#Valentine_Special खुला आकाश, प्रेम की बरसात, यह रितुल यात्रा है…

तुम्हारी हँसी मेरे मौन का संपूर्ण संवाद
तुम्हारा साथ मेरी साँसों में जमा सौरभ का स्रोत/
तुम देखो तो रंग भर जाते हैं मेरे सपनों में
और तुम छू दो तो हो जाता हूँ मैं कामनाओं की झील/
तुम्हारा प्रेम जैसे किसी मंदिर के शिखर पर लहराता ध्वज
मैं जिसके बहाने छू लेता हूँ सारा आकाश/
तुम्हारा प्रेम जैसे किसी शहर को उसके इतिहास का संबोधन
मैं जिसे सुनकर हो जाता हूँ पर्वतों सा बुलंद/
मैं रहूँ या नहीं रहूँ/ रहे यह प्रेम काल की सीमा के भी परे
प्रेम की संभावनाओं का भी कही सीमांकन संभव है भला?
यकीनन, नहीं…!!! ठीक उसी तरह उस प्रेम यात्रा को भी शब्दों में बांधना संभव नहीं… जिसके यात्री तमाम देहिक और भौतिक संबंधों से परे हों…!!! जहां भावों की संगत हो, शब्दों की थिरकन हो… विचारों की वैतरणी, खुला आकाश, सिर्फ और सिर्फ अनवरत प्रेम की बरसात… जी हां, वही रितुल यात्रा है…! और यात्री हैं कवि, लेखक, पत्रकार और साहित्यकार दंपत्ति अतुल कनक एवं रितु जोशी। आखिर कौन होगा वह, जो नहीं चाहेगा कि उसका प्रिय उसके लिए कविताएं लिखे… कहानियां और किस्से गढ़े, लेकिन जनाब यहां माजरा जरा उल्टा है…!! रितुल यात्रा का प्रारब्ध ही ‘’कनक रचनावली’’ में छिपा है।

“यूं तो मैं इन्हें बचपन से ही जानती हूं… थोड़ा होश संभाला तो घर आना जाना भी निरन्तर होने लगा…! प्रेम से पगी कविताएं ही नहीं इनके लिखे विरह के किस्से भी खूब पढ़े, लेकिन तब सिर्फ एक शब्दाकर्षण था, लेकिन मोह में तब बदला जब मैं पढ़ाई के लिए दूर हुई।‘’ रितु मुस्कुराते हुए कहती हैं… एक पखवाड़ा भी नहीं बीता कि मुझे याद आने लगी। मैने उन्हें (अतुल कनक) को कॉल किया कि मिलना है, आपकी याद आ रही है। तब जाकर समझ आया कि कुछ तो है? लेकिन, क्या है स्पष्ट कहना मुश्किल था…!!! आप इसे बचपन की मोहब्बत कह सकते हैं… लेकिन, मुझे 6 साल लगे यह कहने में। ‘’आप इसे आज के दौर जैसा प्रपोज करना बिल्कुल भी नहीं कह सकते’’… अतुल कनक कहते हैं। हम दोनों में से किसी ने भी एक दूसरे को प्रपोज कभी नहीं किया। हां, मेरी लिखी प्रेम कविताएं प्रपोजल लगी हों यह हो सकता है। हां, एक दूसरे के घर आना जाना काफी होता था और साल 94-95 आते-आते आंखों में दिखने भी लगा था कि कुछ तो है…!!!

बात आगे बढ़ती इससे पहले रितु ने टोका… एक कविता है इनकी जो हमारी मुलाकात के आपके सवाल पर एकदम सटीक बैठती है… सुनिए…

पहली बार किस जन्म में, कहाँ मिले थे हम/
तुम्हें याद है कृष्ण कि पहली बार कब मिले थे हम – तुम
कितने बरस हो गये हमारे सपनों को उद्दाम हुए/
राधा ने पूछा तो हँस कर बोले रासबिहारी-
तुम वर्षों की बात कर रही हो राधा!,
मुझे तो यह रिश्ता युगों पुराना लगता है/
प्रेम एक ही जन्म के पुण्यों का परिणाम होता तो कैसे महकाता साँसों को
कैसे मेरे सपने तुम्हारी नींद में उतर आते/
कैसे मेरी बाँसुरी में गुँथ पाते गीत तुम्हारे?
प्रेम का रिश्ता जन्म जन्मांतर का होता है
और यह याद रखना कुछ कठिन है कि
बस यही लगता है कि सृष्टि की उत्पत्ति के पहले भी हम तुम साथ थे
और यों ही साथ रहेंगे हमेशा/
जब शेष नहीं रहेगा कुछ भी, सिवाय प्रेम के…!! 
साल 1997… एक रोज वह भी क्षण आ गया कि मां और बाबूजी ने खुद आगे बढ़कर कह दिया… अतुल-रितु अब शादी कर लो…! और हम अतुल-रितु से रितुल हो गए…!!!

मजबूती की पहचान कराते हैं मुश्किल दौर
रितु बताती हैं कि “शादी के बाद परिवार आगे बढ़ा, लेकिन बेटी के जन्म के समय इतनी सारी परेशानियां हो गईं कि एक पल के लिए तो लगा कि कहीं सांसें ही साथ न छोड़ दें… लेकिन, फिर याद आया कि प्रेम करने के लिये तो अपने अस्तित्व के अहसास तक को भुलाना पड़ता है। ऐसे में जब आपका जीवन साथी पहाड़ सी मजबूती और फूलों से कोमल भाव लिए आपके साथ खड़ा होता है तो तकलीफ, दर्द और परेशानियां न जाने कहां छूमंतर हो जाती हैं। डॉक्टरों ने साफ कह दिया था कि दूसरे बच्चे की कल्पना भी न करें… और आप यकीन नहीं करेंगे वह दिन है और आज का दिन है, बेटी के रहते कभी हमें किसी कमी का अहसास तक नहीं हुआ। यकीनन, मुश्किल दौर रिश्ते को और भी ज्यादा मजबूत बनाते हैं।“

हमारा साथ ही तो हमारा वजूद है
रितु कहती हैं ‘’यह निहायत प्रयोगवादी इंसान हैं। जो यथार्थ के लिए जीते हैं। तभी लेखन की मौलिकता भी आती है। उपन्यास लिखना शुरू किया तो नायक की अवस्था का अहसास करने के लिए करीब 500 दिन लंबा उपवास कर डाला। मौन तो इनकी नियमित साधना है। यह मेरे लिए थोड़ा कठिन होता है। क्योंकि, आप रोकना तो दूर इस फैसले में बदलाव तक के लिए कुछ भी नहीं कर सकते।‘’ शुरुआत में कठिनाई हुई, लेकिन अब लगता है मैं भी इस रंग में रंग चुकी हूं। अतुल कनक ठहाका लगाते हुए एक किस्सा सुनाना नहीं भूलते ‘’बात शादी से पहले की है। मैं मौन व्रत ले चुका था और रितु की जिद थी कि मैं ऐसा न करूं। ठना-ठनी में रितु ने अपनी काइनेटिक से अपने ही पैर में टक्कर मार ली। और जब लोग उठाने आए तो नंबर भी मेरा ही दे दिया। पहली परेशानी तो तलाशने में आई और दूसरी समझाने में, लेकिन अच्छी बात यह है कि उस रोज यह समझ गईं कि व्रत सिर्फ लेखन की जरूरत नहीं, बल्कि एक लेखक की आस्था का विषय है। इसके बाद इन्होंने दोबारा कभी मुझे ऐसा करने के लिए नहीं कहा। सच कहूं तो हमारा साथ ही हमारा वजूद है।

खुला आसमान
अतुल लेखन में परिवार के योगदान का जिक्र कुछ इस तरह करते हैं “मुझे मेरी माता-पिता ही नहीं पत्नी और बेटी ने खुला आकाश दिया है। पूर्ण बंधन मुक्त… तभी तो इतनी विविधताओं के साथ लिख पाता हूं। जो कह दिया सो हो जाता है… जो चाहता हूं सो मिल जाता है… और क्या चाहिए आपको जीवन में…।।“ रितु कहती हैं “इनका लेखन बेहद व्यापक है, जबकि मैं कविताओं में ही मगन हूं। हां रिपोर्ताज, यात्रा वृतांत आदि लिखती रहती हूं, लेकिन सच कहूं तो हम दोनों की यात्राएं अपनी-अपनी हैं और सुखमई हैं। आप यकीन नहीं करेंगे कि घर के कोनो-कोने में साहित्य और लेखन ऐसा समाया है कि हम घंटों किताबों, किस्से कहानियों और कविताओं पर ही चर्चा करते रहते हैं। यही हमारा प्रेम है और यही हमारे नेह के समीकरण। और तो और अब बेटी भी इस राह पर चल पड़ी है। कुल मिलाकर खुले आकाश तले प्रेम की यह बरसात ही रितुल यात्रा है…।।
मूर्धन्य साहित्यकार दंपति रितु जोशी और अतलु कनक को द इनसाइड स्टोरी की शुभकामनाएं कि उनका प्रेम यूं ही सूरज-चांद बनकर आसमान में चमकता रहे। 

बाकलम-Vineet Singh@Kota 

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