शंटू का चश्माः शकुनि की चौपड़ पर बिछाई है बिसात तो, नौका नदिया से दूर किनारे क्यों ढूंढती है
रामायण और महाभारत के पात्र देखिए कैसे हर रोज नाचते हैं आपके आगे पीछे...
महाभारत और रामचरितमानस में उल्लेखित अनेकों दृष्टांत आपके व्यक्तिगत एवं व्यवसायिक जीवन में और दिन प्रतिदिन आपके आस पास होने वाले अनेकों घटनाक्रमों में परिलक्षित होते रहते हैं। जब ये घटित होते हैं तो खुशी में, दुख में, क्रोध में, धीरज में, कष्ट में, मौज़ में, ईर्ष्या में, द्वेष में, भय के, जीत के, खीझ के या और भी प्रकार के अनेकों मनोभावों के हिचकोलों के बीच में तात्कालिक रूप से इतिहास के झरोखे से क्षण भर को कुछ करेक्टर याद आ जाना, लेकिन कुछ पल बाद ही उन्हें भूल जाना ही मनुष्य का स्वाभाविक स्वभाव होता है।
मेरा मन हुआ कि क्षणिक रूप से कुछ करेक्टर मात्र को याद करने से आगे बढ़कर, लीक से हटकर कुछ घटनाक्रमों को पद्यरूपी धागे में, चुनिंदा मोतियों के मानिंद, शंटू के चश्मे के मोटे और रगड़ खा चुके लेंस से, कुछ अलग से दिखने वाले शब्दों में पिरोने की एक अलग सी कोशिश कर इन घटनाक्रमों और ऐतिहासिक दृष्टांतो के बीच कुछ जुगलबंदी बैठाई जाए।
तो आइए एक बार फिर से तात्कालिक विचारों और मनोभावों को अपनी कलम की गाढ़ी स्याही से उकेरी हुई पंक्तियों की पगडंडियों पर टहलाते हुए ऐसे घटनाक्रमों और ऐतिहासिक चरित्रों के मध्य स्थापित हो पाने वाले तानेबाने को ” शंटू के चश्मे” से आप लोगों को भी दिखलाने या यों कहें कि झरोखों से झंकवाने की कोशिश करता हूं।
आज की इस कृति का शीर्षक है… शकुनी की चौपड़ पर…। पढ़िए शंटू का चश्मा…
“शकुनि की चौपड़ पर,
बिछाई है बिसात तो।
नौका नदिया से दूर,
किनारे क्यों ढूंढती है।।”
वादा उन्होंने हमसे वो क्यूं ले लिया,
खुद ही जब उसको यूं ही भुला डाला,
परख कसौटी पे कन्फूंकों की क्यूं बारंबार,
मंगलसूत्र के सोने की चमक तक को मिटा डाला।
घिसते घिसते रफ्ता रफ्ता हर बार,
जेवर मेरे औ तन के अपने भी भरे बाज़ार,
वज़न गिरा दिया यूं तो आभूषणों का अपने,
खाजानाए भरोसा खुद का ही लुटा डाला।
मोहरे बिछा सजा के बिसात पे उनकी,
कर साज़िश महले सल्तनत में ही अपने,
समझ पाए ना ध्रतराष्टृ हो तुम दृष्टिहीन,
चाह हस्तिनापुर में शतके शोकेपुत्र लगवा डाला।
पांच गांव इंकार किए पांडवों को जब,
इंच इंच भूमि की चाह में दुर्योधन ने,
चूहे ना कुतर पाए जो मकाने लक्कड़,
दरख़्ते पीपल ही दीमक से चटवा डाला।
लालच में भांजे को देने राजसत्ता सारी,
चले दांव दर दांव शकुनि ने ग़जब अनूठे,
मरवाने भाई से भाइयों तक को अपने,
लाक्षाग्रह तक मामा ने बनवा डाला।
धरोहर पुरखों से तो मिली थी सब ढकी,
भ्रष्ट शकुनि ने हरी युवराज की जब मति,
शीशम दिखती थी बरसों से जो पकी,
घुनों से बुरादाए लक्कड़ ही बनवा डाला।
चौपड़ की चालों से शकुनि ने शतरंजी,
भाई भाई के बीच विषवमन कर डाला,
मर्यादा रिश्तों की दुर्योधन ने तारमतार कर डाला,
गंगापुत्र रहे गूंगे तो चीरहरण पौत्रवधू का कर डाला।
निभाने राजधर्म को अधर्मी कौरवों संग,
मूक रहे जब द्रोण और भीष्म पितामह,
दिखाने भर को शेष थे जो सबंध मधुर,
ज्वालाए जिगर से धुआं धुआं कर डाला,
पक्की ना थी लक्कड़ जिन जिन दरख्तों की,
हर उस शीशम को दीमक ने चाट डाला।
चालें शकुनि की तो थीं ही अजब गजब,
आकांक्षाएं दुर्योधन की भी थीं अनगिनत,
चुना माधव को ज्यों ही धर्मराज ने ,
पांसा शकुनि युधिष्ठिर ने त्यों ही पलट डाला।
दरम्यान गोविंदा औ सेना के चुनना था जब एक,
पांडवों ने चुना कृष्ण और दुर्योधन ने चुन ली सेना,
पितामह और द्रोण तो जान गए थे उसी पल,
सीखा हो युद्ध कौशल चाहे कितना भी बीते पल,
राजा बनेंगे धर्मराज ही आज नहीं तो निश्चित कल।
निभाने को दुर्योधन से धर्म मित्रता का,
सूतपुत्र तक कर्ण ने कहलाया स्वयं को,
मायाजाल अजब अनूठा शकुनि का कैसा,
कुंतिपुत्र को ही भाई अर्जुन से ही मरवा डाला।
हश्रे राजसत्ता क्या होता शकुनि के हाथों,
दुर्योधन के ख़्वाबों में पांडव मरवा डाले,
अर्जुनवध ना हो पाया था तब द्वापर युग में,
अफसोस पार्थ ने गुरुद्रोण औ पितामह को मार डाला।
माधव बने सारथी धनुर्धर के रथ पे,
ज्ञान गीता का पा कुरुक्षेत्र के बीचोबीच,
कर मजबूर गंगापुत्र को टंकारे गांडीव की,
पार्थ ने बनायी शैया और बाणों पे लिटा डाला।
यूं तो बांके थे हर करतब बिहारी के,
पर कमाल मुरली वाले का था वो ग़जब अनूठा,
मां गांधारी ने बुलवाया जब पुत्र को वस्त्रविहीन,
हर मति उसी पल दुर्योधन को बुद्धिहीन कर डाला।
सबबे नादानियां मिलना था एक दिन ज़रूर,
सीख नहीं ली जब कौरवों के विनाश से,
मरे नहीं पांडव जब द्वापर की महाभारत में,
चीरहरण द्रौपदी का कलयुग में क्यों कर डाला।
महाभारत से कल, आज और कल भी,
लें सीख आज और आने वाले कल भी,
पांसे शकुनि से ना जीत पाया रे कोई,
पास उसके गर बांसुरी वाला ना होई।
भेद सकता है बाणों से अर्जुन, देखा है आपने,
भूल सकता है कौन अपना या पराया है कौन,
वो तो मजबूर है वादाए धर्म निभाने को,
वरना रहता क्या अब तक यूं ही मौन?
पहिया घूमने पर समय का जब तब,
नौका व नाविक नदिया के तट के किनारे क्यों ढूंढते हैं,
धारा है गर शीतल और निर्मल जल की,
तो छोड़ मझधार धरा का सहारा क्यों ढूंढते हैं।
लेखकः प्रमोद कुमार शंटू, वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी एवं साहित्यकार हैं।