#Valentine_Special कर्म की धूनी पर प्रेम की साधनाः कृष्णा-राजेंद्र
Vineet Singh@Kota. साल 2003… जगह थी कला दीर्घा कोटा… जहां मध्यवर्गीय परिवार के वैवाहिक जीवन की विडंबनाओं को शब्दों में पिरोने वाले महान चितेरे राकेश मोहन के नाटक ‘’आधे-अधूरे’’ की रिहर्सल चल रही थी… लेकिन, किसे पता था कि नायक के सामने ऑडिशन दे रही नाटक की सबसे अहम किरदार उसके जीवन की भी नायिका बन जाएगी…!!!
जी हां, हम जिक्र कर रहे हैं ‘’आधे-अधूरे’’ से हुए ‘’पूरे पांचाल’’ यानि कला की महारथी कृष्णा महावर और थियेटर को आंदोलन बनाने वाले ओजस्वी कलाकार राजेंद्र पांचाल का। जिन्होंने की कर्म की धूनी पर प्रेम की अनवरत साधना। #Valentine_Special में प्रस्तुत हैं उनके जीवन के बेहद अहम पहलु…
शुरू हुए मुलाकातों के दौर
जीवन में मील का पत्थर साबित हुई इस मुलाकात के बारे में राजेंद्र पांचाल कहते हैं “ऐसा नहीं है कि यह हमारी पहली मुलाकात थी। इससे पहले भी कई मर्तबा मिले थे हम लोग। दोनों कोटा ही रहते थे, लेकिन हां, एक दूसरे को करीब से जाना-समझा पहली बार। इसके बाद हम और भी अच्छे दोस्त बन गए।“ हालांकि साल 2006 में मैं नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा (एनएसडी) चला गया और कृष्णा शांति निकेतन।
कृष्णा ने बढ़ाया हाथ
कृष्णा महावर बताती हैं कि इस दौरान उनका दिल्ली और राजेंद्र का शांति निकेतन आना जाना होता रहा। मेल-मुलाकातों के इस दौर में भले ही हम किसी से कुछ न बोले हों, लेकिन आंखें कहने भी लगीं थी और समझने भी। वह बेहद संजीदा किस्म के इंसान हैं, कहीं मुझे बुरा न लग जाए इसलिए कुछ कहने से शायद झिझक रहे थे!!! ऐसे में पहल मुझे ही करनी पड़ी…और एक रोज खुद आगे बढ़कर मैने अपने मन की बात उनसे कह ही दी।
राजेंद्र ने थाम लिया
कृष्णा बताती हैं कि मेरे पहल करने के बाद ऐसा नहीं है कि राजेंद्र ने झट से हां कर दी हो। उन्होंने कुछ समय मांगा ताकि एक दूसरे को समझ सकें कि क्या वाकई में दो अच्छे दोस्त बेस्ट पार्टनर भी बन सकते हैं? हां मुझे सोचने में समय लगा…!!! क्योंकि मैं फकीर किस्म का इंसान हूं… खुद को पूरी तरह से थियेटर को समर्पित कर चुका हूं… ऐसे में मेरे सामने सबसे बड़ा सवाल यही था कि आखिर आप किसके साथ जिंदगी भर जी सकते हैं…!!! क्योंकि जीवन बिताना नहीं जीना था… वह भी एक दूसरे की साधना को भंग किए बगैर…!!! एक दूसरे की पहचान मिटाए बगैर..!! दूसरे को खुद से ज्यादा सम्मान और अधिकार देकर… समर्पण देकर… प्रसन्नता देकर!!! राजेंद्र मुस्कुराते हुए आगे कहते हैं… आखिर में हम साल 2009 में दोस्त से लाइफ पार्टनर बन ही गए।
जमा बैठे कर्म की धूनी
कृष्णा और राजेंद्र के प्रेम की असल परीक्षा तो शादी के बाद शुरू हुई। दोनों ने कर्म की ऐसी धूनी रमाई कि प्रेम साधना और उसका प्रतिफल में बना रिश्ता पारस हो गया। कृष्णा बताती हैं कि शादी के बाद वह जयपुर चली गईं। जबकि राजेंद्र थियेटर को गांव-ढ़ांढ़ी तक ले जाने के संकल्प के साथ कोटा ही रुक गए। कृष्णा कहती हैं ‘’मैं जानती थी कि साधक को साधना से विरत नहीं किया जा सकता और रंगमंच ऐसी साधना है जिसके लिए कलाकार न समय देखता है और न ही साधन। सच कहूं तो मैने उन्हें पारिवारिक जिम्मेदारियों से पूरी तरह मुक्त कर दिया।‘’ उन्होंने मुझमें ऐसी हिम्मत, विश्वास और मजबूती भरी कि मैं खुद भी अपना वजूद निखारने मे जुट गई।
साधना को सलाम
कृष्णा बताती हैं कि “ राजेंद्र पांचाल, रोटेदा में पैराफिन थियेटर की स्थापना कर देश दुनिया के कला साधकों को रंगमंच की बारीकियां सिखाने और जनमानस में कला के प्रति आमजन में जागरुकता जगाने में ऐसे जुटे कि करीब तीन साल तक घर ही नहीं आए।“ और वह भी ऐसी स्थिति में जब कि बेटा ऋषभ सिर्फ 8 महीने का ही था। कृष्णा गौरवान्वित होते हुए कहती हैं कि… वक्त भले ही मुश्किलों से कटा, लेकिन हम दोनों के लिए ही यकीनन वह साल स्वर्णिम युग सरीखे थे। राजेंद्र पांचाल ने अभी तक के अपने सबसे बड़े नाटक सूर्यमल मिश्रण का मंचन पूरा किया। पैराफिन थियेटर की स्थापना की और कलाकार की असीमित पवित्रता को हासिल किया। और मैने, क्या किया… बताती हूं… इस दौरान आर्ट ट्रेंड, न्यू मीडिया आर्ट और वेस्टर्न एंड इंडियन इंस्टालेशन पर एक दो नहीं बल्कि, पूरी चार किताबें लिखीं…!! अरे रुकिए… कुछ और भी था… पहला राजस्थान ललित कला अकादमी पुरुस्कार और दूसरा राष्ट्रीय युवा कलाकार पुरस्कार। यह भी मैने इसी दोरान हासिल किया। यकीनन हम दोनों के लिए स्वर्णकाल था वह।
कृष्णा महावर और राजेंद्र पांचाल स्वर्णिम यात्रा निरंतर जारी है। द इनसाइड स्टोरी की ओर से दोनों को शुभकामनाएं।