एक अनुचित अप्रासंगिक विवाद
सच में यह विवाद करना ही अत्यन्त अविवेकपूर्ण है| कोई भी पैथी, विचार, दर्शन, जीवन प्रणाली पूर्णतम नहीं है और न ही कोई निहायत बेकार| सभी की अपनी अच्छाइयां हैं, बुराइयाँ हैं, सभी में शोध और सुधार की अपेक्षा हैं| अपने से सम्बद्ध पैथी की शाब्दिक तुलना से ज्यादा जरुरी है बेहतर परिणामों के साक्ष्य और शोध परिणाम| आम आदमी को इससे कोई लेना देना नहीं| जो जिससे ठीक होता है उसके लिए वह अच्छी पैथी| कुछ विषयों में भावना से अधिक वैज्ञानिकता की अपेक्षा है| मैडीकल साइंस भी ऐसा ही क्षेत्र है| इसलिए दु:खद है यह चिकित्सा पद्धतियों की लडाई। एलोपैथी श्रेष्ठ है या आयुर्वेद, होम्योपैथी या कोई और। बाबा रामदेव ने यदि यह कहा है कि एलौपैथी चिकित्सा पद्धति मूर्ख चिकित्सा पद्धति है तो गलत है, नहीं कहना चाहिए था उनको| बेहद आपत्ति जनक वक्तव्य है| यह वक्तव्य निहायत बचकाना पन है या बिजनिस का भाग है| इसके लिए उन्होंने स्पष्टीकरण और माफी भी मांगी कि यह वक्तव्य उनका नहीं था उनकी किसी मीटिंग में सोशल मीडिया से आया हुआ था,वही सुनाया| इस माफी से बाबा और आयुर्वेद का मान ही बढ़ा लेकिन साथ में एलोपैथी वालों को भी बाबा रामदेव के लिए नीम हकीम, ठग, आदि शब्दों का प्रयोग कर सहस्राब्दियों से प्रचलित आयुर्वेद की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए| अभी कुछ मीडिया चेनलों पर बहसों में लाखों के सम्मान्य स्वामी रामदेव को आई एम ए के अध्यक्ष द्वारा बहुत भद्दे रुफ मे अपमानित होते हुए देखा, क्या इसके लिए आई एम ए के अध्यक्ष को माफी नहीं मांगनी चाहिए| अशिष्टता और अभद्रता की आजादी तो किसी को नहीं है| यह सच है कि तमाम गम्भीर बीमारियों के साइड इफेक्ट् रहित इलाज आयुर्वेद, योग, प्राकृतिक चिकित्सा और होम्योपैथी में हैं| कोरोना जैसी बीमारियों में एलोपेथी और आयुर्वेद ने अपनी अपनी तरह से लड़ाई लड़ी है| लाखों को एलोपैथी ने ठीक किया तथा लाखों को आयुर्वेद, योग, प्राकृतिक चिकित्सा, यूनानी, होम्योपैथी तथा सिद्धा पद्धतियों ने| अपितु कोरोना में तो अद्भुत दृश्य था एलोपैथी के चिकित्सा केन्द्र पर आयुर्वेद का काढ़ा, योग, प्राणायाम तथा सात्विक जीवन चर्या देखी गयी| मेरे एक घनिष्ठ मित्र हैं जीव विज्ञान के प्रोफेसर हैं उनके न्योरो से सम्बन्धित गम्भीर बीमारी हुयी, महीनों एस एम एस मैडीकल कॉलेज और नामी गिरामी अस्पतालों में भर्ती रहे, अनेक बार कौमा में चले गये, कोई पुख्ता इलाज नहीं मिला| उन्होंने किसी अनुभवी मित्र की सलाह पर एक छोटी गली में रहने वाले बिना किसी डिग्री वाले वैद्य को दिखाया और अब बिल्कुल ठीक हैं| यह सुनकर विश्वास नहीं होता लेकिन यह आंखों देखा सच है| हम नींम हकीम कहकर जिनकी अवमानना करते हैं, गांव में इस बार कोरोना में वही देवदूत बनकर उतरे| क्योंकि गांवों में न प्रशिक्षित डॉक्टर थे और न मूल भूत साधन| अनेक ऐसे उदाहरण हैं कि जिनका बड़े डॉक्टर इलाज नहीं कर सके उनका गांव के बिना पढ़े लिखे किन्तु पीढ़ियों के अनुभव के वाहक वैद्यों ने इलाज कर दिया| वह भी विज्ञान ही है, अनुभव आधारित लोक विज्ञान| हाल ही में एक जिला कलेक्टर महोदय का माननीय मुख्यमंत्री जी के साथ सम्वाद का एक वीडियो वायरल हुआ जिसमें वे यह बताते हुए देखे गये कि उनका और उनकी धर्म पत्नी का कोरोना प्राकृतिक चिकित्सा से ठीक हुआ बार बार राज्य के सबसे बड़े शहर के सबसे बड़े चिकित्सालय के सबसे बड़े अधिकारी के बार बार कहने के बाबजूद वे भर्ती नहीं हुए और घर पर ही प्राकृतिक चिकित्सा से वे ठीक हो गये|
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इसी तरह अनेक आयुर्वैदिक चिकित्सकों ने एलोपैथी की दवाओं का सहारा लिया| कुल मिलाकर जिस रोगी का जिस चिकित्सा से रोगों का इलाज हो, उसके लिए वही चिकित्सा पद्धति श्रेष्ठ है| अपनी रीति तो श्रेष्ठतम को स्वीकार करने की रही है| महाकवि कालिदास ने कहा है कि “कोई भी ‘पुराना ‘है इस तर्क से श्रेष्ठ नहीं हो जाता तथा ” नया है” इस तर्क मात्र से अश्रेष्ठ नहीं हो जाता इन आधारों पर बुद्धिहीन विवाद करते हैं और विवेकशील परख कर व्यवहार करते हैं|
सदियों से आयुर्वेद हमारे घरों में, हमारे शरीर की पोषिका रसोई में वसा है| हमारे यहाँ तो कहा गया है कि -“अमूलमनौषधं नास्ति” ऐसा कोई मूल नहीं जो औषधि नहीं हो| कहा जा रहा कि विवाद का कारण स्वामी रामदेव का पहला बयान नहीं उस पर तो उन्होंने माफी मा़ंग ली अपितु दूसरा है जिसमें उन्होंने 25प्रश्न पूंछ लिये एलोपैथी वालों से, उसमें क्या गलत किया ? यह कोई असंवैधानिक तो नहीं| उत्तर देने न देने का भी विकल्प है, उसमें गलत क्या हो गया| अनेक बीमारियां हैं जिनका इलाज एलैपैथी के पास नहीं अन्यों के पास है| इसी तरह अनेक ऐसी बीमारियां हैं जिनका इलाज एलोपैथी में ही है औरों में नहीं| इसमें विवाद क्यो़| उसमें रोगी का अपना विकल्प है साथ में रोग की प्रकृति भी| कुछ रोगों पर एलोपैथी कारगर है, कुछ पर आयुर्वेद, होम्योपैथी, योग, यूनानी आदि| इसमें विरोध कहाँ है| अच्छी बात है हमारे पास विकल्प हैं| और इस विकल्प का बहुत अच्छा लाभ कोरोना काल में देखा गया| एलोपैथी हो या आयुर्वेद सभी के डॉक्टर जी जान से जनता के साथ खड़े थे|
अभी त्वरित लाभ और गम्भीर स्थिति के लिए एलोपैथी चिकित्सा ही सिरमौर है। लेकिन आज से पांच सौ वर्ष पूर्व कोई नाम भी नहीं जानता होगा। तब भी तो लोगों का इलाज होता ही था न? और हमारे ज्ञात इतिहास में ऐसी घटनाओं का उल्लेख लगभग नहीं के बराबर है कि बहुत बडी बीमारी से बडी जनसंख्या की हानि हुई हो। महामारी शब्द है और वह जननाश के अर्थ में ही है, पर बीमारी से बहुत बडी जनहानि का उल्लेख नहीं मिलता। जाहिर है कि हमारी चिकित्सा पद्धति, जो मुख्यतः योग और आयुर्वेद पर आधारित थी, वह बहुत ठोस और कारगर थी| तथापि हमें अपने दिमाग में यह अच्छी तरह बिठा लेना चाहिए कि उत्तम से उत्तम सभ्यता, प्रविधियाँ, विचार प्रणालियां, भी नष्ट हो जाती है, या समय के अनुसार ऊंची नीची हो जाती हैं| उसमें सुधार और अनुसंधान की अपेक्षा होती है| उसके वे ही सभी कारक जो उस सभ्यता को इतने ऊंचाई पर लेकर जाते हैं| कभी हमारे पास चिकित्सा के लिए प्राचीन पद्धतियाँ हीं थीं और हैं वे भी वैज्ञानिक ही हैं, आयुर्वेद शरीर परीक्षण पर आधारित हैं| जो काम एलोपैथी में जांचों से होता है उसे आयुर्वेद में नाड़ी परीक्षण से कुशल वैद्य कर लेते हैं, नाड़ी विज्ञान कोई छोटा और साधारण विज्ञान नहीं है| एलोपैथी ही वैज्ञानिक है यह हमारी अज्ञानता हो सकती है| एलोपैथी यह शब्द भी लेटिन भाषा के एलास और पेथी इन दो शब्दों से बना है जिसका अर्थ है “एक अतिरिक्त पद्धति” यानी पहले से प्रचलित आयुर्वेद और होम्योपैथी आदि के अतिरिक्त और एक चिकित्सा पद्धति| आयुर्वेद भी विशुद्ध विज्ञान है जो अत्यधिक व्यापक है उसके बहुत व्यापक आठ अध्ययन शाखाएं हैं| विपुल साहित्य भंडार और चिकित्सा प्रविधियाँ हैं|
यह जरुर है कि एलोपैथी के आगमन से और बेहतर विकल्प खुले हैं लेकिन अभी भी ऐसी अनेक बीमारी हैं जिनकी जड़ पर काम करने के लिए आयुर्वेद और होम्योपैथी बहुत कारगर हैं| जहाँ तक बाबा रामदेव की बात है तो कोई आयुर्वेद उनका तो नहीं है, हजारों वर्ष पुराना है लेकिन हजारों वर्ष पुराने योग और आयुर्वेद को वर्तमान जन जीवन तक जोड़ने में स्वामी रामदेव की भूमिका को कम नहीं माना जा सकता| जहाँ तक बिजनिस का प्रश्न है तो बिजनिस करना अपराध तो नही है| यदि बिजनिस करना ठगी है तो कोन ठग नहीं है, सभी अपनी अपनी तरह से बिजनिस करते ही हैं फिर वे व्यापारी, नौकरपेशा, राजनेता, धर्मगुरु, सभी तो अपने अपने तरह से बिजनिस करते हैं| एलोपैथी के डॉक्टर भी विजनिस करते हैं|
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बाबा रामदेव के बिजनिस से स्वदेशी और आयुर्वेद का कितना बड़ा उपकार हुआ| वस्तुत: इस विवाद का कारण एलोपैथी बनाम आयुर्वेद नहीं अपितु मैडीकल क्षेत्र में खुलते हुए विकल्पों से उत्पन्न व्यावसायिक चिन्ता हैं जिनके उत्पन्न करने में पतंजलि के उत्पादन है| वही चिन्ता अनेकों प्रकार से व्यक्त होती हैं| बजाय इस बहस के कि कौन श्रेष्ठ है? ऊर्जा बेहतर परिणामों के लिए प्रयत्नों पर लगानी चाहिए| पैथियों की यह तुलना ही अव्यावहारिक है ठीक वैसे ही जैसे कोई कहे कि अंग्रेजी अच्छी या संस्कृत| भूगोल अच्छा या राजनीति शास्त्र| भौतिक विज्ञान अच्छी या रसायन विज्ञान| यह तुलना बनती ही नहीं| सभी के अपने अपने क्षेत्र हैं, विधियाँ है, अपने अपने महत्व| जहाँ काम आवे सुई कहा करे तलवार वाली कहावत सभी की अपनी अपनी उपयोगिता की ओर संकेत करती है| स्वस्थ संवाद जरुर होना चाहिए लेकिन अभद्र विवाद करना और उसका समर्थन करना दोनों ही अनुचित हैं| सब का उद्देश्य एक है -मानव का कल्याण| वस्तुतः हम अपने समय को अपने परिवेश को सत्य मान लेते हैं। हमारा मस्तिष्क जिससे जुड जाता है, वही अच्छा लगने लगता है। हमें वही जानना, वही सुनना सुख देता है। हमारे मन में भारतीय ज्ञान विज्ञान के विषय में हीन ग्रन्थि है| आयुर्वेद कोई कमजोर पद्धति नहीं है यदि उस में कुछ कमजोरी यदि है तो पैथी के कारण नहीं अपितु इस कारण कि सर्वोत्तम प्रतिभा उधर नहीं जा रही| कितने ऐसे हैं जो अपने बच्चों को मैडीकल में भेजते समय आयुर्वेद को वरीयता में रखते हैं| शायद शून्य प्रतिशत| जिसका दो तीन वर्ष तक एलोपैथी में प्रवेश नहीं हो पाता है वह हारकर बड़े कुण्ठित मन से आयुर्वेद में भेजता है और फिर कहते हैं कि आयुर्वेद में कमजोरी है| काहे की कमजोरी अकेले बाबा रामदेव आयुर्वेद और स्वदेशी के बल पर बहुत विशाल और नियोजित बाजार पर हावी हैं| यह स्वदेशी और आयुर्वेद की ही ताकत है कि बाजार का खाद्य और दवा बाजार स्वदेशी से अटा है, हम सभी को क्षुद्र मनोग्रन्थियों से मुक्त रहने का प्रयत्न करना चाहिए|
जीवनभर दुराग्रहों के खूंटे से बंधे रहना कोई बुद्धिमत्ता नहीं है, सत्याग्रह की प्रवृत्ति ही समाजोपयोगी है| जो सच को खोजते हैं। वे ही आविष्कार करते हैं, नये सिद्धान्त देते हैं, जीवन को ऊंचा उठाते हैं। अच्छा हो कि इस तरह के झगड़े की अनदेखी कर चिकित्सा को और बेहतर बनाने के लिए काम किया जाय|
लेखक – डॉ गीताराम शर्मा
(स्नातकोत्तर संस्कृत विभागाध्यक्ष
एस. बी.पी. राजकीय महाविद्यालय, डूंगरपुर)