माता रमाबाई आंबेडकर की जयंती पर पढ़िए बाबा साहब का वो ऐतिहासिक पत्र जिसमें ढेर सारा प्यार और दर्द भरा है

भीमराव आंबेडकर लिखते हैंः 'रमा मैं सोचता हूं, तुम अगर मेरी ज़िंदगी में ना होती तो मेरा क्या होता?'

त्याग और करूणा की मूर्ति माता रमाबाई आंबेडकर की जयंती पर पढ़िए बाबा साहब डॉ आंबेडकर का वो ऐतिहासिक खत जो उन्होंने लंदन से रमाबाई को लिखा था। इस खत में बाबा साहब ने ना सिर्फ माता रमाई के संघर्ष को बयां किया बल्कि उनके प्रति अपने अथाह प्रेम को भी ज़ाहिर किया।
माता रमाबाई को डाॅ. आंबेडकर का दिल छू लेने वाला ऐतिहासिक पत्र:-

रमा,
मैं ज्ञान का सागर निकाल रहा हूं। मुझे और किसी का भी ध्यान नही है। परंतु यह ताकत जो मुझे मिली है, उसमें तुम्हारा भी हिस्सा है। तुम मेरा संसार संभाले बैठी हो। आंसुओं का जल छिड़ककर मेरा मनोबल बढ़ा रही हो। इसलिए मैं बेबाक तरीके से ज्ञान के अथाह सागर को ग्रहण कर पा रहा हूं।

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आंबेडकर परिवार।

रमा! कैसी हो रमा तुम? तुम्हारी और यशवंत की आज मुझे बहुत याद आई। तुम्हारी यादों से मन बहुत ही उदास हो गया है। पिछले कुछ दिनों के मेरे भाषण काफी चर्चा में रहे। कॉन्फ़्रेंस में बहुत ही अच्छे और प्रभावी भाषण हुए। ऐसा मेरे भाषणों के बारे में यहां के अखबारों ने लिखा है। इससे पहले राउंड टेबल कांफ्रेंस के बारे में अपनी भूमिका के विषय पर मैं सोच रहा था और आंखों के सामने अपने देश के सभी पीड़ित जनों का चित्र उभर आया। पीड़ा के पहाड तले ये लोग हजारों सालों से दबे हुए हैं। इस दबेपन का कोई इलाज नहीं है। ऐसा ही वे समझते हैं। मैं हैरान हो रहा हूं। रमा, पर मैं लड़ रहा हूं।

मेरी बौद्धिक ताकत बहुत ही प्रबल बन गई है। शायद मन में बहुत सारी बातें उमड़ रही हैं। हृदय बहुत ही भाव प्रवण हो गया है। मन बहुत ही विचलित हो गया है और घर की, तुम् सबकी बहुत याद आई। तुम्हारी याद आई। यशवंत की याद आई। मुझे तुम जहाज पर छोड़ने आयी थी। मैं मना कर रहा था। फिर भी तुम्हारा मन नही माना। तुम मुझे पहुंचाने आई थी। मैं राउंड टेबल कांफ्रेंस के लिए जा रहा था। हर तरफ मेरी जय-जयकार गूंज रही थी और यह सब तुम देख रही थी। तुम्हारा मन भर आया था, कृतार्थता से तुम उमड गयी थी। तुम्हारे मुंह से शब्द नही निकल रहे थे। परंतु, तुम्हारी आंखें, जो शब्दों से बयां नही हो पा रहा था, सब बोल रही थीं। तुम्हारा मौन शब्दों से भी कई ज्यादा मुखर बन गया था। तुम्हारे गले से निकली आवाज तुम्हारे होठों तक आकर टकरा रही थी।

होठों से निकले शब्दों की भाषा के बजाय आंखों की आंसुओं की भाषा ही तुम्हारी सहायता के लिए दौड़कर आए थे। और अब यहां लंदन में इस सुबह बातें मन में उठ रही हैं। दिल कोमल हो गया है। जी में घबराहट सी हो रही है। कैसी हो रमा तुम? हमारा यशवंत कैसा है? मुझे याद करता है वह เว็บไซต์? उसकी संधिवात [जोड़ों] की बीमारी कैसी है? उसको सम्भालो रमा! हमारे चार बच्चे हमें छोड़ कर जा चूके हैं। अब है तो सिर्फ यशवंत ही बचा है। वही तुम्हारे मातृत्व का आधार है। उसे हमें सम्भालना होगा। यशवंत का खयाल रखना रहना रमा। यशवंत को खूब पढ़ाना। उसे रात को पढ़ने उठाती रहना। मेरे बाबा मुझे रात को पढ़ने के लिए उठाया करते थे। तब तक वे जगते रहते थे। मुझे यह अनुशासन उन्होंने ही सिखाया। मैं उठकर पढ़ने बैठ जाऊं, तब वे सोते थे। पहले-पहले मुझे पढ़ाई के लिए रात को उठने पर बहुत ही आलस लगता था। तब पढ़ाई से भी ज्यादा नींद अच्छी लगती थी। आगे चलकर तो जिंदगी भर के लिए नींद से अधिक पढ़ाई ही अहम लगने लगी।

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इसका सबसे ज्यादा श्रेय मेरे बाबा को जाता है। मेरी पढ़ाई की लौ जलती रहे, इसलिए मेरे बाबा तेल की तरह जलते रहते थे। उन्होंने रात-दिन एक कर दिया। अंधेरे को उजाला बनाया। मेरे बाबा के श्रम के फल अब मिल रहे हैं। बहुत खुशी होती है रमा आज।

रमा, यशवंत को भी ऐसी ही पढ़ाई की लगन लगनी चाहिए। किताबों के लिए उसके मन में उत्कट इच्छा जगानी होगी।

रमा, अमीरी-ऐश्वर्य यह चीजें किसी काम की नहीं। तुम अपने इर्द-गिर्द देखती ही हो। लोग ऐसी ही चीजों के पीछे हमेशा से लगे हुए रहते हैं। उनकी जिन्दगियां जहां से शुरू होती है, वहीं पर ठहर जाती है। इन लोगों की जिंदगी जगह बदल नही पाती। हमारा काम ऐसी जिंदगी जीने से नही चलेगा रमा। हमारे पास सिवाय दुख के कुछ भी नही है। दरिद्रता, गरीबी के सिवाय हमारा कोई साथी नही। मुश्किलें और दिक्कतें हमें छोड़ती नही हैं। अपमान, छलावा, अवहेलना यही चीजें हमारे साथ छांव जैसी बनी हुई हैं।

सिर्फ अंधेरा ही है। दुख का समंदर ही है। हमारा सूर्योदय हमको ही होना होगा रमा। हमें ही अपना मार्ग बनना है। उस मार्ग पर दीयों की माला भी हमें ही बनानी है। उस रास्ते पर जीत का सफर भी हमें ही तय करनी है। हमारी कोई दुनिया नही है। अपनी दुनिया हमें ही बनानी होगी।

हम ऐसे ही हैं रमा। इसलिए कहता हूं कि यशवंत को खूब पढ़ाना। उसके कपड़ों के बारे में फिक्रमंद रहना। उसको समझाना-बुझाना। यशवंत के मन में ललक पैदा करना। मुझे तुम्हारी बहुत याद आती है। यशवंत की याद आती है। मैं समझता नहीं हूं। ऐसा नही है रमा, मैं समझता हूं कि तुम इस आग में जल रही हो। पत्ते टूट कर गिर रहे हैं और जान सूखती जाए ऐसी ही तू होने लगी है। पर रमा, मैं क्या करूं? एक तरफ से पीठ पीछे पड़ी दरिद्रता और दूसरी तरफ मेरी जिद और लिया हुआ दृढ संकल्प। संकल्प ज्ञान का! मैं ज्ञान का सागर निकाल रहा हूं। मुझे और किसी का भी ध्यान नही है। परंतु यह ताकत जो मुझे मिली है उसमें तुम्हारा भी हिस्सा है। तुम यहां मेरा संसार संभाले बैठी हो। आंसुओं का जल छिड़ककर मेरा मनोबल बढ़ा रही हो। इसलिए मैं बेबाक तरीके से ज्ञान के अथाह सागर को ग्रहण कर पा रहा हूं।

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सच कहूं रमा,मैं निर्दयी नहीं। परंतु, जिद के पंख पसारकर आकाश में उड़ रहा हूं। किसी ने पुकारा तो भी यातनाएं होती हैं। मेरे मन को खरोंच पडती है और मेरा गुस्सा भड़कता है। मेरे पास भी हृदय है रमा! मैं तड़पता हूं। पर, मैं बंध चुका हूं क्रांति से! इसलिए मुझे खुद की भावनाएं चिता पर चढ़ानी पड़ती हैं। उसकी आंच तुम्हारे और यशवंत तक भी कभी-कभी पहुंचती है। यह सच है। पर, इस बार रमा मैं बाएं हाथ से लिख रहा हूं और दाएं हाथ से उमड आए आंसू पोंछ रहा हूं। पतले (यशवंत) को सम्भालना रमा। उसे पीटना मत। मैंने उसे पीटा था। इसकी कभी उसे याद भी नही दिलाना। वही तुम्हारे कलेजे का इकलौता टुकड़ा है। इंसान के धार्मिक गुलामी का, आर्थिक और सामाजिक ऊंच-नीचता एवं मानसिक गुलामी का पता मुझे ढूंढना है। इंसान के जीवन में ये बातें अडिग बन कर बैठी हैं। उनको पूरी तरह से जला-दफना देना चाहिए। समाज की यादों से और संस्कार से भी यह चीजें खत्म कर देने की जरुरत है।

रमा, तुम यह पत्र पढ रही हो और तुम्हांरी आंखों मे आंसू आ गए हैं। गला भर आया है। तुम्हारा दिल थरथरा रहा है। होंठ कांप रहे हैं। मन में उमड़े हुए शब्द होठों तलक चलकर भी नही आ सकते। इतनी तुम व्याकुल हो गयी हो।

रमा, तुम मेरी जिंदगी में न आती तो? तुम मन-साथी के रुप में न मिली होती तो? तो क्या होता? मात्र संसार सुख को ध्येय समझने वाली स्त्री मुझे छोड़ के चली गई होती। आधे पेट रहना, उपला चुनने जाना या गोबर ढूंढ कर उसका उपला थांपना या उपला थांपने के काम पर जाना किसे पसंद होगा? चूल्हे के लिए ईंधन जुटाकर लाना, मुम्बई में कौन पसंद करेगा? घर के चिथडे़ हुए कपडों को सीते रहना। इतना ही नहीं, एक माचिस में पूरा माह निकालना है। इतने ही तेल में और अनाज, नमक से महीने भर का काम चलाना चाहिए। मेरा ऐसा कहना। गरीबी के ये आदेश तुम्हें मीठे नहीं लगते तो? तो मेरा मन टुकड़े-टुकड़े हो गया होता। मेरी जिद में दरारें पड़ गई होतीं। मुझे ज्वार आ जाता और उसी समय तुरन्त भाटा भी आ जाता। मेरे सपनों का खेल पूरी तरह से तहस-नहस हो जाता। रमा, मेरे जीवन के सब सुर ही बेसुरे बन जाते। सब कुछ तोड़-मरोड़ के रह जाता। सब दुखमय हो जाता। मैं शायद बौना पौधा ही बना रहता।

सम्भालना खुद को, जैसे सम्भालती हो मुझे। जल्द ही आने के लिए निकलूंगा। फिक्र नहीं करना। सब को कुशल कहना।

तुम्हारा,
भीमराव, लंदन 30 दिसंबर, 1930

(प्रो. यशवंत मनोहर की मराठी पुस्तक ‘रमाई’ से साभार)

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