साहब ने कहा- हे तीरथ! खाली करो सिंघासन! तीरथ बोले जो आज्ञा दाता!
TISMedia@देहरादून. करीब एक करोड़ की आबादी वाले छोटे से राज्य उत्तराखंड में भाजपा का असमंजस पूरे प्रदेश का चक्का जाम किये हुए है। चुनावी साल में तीसरा मुख्यमंत्री बदला जा रहा है। एक चार साल पूरे न कर सका तो दूसरे को चार माह भी नहीं दिए। जो तीसरा आने वाला है भगवान उसकी रक्षा करे अब तो आठ माह भी नहीं बचे। मजे की बात है कि इस कुर्सी पर वही विराजता है जिसे दिल्ली चुनती है। चाहे वह भाजपा की दिल्ली हो या कांग्रेस की। जरूरी नहीं कि उसे जनता ने चुना हो। ये यहां की पुरानी परंपरा है 21 साल में हुए 10 मुख्यमंत्रियों को दिल्ली ने ही तय किया। इनमें कुछ तो निवर्तमान मुख्यमंत्री तीरथ सिंह की तरह विधायक भी नहीं थे।
इस बार दिल्ली ने रिजल्ट पहले से लिख कर रखा था। तीन दिन लगे तीरथ के फाइनल इंटरव्यू और उन्हें रिजल्ट समझाने में। दिल्ली से लौटते ही तीरथ का पहले राजभवन जाने का कार्यक्रम था। अचानक कुछ हुआ। राजभवन का कार्यक्रम टाल कर साढ़े नौ बजे प्रेस बुला कर उन्होंने अपनी उपलब्धियां गिनाई। लगा खेल बदल गया। फिर प्रदेश भाजपा अध्यक्ष मदन कौशिक सक्रिय हुए। बोले इस्तीफा आज ही होगा। मदन कुछ मंत्रियों के साथ मुख्यमंत्री को राजभवन ले गए। रात सवा 11 बजे इस्तीफा देने के बाद मुख्यमंत्री ने उप चुनाव न हो पाने की स्थिति में संवैधानिक संकट का हवाला देते हुए इस्तीफे की मजबूरी समझाई। केंद्रीय नेताओं का शुक्रिया कर उन्होंने वक्तव्य खत्म किया। अब शनिवार को नए नेता के चयन की औपचारिकता पार्टी पर्यवेक्षक नरेंद्र तोमर की उपस्थिति में होगी। प्रदेश अध्यक्ष मदन कौशिक ने इतना जरूर कहा कि इस बार नेता विधायकों में से ही होगा। अजब नाटकीय घटनाक्रम था पहले राजभवन की सुरक्षा भी हट गई थी लेकिन फिर नए सिरे से मुलाकात की व्यवस्था की गई। ऐसा लगा जैसे तीरथ सिंह कठपुतली बन गए हों।
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तो इस तरह उत्तराखंड में मुख्यमंत्री की कुर्सी ने फिर करेंट मारा। तीरथ सिंह उठ खड़े हुए हैं और अब 11 वीं बार शपथ ग्रहण की तैयारी है। 21 साल में वह 10 वाँ शौभाग्यशाली कौन होगा इसकी अटकलें जारी हैं। ( भुवन चंद्र खंडूड़ी को एक सत्र में दो बार शपथ दिलाई गई थी।) नए मुख्यमंत्री के रूप में सतपाल महाराज का नाम सबसे आगे है। महाराज दिल्ली में जमे हैं। नाम विशन सिंह चुफाल का भी चल पड़ा है। त्रिवेंद्र खुद तो सक्रिय हैं ही उनका गुट एक बार फिर धन सिंह का भी नाम ले रहा है। इधर राजनीतिक विश्लेषक भाजपा के नए सरप्राइज एलिमेंट की तलाश में खुर्दबीन घुमा रहे हैं। इधर उधर गए विधायक देहरादून पहुंच रहे हैं। अलग अलग गुटों की मंत्रणाएँ जारी हैं।
लगता तो यही है कि रामनगर के चिंतन शिविर में ही सब तय हो गया था। अनुष्ठान पूरा करने के लिए तीरथ से दिल्ली परिक्रमा कराई गई। तीन दिन से केंद्रीय नेताओं से मिल रहे मुख्यमंत्री तीरथ रावत से उपचुनाव कराने के लिए केंद्रीय निर्वाचन आयोग में भी अर्जी डलवाई गई। शुक्रवार को पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष से मुलाकात के बाद वह बाहर निकले तो उनकी मुख मुद्रा देख पत्रकारों ने भी यही अंदाजा लगाया कि मुख्यमंत्री के रूप में पारी समाप्ति की घोषणा होने वाली है। देहरादून पहुंचते ही उन्होंने राज्यपाल से मिलने का समय मांगा और इधर खबर तैरने लगी कि वह पार्टी अध्यक्ष को इस्तीफा सौंप आये हैं।
2022 के चुनाव में पार्टी की जीत की संभावनाएं तलाशने के लिए दिग्गजों ने रामनगर में जो मथा उसके नवनीत पर लिखा था तीरथ जिताऊ मुख्यमंत्री नहीं लगते। मुख्यमंत्री को उपचुनाव में उतारने के बारे में पक्ष विपक्ष संवैधानिक व्यवस्थाओं पर बहस में उलझा था और पार्टी के प्रदेश प्रभारी देवेंद्र गौतम अपनी रिपोर्ट अपने ढंग से लिख रहे थे। बैठक की रिपोर्ट दिल्ली पहुंची और मुख्यमंत्री दिल्ली तलब कर लिए गए। शीर्षस्थ नेताओं में मंत्रणा के बहाने उनके जो इंटरव्यू लिए वह भी औपचारिक ही थे। उसका नतीजा तीन दिन बाद तीरथ सिंह रावत को पार्टी अध्यक्ष जे पी नड्डा ने सुना दिया। एक बात तो है कि भाजपा और संघ कुछ भी तय करने से पहले खूब मंत्रणाएँ करते हैं। कई बार तो इंटरव्यू देने वाले के लिए ये मंत्रणा घनघोर यंत्रणा बन जाती है। जैसे कि इस बार तीरथ सिंह के साथ हुआ। आस्था, समर्पण, आज्ञाकारिता आदि में पूरे नंबर होने के बावजूद तीरथ खुद को सक्षम मुख्यमंत्री साबित नहीं कर पाए। आते ही पूर्वमुख्यमंत्री के कई फैसले पलटने की घोषणाएं तो की लेकिन कुछ भी नहीं पलट पाए। अफसरशाही को हिलाने डुलाने की रस्म भी ऐसी कि कुछ नहीं हिला। कुछ अजीब से अटपटे से बयान। अब जिसकी भी आज्ञा रही हो लेकिन कहा तो यही जाएगा कि तीरथ ने ही कुम्भ को कोरोना कुम्भ बनाया और अब कोविड जांच घोटाले में वही घिरे हैं, भले ही ठेके किसी ने छोड़े हों। इसे कहते हैं पूज कर बलि चढ़ाना। मंत्रियों की बेअंदाजी भी दिखी। संगठन पर पहले सीएम की पकड़ होती थी अब ऐसा नहीं दिखता।
यहां तो प्रदेश अध्यक्ष मुख्यमंत्री को पकड़ कर इस्तीफा दिलाने ले जाते दिख रहे हैं। घोषणा भी वही कर रहे हैं। तो भाई दिल्ली वाले इतने भले मानुष को राजनीति के दूसरे पर्चों में अच्छे नंबर कैसे देते?
सल्ट से क्यों नहीं लड़ाया!
सल्ट उपचुनाव में तीरथ के लिए एक गुंजाइश थी लेकिन लगता है पार्टी उन पर भरोसा नहीं कर पाई थी और उन्हें कुछ और परीक्षाओं से गुजारना चाहती थी। उसके बाद गंगोत्री और हाल में इंदिरा हृदयेश की हल्द्वानी सीट खाली हुई। हल्द्वानी में भाजपा को जीत की कोई उम्मीद नहीं और गंगोत्री सीट के बारे में भी पार्टी का एक धड़ा यह समझाने में कामयाब रहा कि तीरथ संभाल नहीं पाएंगे। वैसे भी यहां उपचुनाव में मुख्यमंत्रियों को हराने का इतिहास है और फिर कुछ तो सत्ता विरोधी रुझान भी है ही। कल तक भाजपा के सारे दिग्गज ताल ठोंक कर कह रहे थे कि मुख्यमंत्री उपचुनाव जरूर लड़ेंगे। संवैधानिक स्थित का हवाला देने पर अन्य तर्कों के अलावा मोदी है तो मुमकिन है जैसी बात भी कही गई। बेचारे तीरथ भी यही मान रहे थे। तो फिर उपचुनाव नामुमकिन होने की और भी तो वजह होगी। पर बताई नहीं जाएगी जैसे कि त्रिवेंद्र के जाने की वजहें बताने लायक नहीं हैं वैसा भी कुछ होगा। रामनगर के शिविर का असल चिंतन यही था।
अब कौन!
त्रिवेंद्र सिंह अपनी कुर्सी वापस पाने के लिए पूरा जोर लगाते रहे लेकिन इस प्रयास में उनके बागी तेवरों की झलक भी आलाकमान ने देखी। विधायकों के बीच उनकी पकड़ न होने का अंदाजा गैरसैण सत्र में चल ही चुका था। उसके बाद भी तीरथ पर उनके प्रत्यक्ष परोक्ष हमलों और विधायकों के जवाबी हमलों से साफ हो गया कि चुनावी सेना का प्रभार इन्हें भी देना ठीक नहीं। दिल्ली वालों के पास अनिल बलूनी नाम का स्काईलैब तैयार है । बलूनी के मीडिया वाले मित्र किसी न किसी बहाने उनकी ब्रांडिंग में लगे ही रहते हैं लेकिन सरकार और प्रदेश संगठन में बतौर नेता उनकी स्वीकार्यता के पैमाने पर मामला लटक जाता है। निशंक की प्रबल इच्छा पर अन्य बातों के अलावा उनका स्वास्थ्य भी एक मसला बन कर भारी पड़ा।
सतपाल महाराज की महाराष्ट्र वाली पकड़ और उनका मालदार होना दो बातें तो भारी थी ही। त्रिवेंद्र के हटने के बाद उनकी जो हनक दिखी उसे भी नोट किया गया। इस बीच कुछ लीक से हटकर बातें करके उन्होंने संगठन को भी जोड़ा। एकाधिक मौकों पर मुख्यमंत्री की मौजूदगी में अपनी उपस्थिति का उन्होंने जिस तरह अहसास कराया उससे भी लग रहा था कि उन्हें कहीं हरी झंडी दिख रही है। पार्टी के कुछ नेताओं ने यह भी संकेत दिया कि ऐन चुनाव से पहले की संभावित टूट रोकने में भी महाराज ज्यादा कारगर होंगे। पूर्व कांग्रेसी हैं तो क्या हुआ वह एक धार्मिक नेता भी हैं और ब्राह्मणवेशी ठाकुर नेता भी। शायद इसीलिए उनका नाम आगे है। संगठन की कमान हरिद्वार के पंडित मदन कौशिक के हाथों में है। इस पूरे घटनाक्रम में उनका अहम किरदार है। कहीं उनके मन नें माया जगी हो तो !!! वैसे मौजूदा समीकरण में संतुलन के नाम पर कुमाऊं के ठाकुर विशन सिंह चुफाल का नाम उछाला जा रहा है। महाराज को आगे करने में कुछ लोगों को संकोच है। अगर एक बार सेनापति बन गए तो चाहे जितना भी लुटाना पड़े अपनी सेना भी खड़ी कर सकते हैं । ऐसे में कई भावी मुख्यमंत्रियों के सपने टूट जाएंगे। आखिर ये मुख्यमंत्री पैदा क़रने वाला प्रदेश है। 21 साल में 10 तो हो गए। कैसे कैसे हो गए। जो होना चाहते हैं वे हाथ पांव तो मारेंगे ही। सब तीरथ रावत थोड़े हैं जो बैठते ही चुपचाप एक इशारे पर खड़े हो जाते हैं।