयोग करते हुए पूरे देश में आपातकाल लगाने की प्रकिया में सारे कानूनी प्रावधानों को दरकिनार करते हुए देश मे आपातकाल की घोषणा की गई थी। सभी नियमों का उल्लंघन करते हुए इन्दिरा गाँधी ने आपातकाल लगाने का प्रस्ताव भी मंजूरी को तत्कालीन राष्ट्रपति को भेजा। उन्होने बिना संवैधानिक औपचारिकताओं के निर्वाह हुए बिना ही आपातकाल की घोषणा के फ़ाइल पर हस्ताक्षर कर दिए। इस प्रकार चन्द घन्टों में ही सारी कार्रवाई निपटाकर देश पर आपातकाल थोप दिया गया। आपातकाल की यह घोषणा 25 जून 1975 को रात के 12 बजे आकाशवाणी से की गई।
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कोई अपील नहीं, कोई दलील नहीं
वर्तमान की नई पीढ़ी को लोकतन्त्र पर आई इस काली छाया की कम ही जानकारी होगी मगर उस समय जो लोग किशोर, नौजवान या प्रौढ़ रहे होंगे उनके मन में देश मे लगे आपातकाल की यादें आज भी ताजा हैं। देश में उस समय घुटन भरा डर था। पूरे देश में सरकार विरोधी बताकर सभी को जेलों में भेज दिया गया। आपातकाल में किशोरों तक को नहीं बख्शा गया। उस समय के प्रतिपक्ष के के बड़े नेता लोकनायक जय प्रकाश नारायण, अटल बिहारी बाजपेई, लालकृष्ण आडवाणी, मोरारजी देसाई, मुरली मनोहर जोशी, जार्ज फर्नांडीज, चौधरी चरण सिंह, राजनारायण सहित सभी प्रमुख नेताओं को जेल में डाल दिया गया। कोई अपील नहीं, कोई न्यायिक व्यवस्था नहीं, न्यायालयों के सारे अधिकार समाप्त। लाखों लोगों की गिरफ्तारी की गई। प्रेस पर सेंसरशिप लगाकर कुलदीप नैयर, पंजाब केसरी के रमेश चन्द्र आदि पत्रकार जेल में डाल दिए गये। चारों तरफ भय और दहशत का व्याप्त हो गई थी।
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प्रेस की आजादी का घोंटा गला
प्रेस की स्वतंत्रता का गला घोट दिया गया। छापेखानों की बिजली काट दी गई। समाचार पत्रों, पत्रिकाओं में छापने वाली सामग्री का प्रकाशन से पूर्व इंटेलीजेंस की टीम द्वारा जांच होने लगी। आपातकाल लगाते समय इन्दिरा गाँधी ने रेडियो पर भाषण देते हुए कहा था कि आपातकाल बहुत कम समय के लिए होगा। इसलिए देश की जनता को यह उम्मीद थी कि दो-तीन महीने में आपातकाल समाप्त हो जायेगा और लोगों को जेलों से रिहा कर दिया जायेगा, मगर जब ऐसा नहीं हुआ तो लोगों के सब्र का बांध टूटने लगा। देश में अन्दर ही अन्दर आपातकाल हटाने के लिए संघर्ष चलने लगा। अक्टूबर 1975 से देश भर में लोकतंत्र की पुनः बहाली की मांग को लेकर सत्याग्रह करते हुए गिरफ्तारियां देने का दौर शुरू हो गया। लोग लोकतान्त्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए अपने कैरियर की चिन्ता किए बिना गिरफ्तारियां देते रहे। आपातकाल के खिलाफ लोकतन्त्र की आवाज बुलन्द करते हुए पूरे देश में हजारों लोगों ने अपनी गिरफ्तारियां दीं। सत्याग्रहों के दौरान यह नारा बहुत लोकप्रिय हुआ- सच कहना अगर बगावत है। तो समझो हम भी बागी हैं। देश में लोकतंत्र की स्थापना के लिए हुआ यह आंदोलन किसी मायने में स्वतंत्रता आंदोलन से कम नहीं रहा। अगर स्वतंत्रता के आंदोलन में अंग्रेजों को भगाने का लक्ष्य था तो इस आंदोलन में लोकतंत्र को तानाशाही के चंगुल से बाहर निकालने का जज्बा था। आपातकाल के विरोध में हुए आंदोलन में भी लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए हजारों लोगो ने पुलिस की बर्बरता झेली और जेल की कोठरियों में कष्ट भी झेला।
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19 महीने के तप से जन्मा था जनता दल
आपातकाल के दौरान देश के हजारों लोगों ने गिरफ्तारी के दौरान पुलिस के अत्याचार सहे। देश मे लोकतंत्र की बहाली के लिए हुए इस आंदोलन में देश में कई नेतागण का निधन भी हुआ। आपातकाल के दौरान जेलों और जेल से बाहर आकर जान गंवाने वाले लोगों के हर प्रदेश, हर भाषा और हर धर्म के लोग शामिल थे। इन सबका धर्म एक था और वह था अभिव्यक्ति की आजादी, लोकतंत्र की पुनः बहाली की जाए। आपातकाल के 19 महीनों तक देश में एक अजीब सी खामोशी रही जिससे इन्दिरा गाँधी को लगा कि विपक्ष का यह फिजूल का ही दम्भ था, जिसे अखबारों एवम आन्दोलनकारियों ने हवा हवाई बना दिया है। इससे उत्साहित होकर इंदिरा गांधी जी ने 18 जनवरी 1977 को देश मे आम चुनाव की घोषणा कर दी। एक बार फिर 21 जनवरी 1977 के बाद देश मे एक बार फिर राजनैतिक घटना चक्र तेजी से घुमा। विपक्ष के चार दलों के विलय के बाद एक नया राजनीतिक दल के रूप में जनता पार्टी बनी। जनता पार्टी का देश भर में प्रसार प्रचार हो गया। इस चुनाव में जनता पार्टी को बड़ी सफलता मिली। 22 मार्च 1977 में प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई की अगुआई में देश में जनता पार्टी की सरकार बनी और लोकतंत्र की पुनः बहाली हुई। पर आपसी क्लेश में जनता पार्टी की सरकार जल्दी ही गिर गई। और फिर कांग्रेस वापस आ गई।
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